कविताएँ ::
मैट रीक

मैट रीक

असफलता का अंतिम क्षण
नैयर मसूद की याद में

एक

एक दिन यह हुआ कि मैं अपनी सारी असफलताएँ
एक बड़े बॉक्स में डालकर डाकघर गया। वहाँ से
उन्हें दूर रेतवाले इलाक़े को भेज दिया जहाँ एक मकान
स्थित था जो मैं जानता था हमेशा ख़ाली रहता था।

फ़्लैट पर लौटकर बहुत ख़ुशी हुई। एक-दो दिन के लिए
ऐसा रहा कि जो भारी-भरकम वज़न मेरे इर्द-गिर्द
गिद्ध के जैसे चक्कर लगाता रहता था (मांस पक जाने
या सड़ जाने की प्रतीक्षा में) वह मिट गया पूरे का पूरा।

सालों से न मिले दोस्तों के पास गया और
चंद घंटों के दौरान युवाकाल के बारे में बातचीत की।
हर याद तेजी से आ गई, हर दिलचस्प जीवन कहानी
हर प्यार गहराई से फिर से महसूस किया।

फिर अपने फ्लैट पर वापस जाकर अपनी बीवी से
ऐसे सरासर भावनाओं से प्यार किया जैसे हमारी शादी
के जस्ट बाद आम था। वह भी मुक्त रही। उसने पूछा :
‘क्या हुआ तुम्हें?’ पर मैं कुछ कहने के लायक़ नहीं था।

मैंने सोचा कि आख़िरकार सफलता मिली।
इतने लंबे अरसे के दौरान मुझे क्यों यह नहीं सूझा
कि एक बॉक्स में अपनी सारी असफलताएँ लादकर
कहीं भेज दूँ! आप नहीं समझेंगे कि मैं कितना ख़ुश था!

फिर एक दिन आया कि शाम को मैं फ़्लैट पर
लौटा और दरवाज़े के ठीक सामने एक बड़ा
बॉक्स पड़ा देखा। मेरा दिल टूटने को तैयार था।
सोचा कि वह मेरा भेजा हुआ बॉक्स होगा।

लेकिन वह नहीं था। आगे बढ़कर पता लगा
कि वह रेतवाले इलाक़े से ही भेजा गया था,
लेकिन उसे ठोकर मारी तो ख़ाली-सा लगा।
उसे अंदर न लाकर मैंने दरवाज़ा खोलकर
घर में प्रवेश किया। अंदर सब अँधेरा, सब सुकून।
बीवी को बुलाया पर जवाब नहीं मिला।
बच्चों के कमरे में घुसकर वैसा ही रहा,
कोई नहीं, सुनसान, ख़ाली। खाने की मेज़ तक
पहुँचा तो देखा कि एक चिट्ठी पड़ी थी।
मैंने उसे पकड़कर पढ़ा।
वह इतनी छोटी थी
और बुरी थी कि कुछ मतलब नहीं निकला।

वापस आकर दरवाज़े के सामने रखा बॉक्स
अंदर लाया। चाक़ू से टेप काटा। बॉक्स में
कोई चीज़ नहीं थी, पर एक बहुत बुरा
एहसास फैला जैसे कि कोई मर गया या जल्दी मरेगा।

एक-दो दिन बीते। बीवी-बच्चे नहीं लौटे।
ज़रूर, मैं घबरा रहा था लेकिन पुलिस से क्या कहें?
फिर वे अचानक वापस आए। दरवाज़े पर
मुझे बुला रही थी : ‘दरवाज़ा खोलो! हम सब हैं!’

बीवी मुस्करा रही थी, बच्चों ने मुझे गले लगाया।
मैंने पूछना चाहा कि आप लोग कहाँ थे पर पूछा नहीं।
उस दिन के बाद सब कुछ ठीक था। मेरी प्रसन्नता
इतनी थी। कोई बुरी तब्दीली नहीं दिखी।

जॉब, पैसे, मान सम्मान, सब पहले के जैसे थे
लेकिन बॉक्स भेजने के बाद वही ख़ुशी भी
रही। हालत, मानसिकता, मूड
सब अच्छे से अच्छा। सोचा कि सफलता मिली।

फिर भी बीवी-बच्चे पहले की तुलना में
इतने हँसते नहीं, मैंने पूछा कि क्यों लेकिन बीवी ने
क़बूल नहीं किया : ‘मैं ठीक-ठाक हूँ…’ कह दिया।
लेकिन कुछ अजीब था। बीवी को छूने की
कोशिश करता, तो वह मेरा हाथ हटा देती।
बच्चे स्कूल से आने के बाद मेरे जुमला बनाते ही,
प्रश्न पूछते ही, जवाब नहीं मिलता, सिर्फ़,
‘मैं बिज़ी हूँ, अब्बा, बाद में बात करते हैं, न?’

कुछ ठीक नहीं था, तो मैंने निश्चय किया कि
एक सफ़र करूँगा, रेतवाले दूर इलाक़े तक।
लंबे सफ़र के बाद वहाँ पहुँचा। शहर में
धूप फैली थी, पेड़ सूखे थे, पत्तों के बिना।

लोग मेरे मुँह को नहीं देखते जैसे कि कोई
आफ़त आई। पता ढूँढ़ा, मकान वैसा ही था
जैसा पहले। आगे बढ़कर घंटी बजाई।
एक लंबी प्रतीक्षा में कोई नहीं आया।

फिर आवाज़ आई। एक मिनट के बाद अंदर से
किसी को दरवाज़े का ताला खोलते सुना।
दरवाज़ा खुला, और मैं आश्चर्य से भौचक्का।
मेरी बीवी मेरे सामने खड़ी हुई थी!

बिना पहचान के, बिना प्यार के, उसने पूछा :
‘हाँ जी, सर, आपकी सेवा कैसे कर सकती हूँ?’
और उसके पीछे मेरे बच्चे फ़र्श पर बैठे
मेरी सारी असफलताएँ गिन रहे थे!

दो

बेहोश पड़ा। जागकर देखा कि मैं किसी क्लीनिक में
पलंग पर लेटा। हाथ हथकड़ी से पलंग के लोहे
के रेल्ज़ से बँधे थे। जल्दी पुकारा। डॉक्टर आया।
उसने मुझे मुस्कुराते हुए समझाया कि रेतवाले शहर
की किसी उजड़ी सड़क के किसी ख़ाली मकान
के सामने किसी ने मुझे ज़मीन पर पाया।
अस्पताल आने के बाद बेहोश होते हुए भी
बार-बार भागने की कोशिश करने की वजह से
मुझे ज़ंजीर लगायी गई थी। ‘क्या मैं बीमार हूँ?’
मैंने पूछा। नहीं। मुझे जाने की इजाज़त मिली
तो मैं मकान की तरफ़ दौड़ा। वहाँ ख़ामोशी थी।
कोई अंदर नहीं था। दरवाज़ा लू में ज़ोर से चौखट से
लड़ रहा था। मेरा परिवार नहीं था तो मैंने सोचा
कि वे शायद फ़्लैट पर वापस गया। मैंने जल्दी
बस स्टैंड पर वापस जाने की बस पकड़ी।

मैं थकान से सो गया होगा, क्योंकि अगला जो दृश्य
मेरी आँखों में आया वह मेरे शहर का था।
रिक्शा जल्दी बुलाया और आधे घंटे के बाद
फ़्लैट पर पहुँचा। इस बार भी डर था कि दरवाज़े के पास
मैं अपना लौटा हुआ बॉक्स ढूँढ़ूँ। लेकिन कुछ नहीं था।
अंदर कोई नहीं। लगा कि महीनों से
कोई नहीं घुसा। न जाने क्या करना है, मैं कुर्सी में
बैठा और सोचा। उस अजीब चिट्ठी की याद आई
तो मेज़ पर ढूँढ़कर हाथ में पकड़ी। सोचा
कि मेरे बच्चे विज्ञान पढ़ रहे थे तो उनके कमरे में
शायद एक आवर्धक लेंस होगा, पर वहाँ नहीं था।
मेरे एक वैज्ञानिक दोस्त थे। फ़ौरन फ़ोन किया और
उन्होंने आने को कहा। जब मैं उनके हाँ पहुँचा
परिवार खाना खाने बैठा था। साथ में
डिनर लेने की दावत दी, लेकिन मेरा चेहरा
इतना अजीब दिखा होगा कि मेरे दोस्त मुझे
शीघ्र एक कमरे में लेकर आए। ‘तुम ठीक हो?’
उन्होंने पूछा। समझाने के शब्द ज़बान पर
नहीं आए, आवर्धक लेंस उनके हाथ से छीना।
मैंने जेब से चिट्ठी निकालकर जाँचनी शुरू की।
इस बार यह स्पष्ट था कि पहला हिस्सा मेरी बीवी
के हाथ से लिखा गया और साफ़-साफ़ लगा
कि वह किसी वजह से घबरा रही थी।
बाक़ी आधी चिट्ठी मेरी सबसे बड़ी बेटी ने लिखी,
और वहाँ यह साबित हुआ कि लिखते हुए
वह रो रही होगी। शब्दों का अर्थ साफ़ नहीं था,
लेकिन जज़्बात बहुत स्पष्ट थे।
जल्दी फ़्लैट पर लौटकर सो गया। अगले दिन शहर में
घना कोहरा फैला हुआ था। पाँच फ़ीट आगे
कोई नज़र नहीं आता था। जॉब गया, दिन गुज़रा,
मैंने किसी से नमस्ते कहा कि नहीं,
मुझे कुछ याद नहीं रहा। फ़्लैट पर गया और अंधाधुंध
रो पड़ा। मेरी प्रसन्नता खो गई। मेरा परिवार ग़ायब!

रुख़सार पर आँसू बह रहे थे—एक अनजान नदी की तरह।
टीवी खोलकर न्यूज़ देखने लगा। धीरे-धीरे यह लगा
कि समाचार मेरे ही लिए दुहराया जा रहा था।
सच है कि समाचार के वाक़यात आम दिनों के जैसे थे,

लेकिन उसमें एक और धारा छिपी हुई थी
जिसमें ख़ास मेरे लिए कुछ शब्द महत्त्वपूर्ण थे।
ऐसा लगा कि वह मेरे रहस्य की चाबी थी।
‘गरीबी रेखा’
‘जीवनशैली’
‘आत्महत्या’
‘अरबपति’
‘अर्थव्यवस्था’
‘तनाव’
‘लालच’
‘कामयाब’
‘क़र्ज़’… समाचार उद्घोषक की
गोली मारने वाली आवाज़ को सुनते-सुनते
मैं काउच पर सो गया। मेरा पूरा जीवन
विभिन्न दृश्यों में मेरी आँखों के सामने गुज़रा
जैसे मैं एक फ़िल्म देख रहा था। आगे-पीछे
ऊपर-नीचे सब एक रहस्यपूर्ण कहानी थी।
कहानी में एक नुक्कड़ पहुँचकर एक दिशा में
जाता, तो जीवन उसी लाइन में मुड़कर
तब्दील कर लेता, दूसरी दिशा में मुड़कर
एक दूसरा जीवन मुझे मिलता। लगा कि
ज़िंदगी मेरे क़ाबू में कभी नहीं थी।
ज़िंदगी ही फ़ैसला करने वाली थी।
मेरी बीती ज़िंदगी की झाल इतनी पेचीदा थी
जैसे कि हज़ारों लोगों के हाथ जोड़कर कोई नहीं
समझ सकता कि उँगलियाँ किसकी हैं।

अपने से मैंने कहा, ‘मैं चींटा नहीं, मक्कार
नहीं, इंसान हूँ! फिर भी ताक़तवर नहीं!’
सुबह सीधे दूर शहर जाने की बस में बैठा।
रेगिस्तान पहुँचा। दोज़ख़ पहुँचा।

तापमान इतना ज़्यादा बढ़ा कि मेरा चेहरा
पसीने से लिसलिसा हो गया।
रेगिस्तानी शहर की आख़िरी सड़क पर गया
और मैं अपने आरंभिक वक़्तों के मकान
के पास दौड़ा। जब मेरे माँ-बाप मरे,
मैं शहर में शिफ़्ट कर चुका था।
उनके घर में रहना असंभव था।
बेचना भी नहीं चाहता था। ख़ाली रहा,
कोई अंदर नहीं, कोई पड़ोसी भी नहीं।
पिछवाड़े में गया। उस पिछवाड़े में
समय का सिलसिला कटा हुआ लगा।
मेरी एक लाल गेंद
सूखी तुलसी के पौधे की आधी छाया में पड़ी थी।

मैं जो एक इकलौता बेटा था हर रोज़
उसी गेंद के साथ स्कूल वापस आने के बाद
खेला करता था। पिछवाड़े के दरवाज़े से
रसोई में घुसा। पचास डिग्री से ज़्यादा गर्मी थी।

मैं हाँफने लगा। वहाँ नहीं रुका,
अपने बचपन के कमरे की ओर मुड़ा। दूसरी मंज़िल
पहुँचा, तो एक क्षण थम गया। अजीब अहसासात
हो रहे थे। यह मेरे बचपन का प्रिय घर था
लेकिन माँ-बाप की ग़ैरहाज़री में मुझे शक हुआ
कि शायद मैं एक भूत हूँ! बचपन के किसी
शनिवार को जब माँ नीचे सो रही थी मैंने फ़र्श पर
अपने पिता की आरी से एक छेद काटकर बनाया
जिसमें उसी दिन से मैं अपने सारे रहस्य
छिपाया करता था। फ़र्श के काटे हुए हिस्से को
खिसकाया। अंदर देखा, तो वहीं वह बॉक्स था,
वही भेजा हुआ बॉक्स था। बॉक्स को ऊपर उठाया
और पहली मंज़िल पर आया। रसोई में
एक चाक़ू हाथ में लिया फिर जल्दी से रख दिया।
पिछवाड़े की तुलसी की सारी सूखी शाख़ों को हाथ से
तोड़ा। सब पिछवाड़े की ज़मीन पर फेंक दिया।

फिर रसोई में वापस जाकर बॉक्स बाहर लाया।
चिता पर उसे रखा और माचिस से
आग लगाई। मैंने अपनी असफलताओं का
देह संस्कार मनाया। बॉक्स जलते ही
मेरा मोबाइल बजा। मैंने जेब से उसे
निकाला तो देखा कि एसएमएस आया था।
मेरी बीवी ने लिखा था : ‘कहाँ हो तुम?
बच्चे बुला रहे हैं। जल्दी घर आओ।’

यह धागा, यह चीख़

एक दिन एक धागा आसमान में दिखा।
एक आदमी धागा देख कर उस पर चढ़ा।
लगा कि उसका अंत एक तारे पर होगा।

बहुत चढ़ने के बाद उसे पता चला कि
जो तारा उस धागे का अंत लगा,
वह हज़ारों साल पहले बुझ गया था।

मायूस होने के बजाए उस आदमी ने उसके पीछे
एक महासूर्य देखा। करोड़ों साल का सफ़र
तय करने के बाद जब वह महासूर्य के पास पहुँचा,
वह जल्दी जल गया। बहुत समय बीता।
अरबों साल बाद एक दूसरे आदमी ने
यही धागा देखा। इस वक़्त धागा ज़मीन पर
पड़ा था। आदमी ने उसे खींचा।
वह ढीला नहीं था, तना हुआ भी नहीं था।
वह चढ़ने लगा। पर इस बार यह आदमी
अकेला नहीं था। उसका परिवार भी चढ़ा।
मुसीबत थी कि जब धरती पर लोगों ने
उसे और उसके परिवार को चढ़ते देखा,
लालच से या घमंड से सारे लोग धागे पर
चढ़ना चाहने लगे। भाग-दौड़ हुई।

जो आदमी बहुत पहले जल चुका था
उसकी आत्मा अंतरिक्ष के खोखलेपन में
तैर रहा था। जब उसने चढ़ती भीड़ देखी
तो वह चेतावनी देना चाहता था।

लेकिन मुँह खोलने पर कोई आवाज़ नहीं आई।
मुसीबत से मुसीबत बढ़ी। लोग शहरों से
खेतों से, ख़ुशी की जगहों से
दुःख के स्थानों से धागे के पास
आए। जल्दी पूरी पृथ्वी की आबादी
सामान लेकर धागे के पास आ पहुँची।

धागा इतना तगड़ा नहीं था
जितना होना चाहिए था। भारी वज़न के मारे
धागा टूटा। लोग गिरकर मरे।

आदमी की बेआवाज़ चीख़ सुनते रहो!

यह जो है

मैं बेटा हूँ बाप का बेटा
मेरा परिचय करें तो सोचेंगे नहीं
कि मैं बेटा हूँ सोचेंगे कि मैं जो हूँ
एक अधेड़ उम्र का आदमी हूँ

सोचेंगे कि इतना लंबा हूँ
वज़न इतना है चेहरा अच्छा है

या बुरा सोचेंगे कि
कपड़े इतने क़ीमती हैं

पढ़ाई कहाँ तक हुई
हँसी-मज़ाक़ का शौक़ीन हूँ

या गंभीर रहता हूँ
भोला हूँ या चालाक

लड़कियों से प्यार करता हूँ
या मर्दों से (या शायद दोनों से)

आप तेज़ हैं
तो सोचेंगे कि मैं जो हूँ

किस देश का नागरिक हूँ
किस पार्टी को वोट देता हूँ

किस वर्ग का हूँ और बैंक में
दरअस्ल कितने पैसे हैं

किस बीमा का कौन-सा प्लान ले लिया है
और सप्ताह भर ख़र्च कितने हैं

बाप की छवि देखें तो
बेटे को नहीं पहचानेंगे

बाप की आवाज़ सुनें
तो बेटे की आवाज़

सोचने में नहीं आएगी
पर उस क्षण में

जब आप मुझसे मिलेंगे
और जितने मेरे बारे में जान लेंगे

कुछ न कुछ ग़लत न होते हुए भी
(आप तेज़ हैं और अंधे नहीं हैं)

फिर भी आप यह रहस्यपूर्ण
और वज़नी बात नहीं समझेंगे
कि मैं जो हूँ
मैं बेटा हूँ बाप का बेटा

आपसे मुझे
मुझसे आपको

एक

मैंने अम्मी से सुनना सीखा
आपसे करना सीखा

पहले सप्ताह भर
हम आपकी मनचाही बातें
किया करते थे

हल्की-सी बातें
अच्छी-सी बातें

अभी हम अपनी
मनचाही बातें करते हैं

गहरी-सी बातें
अच्छी-सी बातें

जो रिश्ता हमारा था
आपके इंतक़ाल के कारण
टूटा-सा रह गया है

दो

एक बार
(याद है आपको?)
मेहरौली रोड पर
टहलते हुए
आपने कहा कि
कविता लिखना कठिन है
क्योंकि अपने अंदर
गहराई से
देखना पड़ता है

मेरे कर्मभोगी
अगर आप अपनी माँ से
सुनना सीखते
तो शायद मैं आपके
मन के नीचे जाना
आपको सिखा सकता

तीन

सुनते जाने का मक़सद
मंज़िल तक पहुँचाता है

करने का लक्ष्य
किसी चीज़ को अर्जित करना है

पहले हम किया करते थे
बाप-बेटा

अभी मैं आपको सुनाता हूँ
और आपके लिए
यह सबसे कठिन काम करना है

बग़ैर तन के मेरी आवाज़ सुनना

प्रतीक्षा-यात्रा

मैंने यहाँ आकर कहा :
‘मैं एक यात्री हूँ।’

उसने कहा :
‘हम सब यात्री हैं।
लाइन में खड़े रहो।’

लाइन में खड़े होकर
बहुत समय बीता। मैंने कहा :
‘वास्तव में, मुझे कुछ नहीं चाहिए।
क्या मैं जा सकता हूँ?’
उसने कहा : ‘तुमने नहीं समझा
कि यह कैसी लाइन है।
यह मिलने की लाइन नहीं
दिल तोड़ने की है।
तुम्हारे लिए सही है, साहिब।’

लाइन में और भी टाइम खड़े रहने के बाद
मैंने जाने की कोशिश की।
बाज़ू पर मैंने एक हाथ महसूस किया।
‘कहाँ जा रहे हो?’ उसने कहा।
मैंने समझाना शुरू किया, ‘जैसे मैंने—’
‘चुप!’ उसने कहा। ‘गधे!’
‘यह तुम्हारी पहली बार है, न?
यहाँ चुप रहना ही ठीक है।
क्या दूसरे लोग गपशप मार रहे हैं?
नहीं! चुप!’

यह सब हुआ। मुझे नहीं पता कहाँ।
कहीं भी लाइन नहीं झिझकी।
कई हज़ार साल बीते।
मैं बूढ़ा हो गया, मेरे बाल सफ़ेद
होकर गिर पढ़े। नंगा और गंजा
हो गया। मरने से ही पहले
एक दिन कोई यहाँ आया।
आकर कहा, ‘मैं एक यात्री हूँ।’

बहुत मुश्किल से
अपना मुँह ऊपर लाकर
आहिस्ता-आहिस्ता
मैंने कहा : ‘हाँ, हम सब
ऐसे हैं। लाइन में अपनी जगह
अपनाओ। जो भी चाहिए
चाहे कुछ नहीं चाहिए
और भी सालों की प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी, मेरी जान!’

शहीद की चाल

सांख्यिकी मुझे यह बताती है
कि इन सारे विद्यार्थियों में से
जो मेरे सामने बैठे हैं
बाद में कितने तलाक़ करेंगे
कितने ग़मनाक शादियाँ मनाकर
लंबे सालों से बिना किसी हिंसा
बिना किसी उल्लास के
मौत तक सब्र करते हुए झेलेंगे।

इन बैठे हुए छात्रों में से
सांख्यिकी मुझे यह बताती है
कितने विश्वविद्यालय
छोड़कर जल्दी किसी रोग
या गाड़ी-गाड़ी से कुचलकर मर जाएँगे
कितने क़ातिल हो सकते हैं
कितने अपराधी बनेंगे।

सांख्यिकी मुझे यह बताती है
कितने समलैंगिक हैं
कितने उभयलिंगी हैं
कितने हैं जो सेक्स में बहुत रुचि नहीं लेते हैं।

सांख्यिकी मुझे यह बताती है
कितने यहाँ से दूर जाकर
किसी अनजान देश में बसेंगे
(यहाँ का सौंदर्यशास्त्र
या यहाँ की राजनीति न पसंद
होने की वजह से
या यहाँ नौकरी न मिलने से)।
पाठ को रोककर
जब मैं अपने बचपन के
स्वप्नों के बारे में कहानी सुनाता हूँ
कि अफ़्रीका जाना चाहने के बावजूद
अब तक जाने का मौक़ा नहीं मिला
(आप लोग, सावधान!
आप अपने सारे सपनों को
पूरा नहीं कर पाएँगे)
तो कुछ तालिब-इल्मों की नज़र में
मैं घट जाता होऊँगा, और कुछ की
नज़रों में मेरी ख़ूबियों में
एक और ख़ूबी बढ़ जाती होगी।

सांख्यिकी मुझे यह बताती है
लेकिन जिन हज़ारों छात्रों को
मैंने शिक्षा दे दी
सांख्यिकी मुझे यह नहीं बताती
कि इस देश के जनतंत्र के बचाव के लिए
क्या उनमें से किसी की
शहीद की चाल है या नहीं।


मैट रीक कवि-अनुवादक हैं। वह हिंदी और उर्दू से अँग्रेज़ी में अनुवाद करते तथा अँग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, हिंदी में लिखते हैं। उनकी कविताएँ हिंदी की कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने श्रीलाल शुक्ल और लीलाधर जगूड़ी की पुस्तकों के अनुवाद किए हैं। उनसे mattreeck.com पर बात की जा सकती है।

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