कविताएँ ::
मिथिलेश श्रीवास्तव

hindi poet Mithilesh Shrivastava
मिथिलेश श्रीवास्तव

नौकरी

नौकरी से मैं निकाला नहीं गया था
बल्कि बड़ी जतन से मैंने नौकरी की
आक़ाओं को ख़ुश रखने के लिए गुलाम दासों की तरह सिर झुकाए
उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए न्याय-अन्याय के फ़र्क़ को मिटाते हुए
शायद मैंने नौकरी उस तरह से की जिस तरह मेरे पूर्वजों ने
अँग्रेज़ी हुकूमत के ज़माने में की होगी
उनको नौकरी करते देखा नहीं मैंने
लेकिन उनके नौकरी करने के
अंदाज़ से जगह-जगह आहों-कराहों की आवाज़ों और पुरानी
इमारतों पर चूक गए कोड़ों के निशानों
और लहूलुहान हुए दीवारों से महसूस होता है
अँग्रेज़ों ने भी ख़ूब हुकूमत की भारतीय महावतों वाले हाथियों से
भारतीय छातियों को कुचलवा दिया
मैंने नौकरी इसी तरह बड़े सलीक़े से की और महसूस करता रहा
जैसे मैं पागल हाथियों पर बैठा हुआ
आज़ाद हिंदुस्तान की छातियों को रौंद रहा हूँ
सिर्फ़ एक अदद नौकरी को बचाए रखने के लिए
छातियाँ रौंदते-रौंदते एक दिन मैं साठ साल का हो गया
मुझसे कहा गया कि अब आप सेवानिवृत्त हों
अब आपकी ज़रूरत नहीं
मैंने कहा कि मैं अब भी हाथियों की सवारी कर सकता हूँ
लेकिन शायद इन बातों को सुनने वाला कोई नहीं था
मैंने अपनी छाती पर हाथी के भारी-भरकम पैरों को महसूस किया
लोग पूछते हैं कि अब आप क्या कर रहे हैं
कुछ बताने के लिए है नहीं क्योंकि कविता लिखने को काम नहीं मानते लोग
लोगों से छुप कर मैं कविता लिखता हूँ
और नौकरी के दरमियान किए गए
अपने गुनाहों को याद करता हूँ
एक दिन हर नौकरी-पेशा यही करेगा

यह लोकतंत्र का सच्चा स्वरूप नहीं हो सकता

कुछ कहने के लिए बहुत कुछ बचा है
कहने के पहले ही आप मुझे डरा देते हैं
कभी आप कह देते हैं कि जो मैं कहने वाला हूँ
पहले ही कहा जा चुका है
कभी आप कह देते हैं कि मेरे कहने का कोई असर नहीं होने वाला है
कभी आप कह देते हैं कि जो कहना है अकेले में मेरे कान में कहिए
और लोगों से कह देते हैं कि मैंने कुछ कहा ही नहीं
लेकिन मैं कहना क्या चाहता हूँ
कैसे कहूँ कि यह दुनिया वैसी नहीं है
जैसी यह दुनिया होनी चाहिए
दूध जो मेरे हिस्से आना चाहिए कोई और पी जाता है
मेरे हिस्से आता है पानी और अपने आप को नसीबदार मानता हूँ
कइयों के हिस्से पानी भी नहीं आता
पानी के पीछे भागते लोगों को पागल समझने वाले लोगों
यह लोकतंत्र का सच्चा स्वरूप नहीं हो सकता

छिपकली

यह घर मेरा है इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है
लेकिन जिस बेख़ौफ़ से छिपकली दीवारों पर दौड़ती है
यह घर उसका भी है इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है
लेकिन छिपकली जब बड़ी हो जाती है और अपने जबड़े खोलती है
या अपनी पूँछ घुमाती है लगता है वह मुझे अपनी पूँछ में जकड़ कर
मुझे निगल जाएगी
मेरे डर को देखकर उसे ख़ुशी मिलती होगी
मैं निश्चय के साथ कुछ नहीं कह सकता
क्योंकि एक डरे हुए मनुष्य को देख कर एक छिपकली
ख़ुश कैसे हो सकती है
जबकि दोनों को एक ही साथ एक ही घर में रहना है

यह भी तो कहा जा सकता है कि मेरी वजह से वह डरी हो
और मेरे बारे में सोच रही हो कि उसे डरा देख कर मैं ख़ुश हो रहा हूँ
हम दोनों या तो डरे हुए हैं या तो ख़ुश हैं
मेरे मन में कई बार ख़याल आया कि उसे मार भगाऊँ
फिर सोचा मेरा घर उसका देश है वह कहाँ जाएगी
एक जाना-पहचाना देश छोड़ वह कौन से अनजाने मुल्क में जाएगी
एक जगह से उजड़ा हुआ किसी दूसरी जगह बस कहाँ पाता है
आजीवन उजड़े हुए एहसास के साथ रहता है
करोड़ों-करोड़ पक्षी पशु कीड़े-मकोड़े और इंसान उजाड़ दिए जाने के बाद
कैसे काटते होंगे अपना समय
दर्दनाक है सोचना
छिपकली को प्यार से देखने की कोशिश मुझे करनी चाहिए

मिथिलेश श्रीवास्तव (25 जनवरी 1958) हिंदी के सुपरिचित कवि-लेखक हैं। दिल्ली में रहते हैं। उनसे mithil_shri1@yahoo.co.in पर बात की जा सकती है।

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