कविताएँ ::
नाज़िश अंसारी
बुलडोज़र
सोचा—
कम लिखा जाए
पढ़ना ज़्यादा हो
कम कर दिया जाए कहना
सिर्फ़ सुनना शेष हो
टेलीविजन और अख़बार सब बंद कर देने के बाद भी
ख़बरें दराज़ से आ ही जाती हैं
गर्द की पर्त बनकर फ़र्श से चिपक जाती हैं
सबसे अच्छे फ़िनायल से पोंछा लगाकर भी
स्वच्छ भारत के सरकारी अभियान में सहयोग न कर पाने का मलाल है
अबकी बिखरी धूल का रंग धूसर नहीं—लाल है
मैक्रो बायोलॉजी की छात्रा कभी नहीं रही
फिर भी देख सकती हूँ इसमें चिपकी
किसी अरण्य-रुदन की सुगबुगाहट
किसी मौन विलाप की खिसखिसाहट
बाक़ी तो सबने देखा
थोड़ा मीडिया का भौं-भौं
और फिर बुलडोज़र का हौं हौं
न्यायिक व्यवस्था को कुचलता हुआ
तिरंगे की हरी पट्टी को लगभग फाड़ता हुआ
यहाँ चला वहाँ चला
जाने कहाँ-कहाँ चला
आप कनखियों से हँसेंगे, मगर कहेंगे, विक्टिम कार्ड खेलती हूँ
ना, मैं गर्द से पैर बचाकर चलती हूँ
इसलिए नहीं कि मलेच्छ के ठप्पे से बचना है मुझे
(यूँ भी बचने की संभावना वहाँ होती है जहाँ चुनने का विकल्प हो)
इसलिए कि एक विज्ञापन कहता है—
विकास करने वाले देश में हर वक़्त कुछ न कुछ बनता है
मेरे उत्तम प्रदेश में बनना मतलब ढहना है
मौरंग, कन्नी, मिस्त्री जैसे शब्द कर दिए गए हैं चलन से बाहर
अब सिर्फ़ चल रहा है, चलेगा बुलडोज़र
सो, कृपया अपने वाहन की गति धीमी रखें
विकासशील देश में कार्य प्रगति पर है।
दीन बचा रहे
जब अल्लाह ने बनाए बेटे
कहा जाओ अपने बाप की मदद करो
जब बनाई बेटियाँ
कहा तुम्हारे बाप की मदद मैं करूँगा
अल्लाह के इस वादे पे रश्क खाते
मोमिन मुसलमान बड़ी शान से करते तज़्किरा
कि दुधमुँही लड़कियाँ जब की जा रही थीं ज़मीन-दोज़
मेरे मज़हब ने उन्हें बख़्शी इज़्ज़त
जब वो बेटी हुई घर की रौनक़ बनी
बीवी हुई रहमत ओ बरकत बनी
जब बनी माँ क़दमों तले उसके जन्नत हुई
और जान निसार उस रसूल पे
जिसकी विरासत में कोई बेटा न था
आह मेरा मज़हब वाह मेरा दीन करते
जिन मर्दों की छातियाँ फ़ख़्र से चौड़ाई थीं
उनने भी पैदा की बेटियाँ
—कभी चार कभी छह कभी सात—
सिर्फ़ एक बेटे की आस में
जो जाए साथ उनके ईदगाह
पढ़ने नमाज़
कि दीन बचा रहे
और बची रहे विरासत भी।
फ़तवा जारी है
अच्छी लड़की की सब निशानियाँ और फ़रमाबरदारियाँ
पैवस्त थीं नस-नस में कुछ इस तरह
कि जब दो गवाह एक वकील की मौजूदगी में पूछा गया—
‘कुबूल है’—के सिवा कुछ और कहने की हिम्मत न हुई
घर का पता बदला तो पता चला
शौहर हमसफ़र नहीं ख़ुदा ठहरा
विसाल ए यार महज़ ख़ब्त की बात थी
हक़ीक़ी और मजाज़ी अब दो ख़ुदाओं में उसकी हयात थी
ज़िंदगी से भी लंबी गुनाह ओ अज़ाब की फ़ेहरिस्त के
हिफ़्ज़ कर लिए उसने नुक़्ते सारे
ज़ेर भी ज़बर भी
शकर से दोस्त के बजाय नमक भरे हाकिम पर
कर लिया सब्र भी
ये हौल खाती औरतें शौहर की ज़रूरत का सामान बनी रहीं
धमकियों पर घुड़कियों पर चुप रहीं
उनके हक़ अपने फ़र्ज़ के नाम पर
ये रात उतारती रहीं कपड़े
जनती रहीं बच्चे
बनाती रहीं परिवार
सहेजती रहीं सुहाग
आख़िरकार ख़ुदा के बाद तामीर की ज़िम्मेदारी उन्हीं की थी
किसी रोज़ तक़रीर में सुना कि
दोज़ख़ में औरतों की तादाद मर्दों से ज़्यादा होगी
वे तबसे हिसाब लगा रहीं—
हिजाब हमारे लिए
तलाक़ हमारे लिए
हलाला भी हम सहे
बेवक़ूफ़-बेशऊर का तमग़ा लिए
नस्लों की परवरिश भी हम ही करें
फिर किस नियम के तहत
दोज़ख़ में हमारी ज़्यादा हिस्सेदारी है
जवाब के बजाय
सवाल की गुस्ताख़ी के तहत
उन बदज़ातों पर फ़तवा जारी है।
नाज़िश अंसारी की यहाँ प्रस्तुत तीन नई कविताएँ उनके काव्य-स्वर और भाषा की बानगी भर हैं। इससे पूर्व उनकी कविताओं का एक चयन ‘हिन्दवी’ पर प्रकाशित हो चुका है। वहाँ उनकी कविताएँ अपने विषय और लहजे की वजह से समकालीन हिंदी कविता में अलग से पहचानी जा सकती हैं। हाल ही में लखनऊ में हुए ‘नीलांबर’ के आयोजन ‘साहित्यम’ में उन्होंने कथ्य के लिहाज़ से सबसे बेहतरीन कविताएँ पढ़ीं। इनमें यहाँ प्रस्तुत आख़िरी कविता भी शामिल है। उनसे nazish.ansari2011@gmail.com पर बात की जा सकती है।
शानदार, धारदार कविताएँl खूब बधाईl
बेहतरीन प्रस्तुति! शुभकामनाएँ!