कविताएँ ::
प्रतीक ओझा
तर्कशास्त्र का सिद्धांत
मैं नीम के पेड़ के नीचे खड़ा था
अचानक मेरा पेट हरा होने लगा
अपनी हरी-हरी पत्तियों के साथ
कुछ देर बाद बकरियों की एक प्रजाति आई
उसने मेरे पेट को नोच-नोचकर चबाया
और मेरे पेट को अपने पेट का हिस्सा बनाया
अब मेरा पेट उनके पेट के अंदर
अपनी संपूर्ण हरभराहट लिए डालियाँ फैलाए पसरा है
पसरी होती हैं जैसे
प्रेम की संपूर्ण विकृतियाँ
ज़िंदगी की सनकी झोंक में पटकने से
कुछ दिनों पश्चात आदमियों की किसी एक प्रजाति ने
उनके पेट को अपने पेट के अंदर पाल लिया
अब मेरा पेट बकरी के पेट के अंदर
बकरी का पेट आदमी के पेट के अंदर
तर्कशास्त्र के वृत्ताकार सिद्धांत के साथ समाहित है
कभी-कभी सोचता हूँ कि
यदि तर्कशास्त्र का यह सिद्धांत न होता
तो शायद दुनिया एक पेट होती
एक पेट उसके अंदर पेट फिर उसके अंदर पेट
अनगिनत पेटों को पालने वाले अनगिनत पेटों की अनगिनत परतें
और उनको भी पालने वाला कोई पेट
ऐसी स्थिति में जब तुम मुझसे कहोगे
कि यहाँ उपस्थित हर एक आदमी मेरा दुश्मन है
चलो लड़ो
मारो
मरो
काटो और कटो
तब मैं पूरी दुनिया के सामने चिल्लाकर कह सकता हूँ :
नहीं-नहीं ग़लत है यह
तुम इस तरह मुझे मजबूर नहीं कर सकते
मेरा उस आदमी से पेट का नाता है
मैं अपने पेट के नाते के साथ लड़ना नहीं
पेट भर भेटाना चाहता हूँ।
क्या करूँ मैं
क्या करूँ मैं
संवेदना लेकर
देकर
खासकर तब
जब उसका पेट हो ख़ाली
और मेरा भरा
जब ज़िंदगी और रोटी के बीच
चल रहा हो भयंकर युद्ध
और हर किसी को चुनना हो
दोनों में से कोई एक पक्ष
तो फिर क्या करूँ मैं
कविताएँ पढ़कर
लिखकर
अगर इतने पर भी
मैंने कविताएँ लिखीं
तो फिर समझ लेना
या फिर मेरा रवैया बता देगा तुम्हें
कि मुझे कविताएँ लिखने का
शौक़ चर्राया है।
दो रास्तों के बीच
दो रास्तों के बीच में
अनुपस्थित दिशा-निर्देशक की भाँति
खड़ा है—
काल
घूरता है आसमान
ज़मीन को मारता है लात
कभी-कभी खीझता है स्वयं पर
नोचता है बाल
उसे नहीं पता
पिछली सदी से कहाँ ग़ायब है—
कम्बोज?
आर्यावर्त?
और गांधार?
प्रतीक ओझा की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक (तृतीय वर्ष) के छात्र हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ ‘सदानीरा’ को उनके शिक्षक और सुपरिचित रंग-आलोचक अमितेश कुमार के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं, इस परिचय के साथ—”इलाहाबाद में जन्मे प्रतीक अपनी कविताओं से सदैव असंतुष्ट रहते हैं, जो उनके अनुसार हमेशा असमाप्त होती हैं। प्रतीक की कविता एक प्रश्नाकुल युवा की कविता है जिसको अपने समय के सवाल बेचैन करते हैं और वह उन्हें कविता की भाषा में लेकर आता है।” प्रतीक से pratikojha181@gmail.com पर बात की जा सकती है।
‘सदानीरा’ ने आज से कुछ वर्ष पूर्व पटना-केंद्रित हिंदी की बिल्कुल नई कविता को अंचित, उपांशु और उत्कर्ष की कविताओं के प्रकाशन के ज़रिए रेखांकित किया था। हमें ख़ुशी है कि इन दिनों ऐसा ही कुछ दृश्य इलाहाबाद (विश्वविद्यालय)-केंद्रित कविता के संदर्भ में भी प्रकट है। इस सिलसिले में यहाँ प्रस्तुत प्रतीक ओझा की कविताओं के साथ-साथ इससे पूर्व ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित शुभांकर, प्रदीप्त प्रीत और प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताएँ ध्यान देने योग्य हैं।
Prateek ji Apki kavita hme bahot achhi lgi…😊
Apse milne ki akanksha hai….dhanyavad😊
🙏🙏
पेट का रिश्ता…सारा विश्व ही एक डोर में बांध दिया।अनूठा सोचा है।