कविताएँ ::
पूर्णिमा त्रिपाठी

पूर्णिमा त्रिपाठी

एक नया आदमी

चौक पर रोज़
कुछ पुराने आदमी
बहस करते हैं
कभी धर्म पर
कभी अधर्म पर

उन्होंने ख़ुद को ग़लत नहीं समझा
किसी और को सही नहीं समझा
सुबह एक अख़बार में कहा गया है कि
उसकी जाति के लोगों के साथ दुर्व्यवहार हुआ है

एक नया आदमी गाँव आया
उसने धर्मों में कोई अंतर नहीं देखा
सभी जातियों की दुर्दशा को स्वीकार किया
ख़ुद को सबसे ऊपर नहीं बताया

उसने पूछा तथ्य का क्या
पूछने की ज़रूरत थी क्या?

अब नए आदमी पर बहस होती है।

परदे के पीछे

अख़बार के कोने में छोटी-सी ख़बर की तरह
नाकाम कोशिशें करती हो दीख पड़ने की
मन का करने को यह खुदरा-सा जीना

लोग घंटों लड़ते हैं तुम्हारे लिए मंचों पर
भले तुम्हारी आवाज़ दब जाए उनके शोर में

तुम बनने-सँवरने पर ध्यान दो
उसमें भी कितना, इस पर ध्यान दो
चाल न बिगड़े, चलने पर ध्यान दो
जो तुमने जेवर समझकर पहना है
तुम्हारे गले में पड़ा पट्टा है
तुम्हारा कुल जमा हासिल है इज़्ज़त

दूसरो के दिए हुए दुःख को
नाम देती रहो बदक़िस्मती का
अब भी झाँक रही हो
किनारे खड़ी परदे के पीछे से
कुछ देर तसल्ली से बैठ क्यूँ नहीं जाती?

जंजाल

शहर, समंदर, झील, मोहल्ला
शरबत, ठेका, मन में हल्ला
बँटवारे का मंतर फूँका
फिर बस्ता ले चल दिया निठल्ला

नौकर की रखवाली की
गंज में एक फुलवारी थी
टकटक घूरे, रोज़ निहारे
फूल बुलाया, झील किनारे

सफ़ेद कमीज़ और आँखें चमकीं
झुमके की जब आवाज़ थी खनकी
पर माली को था चुभता छल्ला
दागी लाठी और हाथ में बल्ला

फिरकी खाई, जंगल घूमा
देखीं लहरें, आडंबर सूना
सपने, रातें, नींद गुज़ारी
सनक थी उसकी वो फुलवारी

बादल गरजे, खिड़की खड़की
बिस्तर, चादर, सिलवट फड़की
छोड़ अटारी, उतरा तल्ला
लौटा पिटने, खटकाया पल्ला

रंग बसंती, सुनहरी बाली
गंज में थी वही हरियाली
दौड़े, ढूँढ़े, महक पुकारे
भोर भयंकर, धूप सकारे

न मिली दुबारा फूल की झलकी
ऐसे घूमी भाग की चरखी
उठ भड़का शोर वही मन में हल्ला
फिर बस्ता ले चल दिया निठल्ला।

विद्रोह

मैंने कभी ऊँची आवाज़ में बात नहीं की
बस एक बार नज़र मिलाकर देखा था

मैंने तस्वीरें नहीं जलाईं, पुतले नहीं फूँके
एक बार आधी आस्तीन की क़मीज़ पहनी थी

मैंने कभी घर से बाहर क़दम नहीं रखा
पर आँगन में मणिकर्णिका का इतिहास पढ़ा था

मैं वह कभी नहीं थी जिसने नारे लगाए
लेकिन मैंने उन्हें लिखा था

मैंने कभी ख़ुद को क़ैद नहीं समझा
यही मेरा विद्रोह था।


पूर्णिमा त्रिपाठी की कविताओं के कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह साल 2017 से एक ग़ैर सरकारी संगठन से संबद्ध हैं। यह संगठन युवाओं में राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूकता पैदा करने की दिशा में काम करता है। पूर्णिमा से purnima505t@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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