कविताएँ ::
रमाशंकर सिंह

रमाशंकर सिंह │ क्लिक : सुघोष मिश्र

कातिक के उतार में

नाम?
विष्णु

पता?
वही तो गायब है

खाते क्या हैं?
जो मिल जाए

मिला आज भात, केला और दही
कल मिली बिरयानी
परसों तो रह गए भूखे पेट
उससे भी एक दिन पहले था उपवास
जब निज़ामुद्दीन औलिया के शहर के नरमदिल नागरिक
छुट्टी पर चले जाते हैं
उस दिन दिल्ली सबसे बदसूरत लगती है

अपनी एकमात्र टेरीकॉट की शर्ट को
यमुना में धोते हुए विष्णु
पानी माँगते हैं मुझसे

बोतल का पानी गले में उतरता है
आवाज़ करता हुआ :
घुड़घुड़-घुड़घुड़

यमुना आई होंगी ऐसे ही पहाड़ों की तरफ़ से—
दिल्ली को दरियागंज बनाते हुए

जब पानी आएगा यमुना के किनारे
आषाढ़ के उतार में
कहाँ जाएँगे विष्णु?

वे एक पुल की तरफ़ इशारा करके कहते हैं—
उधर
उधर पानी नहीं जाता
सब सही सलामत रहता है वहाँ

उसके बाद आएगा
सावन-भादों-क्वार
कातिक का उतार आएगा
देवोत्थानी एकादशी के आस-पास
मैं इधर चला आऊँगा
यमुना के बिल्कुल किनारे
यही मेरा क्षीरसागर है।

सूरदास से भेंट

गंध के भभके से खुलती है नींद
देश की राजधानी में प्रवेश करने पर
सहयात्री कहता है—
आगे यमुना हैं
माँगना है जो भी माँग लो
मोक्ष, ख़ुशी, सुख, शांति

जग की महतारी
यम की बड़ी बेटी यमुना
सूरदास के किशन-कन्हैया की नदी
माँगना है जो भी
माँग लो
अब तो नदियाँ
प्रधानमंत्री बनने का आशीर्वाद देने लगी हैं

मैं प्रयागराज ट्रेन से उतरता हूँ
मिल जाते हैं सूरदास
पूछते हैं—
उधर सब ठीक-ठाक?
यमुना पहुँच रही हैं इलाहाबाद तक साबुत?

मानो भुला दी गई बड़ी बहन का हाल पूछ रहा हो
अरसे बाद कोई

मेरा बड़ा-सा बिस्तरबंद और सूटकेस
उठाकर सधी चाल से चल देते हैं सूरदास
वैसे ही जैसे उनकी कविता में छंद आते हैं
कृष्ण-कन्हैया आते हैं

स्टेशन से बाहर आकर
अपनी मज़दूरी लेकर
सूरदास चले गए प्लेटफ़ॉर्म पर
इस बार दौड़ते हुए
किसी दूसरे यात्री का सामान उठाने
आजकल तो कुलियों के रोज़गार में बड़ी मारामारी है

ऐसे में कोई क्या लिखे कविता
कैसे साधे छंद
दुरुस्त करे मात्रा।

राजधानी में किसान

सबसे पहली बार
उनके पैर से पवित्र हुई धरती
उनके होने से गाय, बैल, भैंस, भेड़
हाथी, घोड़े, ऊँट, मेमने सब सही-सलामत पैदा हुए

उनके होने से
धरती ने पैरों में रचा महावर
उनके होने से फूल में रंग आए
मिट्टी में धूसरपन
सिवान में उतरा गेहुँआपन उनके होने से

उन्होंने खोजे नक्षत्र
मौसम, ऋतुएँ सब उनका ही नाम
धारण करते हैं

उनके होने से ही जंगली घासें
धान बनीं
गन्ने में उतरी मिठास

उन्होंने तमीज़ बख़्शी
हमें ज़िंदा रहने की
मेहनत की
उनके होने से ही सभ्यताएँ बचीं सही-सलामत

अब उनकी ही बारी आ गई है
कि उन्हें मार दिया जाए
राजधानी के चौक में।


रमाशंकर सिंह हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। आजकल यमुना के किनारे विचर रहे हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : जब वे कहें कि आप सुंदर हैंअफ़्रीका के हृदय में सवेराबहुत बातें पता चलते-चलते चलती हैं

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *