कविताएँ ::
सौम्य मालवीय

सौम्य मालवीय

ओ पिता
महावीर नरवाल के लिए

पिता
पिंजरा टूटा तो नहीं
पर नंगा ज़रूर हो गया

न्याय हुआ नहीं
पर
बेनक़ाब हो गया अन्याय

मुक्ति नहीं मिली
पर खोखली हो गई
क़ैद

पितृसत्ता ख़त्म नहीं हुई
पर बेटियों के साथ
पिताओं के हाथ लगे बिना
ख़त्म हो भी नहीं सकती
यह बात साबित हो गई

देखो,
नहीं-नहीं करके भी
बहुत कुछ हुआ
हमारे साझे प्रतीक्षा-काल में

क़फ़स ख़्वाबों से रौशन हुई
सय्याद को सय्याद की तरह
पहचाना गया
और इस बात की तस्दीक़ हुई
कि सच्चा इंसाफ़
सिर्फ़ इन अदालतों के
बस की बात नहीं!

ओ पिता
जीवन की तरह
तुम्हारी मृत्यु भी एक बयान थी
वैसे ही जैसे एक बेटी का
बाप को मुखाग्नि देना भी

मैंने तुम्हें आग को सौंपा नहीं
तुम्हें आग से माँग लिया है
मैंने तुम्हारा
अंतिम संस्कार नहीं किया
तुम्हें जन्म दिया है

मैंने तुम्हें खोया नहीं
इस ज़माने के लिए
पा लिया है

ज़रा इक निगाह देखो
सलाम में उठी
मेरी तनी हुई मुट्ठी की तपन

चिंगारियाँ उड़ रही हैं
दिल धधक रहे हैं

उर्दू के स्कूल गए
बेटी चिया की उर्दू मश्क़ के लिए लिखी कविता

अच्छे भले ‘अलिफ़’ होते थे
‘बे’, ‘पे’, ‘ते’ पे झूल गए
‘से’ ने ऐसा रोका रस्ता
उर्दू के स्कूल गए

‘जीम’ जीम के पढ़ने लग गए
‘चे’ से चच्च-चच्च-चा करते
‘हे’ से हे हे हे ही बेहतर
मरते तो क्या ना करते
‘ख़े’ की ख़ारिश लिए गले में
मोहन और मक़बूल गए

‘दाल’ ‘डाल’ के बड़े पेट में
‘ज़ाल’ की खूँटी पर लटके

‘रे’, ‘ड़े’, ‘ज़े’ की कड़ी ख़ुशामद
‘झे’ से छूट गए छक्के
‘सीन’ ने ऐसा ‘सीन’ बनाया
इटली इस्तांबूल गए

‘शीन’ बड़ा शाना निकला
सर पर काशाना निकला
‘स्वाद’-‘ज़्वाद’ की खींचतान में
जी का जिमख़ाना निकला
‘तोए’-‘ज़ोए’ ने लग्गी मारी
सारे जुर्म क़ुबूल गए

‘ऐन’-‘ग़ैन’ तक आते-आते
जान ज़रा जाँ में आई
‘फ़े’ ने थोड़ी लस्सी फेंटी
‘क़ाफ़’ ने कॉफ़ी पिलवाई
‘काफ़’-‘गाफ़’ की जोड़ी से मिल
कुप्पा-कुप्पा फूल गए

‘लाम’ पे जमकर सुस्ताए फिर
दुबले ‘मीम’ से बतियाए
‘नून’-‘वाओ’ की फिरकी ली
और ‘छोटी-हे’ से शरमाये
‘बड़की-छुटकी ये’ भी बोलीं
कैसे रस्ता भूल गए

हरी-भरी हो गई तबीयत
रहते थे सूखे- सूखे
मौसम ने हौले से फेरी
चेहरे पर ‘दो-चश्मी हे’
नस्तलीक़ के मोती बिखरे
बोले बहार को ओ रुक जा

मन की क्यारी पर दीवाना
बनकर इतराया ‘हम्ज़ा’
धीमे-धीमे उर्दू आई
ताक धिना धिन धिन धिन ना
आँ आँ आँ जब हुआ ज़ियादा
लगा दिया ‘नून-गुन्ना’

उड़ते फिरते हैं गलियों में
अब इसको-उसको समझाते
हल्के में मत लेना उर्दू,
आती है आते-आते

भई आती है आते-आते।

वो मजीद भाई का बयान नहीं था

मजीद भाई
ऑटो नहीं बैलगाड़ी चलाते हैं

कालूपुर से बोडकदेव पहुँचने में
एक सदी लगती है उन्हें
मानो कोई अंतर्ग्रहीय यात्रा हो…

हो भी शायद

पीछे बैठी सवारी
हवा से कटी-फटी उनकी बातें
जिन्हें वे हल्का तिरछे होकर कहते हैं
या तो हूँ-हूँ कर सुनती है
या झिड़क भी देती है कभी कि
आगे देखकर चलाओ
पर उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता
बोलते ही जाते हैं घुरघुराते ऑटो के साथ लय बिठाते

एक बार यूँ ही कहते-कहते याकि बकते-बकते कुछ बोले मुझसे
शब्दों की कतरनें जोड़ीं तो सुना मैंने

देश का पहला वर्ल्ड हेरिटेज शहर है अहमदाबाद
आइए घुमा दें सारे हेरिटेज इलाक़े,
उधर ही हैं जिधर रहते हैं…हम…लोग
एकबारगी मुझे लगा कह रहे हों, जिधर रहते हैं…हम…’हेरिटेज’…लोग
पर वे ऐसा नहीं कह रहे थे

पुराने, कालिख से नहाए, गांधी ब्रिज पर सरकते ऑटो में
बीते दौर के गीत गुनगुनाते, कभी दाँतों कभी होठों से बीड़ी दबाते
और बीच में बीच ऊपर लगे आशा पारेख के धुँधलाए चित्र को एडजस्ट करते हुए
उन्हें यह कहने की ज़रूरत नहीं थी

यक़ीनन ‘हेरिटेज’ वाला वो मेरा सुना गया हिस्सा
मजीद भाई का बयान नहीं था।

ख़तरा है

ख़तरा है

जिनको ख़तरा है, उनसे ख़तरा है

ख़तरा है झूठ को बढ़ती हुई नाक से
ख़तरा है अहं को हृदय की माप से
पत्थर को मत्थे से
भीड़ को निहत्थे से ख़तरा है
ख़तरा है

जिनको ख़तरा है, उनसे ख़तरा है

बरहना लाशों से ख़तरा है क़फ़नों को
जलती चिताओं से ख़तरा है ज़हनों को
पेड़ों से जंगल को,
मौसम से मंगल को ख़तरा है
जिनको ख़तरा है, उनसे ख़तरा है
ख़तरा है अट्टहास को आस से
ख़तरा है सभ्यता को इतिहास से
धर्म को विश्वास से
रुई को कपास से ख़तरा है

जिनको ख़तरा है, उनसे ख़तरा है

भाषा से व्याकरण को ख़तरा है
चरित्र को आचरण से ख़तरा है
आमरण को मरण से
हरण को भरण से
लहर को संतरण से ख़तरा है

जिनको ख़तरा है, उनसे ख़तरा है

ख़तरा है आत्म-निर्भरता को आत्म से
ख़तरा है आस्था को अध्यात्म से
राख को अबीर से
नाथ को कबीर से ख़तरा है

जिनको ख़तरा, उनसे ख़तरा है

अधिनायक को जन से ख़तरा है
क़ाफ़िले को प्रदर्शन से ख़तरा है
बुलेट-प्रूफ़ को नारों से
जुमलों को चीख़-पुकारों से
कामना को तन से, बात को मन से ख़तरा है

जिनको ख़तरा है, उनसे ख़तरा है

कर्मयोगियों को कर्म से ख़तरा है
बंधुत्व को चर्म से ख़तरा है
रीति को रिवाज से
मुखौटे को मिज़ाज से
समता को समाज से
आँधियों को कणों से
शिव को गणों से
नख़रे को कर्तव्य से
वक्तव्य को मंतव्य से
कल को आज से
गले को आवाज़ से
सड़क को नमाज़ से ख़तरा है

जिनको ख़तरा है, उनसे ख़तरा है।

कितना बहुत होता है

कितना ख़ून बहुत होता है कि
हत्याएँ, हत्याएँ मानी जाएँ
कितनी औ किस-किस तरह की गवाहियाँ बहुत होती हैं कि
बलात्कार, बलात्कार माने जाएँ
क़िस्मत की कितनी मेहरबानियाँ काफ़ी हैं कि
जाति, जाति, औ नस्ल-परस्ती, नस्ल-परस्ती मानी जाए
यूँ तो पानी सर के ऊपर चला जाता है
बच्चों की मच-मच भर से
ट्रैफ़िक से ख़ून उबलने लगता है
कुछ ही मिनटों में
नई कार,
साल बीतते-बीतते ही पुरानी पड़ने लगती है
घर हर दीवाली के पास
पोचाड़ा खोजने लगता है
भ्रष्टाचार
एक नैतिक प्रश्न बन जाता है झट से
ई-मेल का जवाब तुरत न मिलने पर
अवसाद की दवा फाँकनी पड़ती है
काम-वाली किसी दिन ना आए तो
आत्म-दया और अपने साथ घोर विश्वासघात का भाव पहर-पहर गहराता जाता है
भीख के लिए बढ़े हाथों को देखकर तो
श्रम की महिमा याद आ जाती है सेकंड भर में
वक़्त लगता है पर धीमे-धीमे गले के नीचे उतर जाती हैं ये बातें भी,
कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है
कि प्राकृतिक उद्विकास जैसी कोई चीज़ है
या फिर पर्यावरण शायद हमारी वजह से संकट में है,
पर कितनी मिलों पर ताले पड़ते हैं कि
मेहनतकश, मेहनतकश माने जाएँ
रोटियों की कितनी तहों और कितने काम-सिक्त बिस्तरों के बाद
पत्नी पहले औरत औ फिर मनुष्य मानी जाए
प्रगति के कितने अध्यायों के बाद अपनी ज़मीन के लिए
ज़मीन से बाहर खड़ा किसान, किसान,
और आदिवासी, आदिवासी माना जाए
कितने क़ानून लगते हैं कि अपनी तय भूमिकाओं से निकलकर
कभी उन्हीं भूमिकाओं के लिए, कभी उनसे छूटने को बेचैन

जीवन की गरिमा के लिए जूझ रहे लोग
षड्यंत्रकारी न माने जाएँ
कितने?

जबकि डिलीवरी बॉय के क्षण भर देर कर देने से धैर्य की परीक्षा हो जाती है
सही मौका चूकने से शेयरों में नुक़सान हो जाता है
औ दिवालिया होने के कगार पे खड़ा प्रतिद्वंद्वी या रिश्तेदार आगे निकल जाता है

कितने पाँवों के पलायन
कितनी गुमशुदगियों के बाद मन संवेदित होता है

जबकि किसी टहलती हुई मौत की ख़बर पर ॐ शांति का बेजान-सा ट्वीट
रूखी उँगलियों से निकलता है और फुर्र हो जाता है

कितना बहुत होता है? कितना?

पल-पल की क़ीमत होती है, समझा

पर क्या हमारे इतिहास में वेटिंग चार्जेज़ नहीं होते?

वली के मज़ार पर एक सुबह

जहाँ कभी वली का मज़ार था, आज वहाँ सड़क का डिवाइडर है…कोई आज भी फूल छोड़ जाता है वहाँ… अहमदाबाद पुलिस मुख्यालय के सामने…शाहीबाग़ अंडरब्रिज से ठीक पहले…ये कविता वहीं से लौटकर…

वली
कोई फूल छोड़ जाता है वहाँ
जहाँ कभी तुम्हारा मज़ार था
डिवाइडर की रूखी, दानेदार, आवारा धूल में
तेज़ रफ़्तार गाड़ियों की हवा में काँपते फूल
कोई रम्ज़ नहीं है इनमें
ये तुम्हारे लिए ही हैं
जैसे कोई चीज़ किसी के लिए होती है
क्या कहूँ मैं इस चुपरंग मुहब्बत, ख़ामोश इबादत, अटूट अक़ीदे को
यही तो नाम-सिमरन है, कृष्ण-भजन,
वही वैष्णव-जन जिसे पराई-पीर से वाबस्ता होना था!
कौन है वो रहमान, कौन हनुमान!
जो निभा रहा है भक्ति और आशिक़ी की रिवायत को!
कोई भी हो
ये फूल तुम्हें ही निवेदित हैं
शायद स्वयं निवेदन ही हो
क्षणिक चक्रवातों के मध्य अमरजीवा लौ-सा जलता हुआ
शीरीं ज़बान के शहद से भीगी पंखुड़ियाँ
रात के टूटे तारे-कुछ इलायची दाने
माटी में सूखा थोड़ा-सा तेल
उम्मीद के इतने से असबाब!
ज़िंदा रहती हैं बचाई हुई चीज़ें यूँ ही
एक विनयशील साहस के साथ
उन्मादी ग़ुबारों के गहन में, आला भर उजास
सड़क के पथरीले स्याह में, एक गुलाबी आस
वली, कौन है वो?
सच ही कहते हो तुम, छोड़ दें इस बात को
छोड़ दें तुम्हें भी वली!
याद रखें, यदि हो सके तो याद रखें इस नुमाइंदगी को
पुरक़हर ट्रैफ़िक के साये में
इस क़स्द-ए-ज़ियारत को याद रखें
ताकि कल,
दूर-कल नहीं, यहीं-नज़दीक कल!
तारीख़ के आईने में
कम-अज़-कम
अपना चेहरा तो पहचान सकें!

अब पानी बरसेगा तो
कोविड-19 की दूसरी लहर के उपरांत…

अब पानी बरसेगा तो
सड़कों पर मटियाली नालियों में दुःख भी बहेंगे

घर ही नहीं
भीगेंगे भीतर के सन्नाटे भी
बूँदें ज़मीन पर ही नहीं इस्तेमाल की हुई चीज़ों पर भी पड़ेंगी

धीमे-धीमे धरती की महक ढँक लेगी फ़ॉर्मल्डिहाइड की तीखी गंध
घनघोर ऐसा होगा की मुर्दागाड़ियाँ भी भीगती होंगी चुपचाप अस्पतालों के अहातों में

टप-टप टपकेंगी पीड़ाएँ छतों की दरारों से
जल-ध्वनियों के बीच ध्वनित होंगी कही-अनकही बातें
किसी कसक का सिरा मिलेगा-छूटेगा
दूर से देखी हुई लपटें रह-रहकर कौंधेंगी पानी के परदे पर

सहेज दी गई दवाइयों से निकलेंगे नयनाभिराम बरसाती कीड़े
सूने बिस्तरों पर उग आएगी असभ्य घास-अनाम फूल
टहकेगी-ख़ामोशी-सीलेगी

जब पानी बरसेगा तुम तैयार रहना दुःख के स्वीकार के लिए
अवसाद को निभाना पूरी शिद्दत के साथ-पीड़ा से परहेज़ मत करना
कच्चे आँगन में हरियाने देना विक्षोभ को
ग़ुस्से के चमकीले-सतरंगी साँपों को निकलने देना—कुचलना मत

इस बारिश अपने दुःखों के लायक़ बनना
सहेज लेना उन्हें अब यह उम्र भर की लड़ाई है।

अब, जब उस घर में जाना
कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान अपने ताऊजी के नहीं रहने पर

उस घर में यूँ मत घुसना
जैसे धड़ल्ले से घुस जाते थे पहले
बेल मत बजाना
जैसे बजाते रहते थे पहले
जब तक कोई निकल ना आये

खोलोSSS खोलोSSS के
शोर से मथ मत देना
अपने इंतज़ार को
कोई आवाज़ मत देना

अगर दरवाज़ा हल्का-सा उढ़का हो
साँकल न लगी हो, तभी अंदर जाना
वरना लौट आना

रोज़ पहुँचना उस चौखट पर
माथे से छूना किवाड़ों को
वापस हो लेना अगर कोई आहट न मिले
पर कोई डरी हुई दस्तक मत देना

अगर कभी दाख़िल होना उस घर में
तो मृत्यु की तरह एकदम-अचानक नहीं
जीवन की चाप लिए जाना
भीतर पाँव रखते हुए
पुकारना मत उसे
उन अनुगूँजों को सुनना
जो उन चुप्पियों में व्याप गई हैं

‘अजय भैय्याSSS’
‘आय रहे हैंSSS’

कोशिश करना तुम्हारे जाने से
कुछ भी खंडित न हो—टूटे नहीं
आहिस्ते चलना समृतियों की घास पर
कोई फूल मत तोड़ना
चाहे वह फिर दुःख का ही क्यूँ न हो।

एक स्थिति, जीवन-बीच

सूर्य को आत्मसात करते
नन्हें पौधे के हरित लवक
कुत्ते की गंध-अन्वेषी नाक
पंछियों की पांक्तेय उड़ानें
गिरगिटान की चक्करदार दृष्टि
केंचुए की भू-धर्मिता
चूहे की व्यस्त स्वादेंद्रिय
मकड़ी की तरंग-साधना
चीटियों के अनुशासित खोज-अभियान
छिपकली की आत्मविकासी पूँछ
फ़्लैट की बालकनी पर टँगा हुआ मैं
मेरा खोया हुआ चश्मा
भूली हुई किताब।

शहर के फूल

सेमलों से ढँकी है स्कूल बस की छत
अमलतास की अशर्फ़ियाँ दौड़ती हैं तपती सड़क पर
गुलमोहर की लाल ममाखियों से
भरा है गर्द भरा नीला-सा आसमान
बोगेनवेलिया से दोहरी है थाने की दीवार
जमे हुए मटमैले पानी में उतरे हैं गुलाचीन के गुल
गुमटियों की कठचौकियों पर जमी है नीम की गिरस्ती
पस्त डिवाइडर पर झूम रहा है कनेर
बंद पड़े कारखाने में कारोबार आबाद है चमेली का
यूँ तो शहर कोई बाग़ नहीं, अता होते हैं मौसम इस पर भी
पर ये शहर के फूल हैं, इन्हें मौसम नहीं
शहर की बेज़ारी खिलाती है।

चार्जशीट

दूर किसी तारीख़ पर
खुदाई में मिली एक पांडुलिपि

कार्बन डेटिंग से
काल-निर्धारण हुआ, सन् 2020

विशेषज्ञों ने कहा
अति जर्जर हो चुके पृष्ठों पर
बूँदें हैं ज़हर की
लिपि जैसे
प्रतिशोध की भंगिमाएँ हों
अंतर्वस्तु एक आक्रामक चिढ़ में
विन्यस्त नज़र आती है
विस्तृत फ़ंतासी संरचना में
बिंधी हैं कई ख़ूँरेज़ संख्याएँ
तथ्यों का हवाला
तथ्यों से बढ़कर है
और इतनी बृहद
होने के बाद भी
वह उतावलापन है
जो किसी गाली में होता है!

महासागर की तलहटी में
संदूक़ों में मिलने वाले
यूरेनियम के कचरे की तरह
यह भी मिली है एक संदूक़ में
एक सतत विकिरण
जारी है इसमें भी
यह दस्तावेज़
मालूम पड़ता है कि
उस सभ्यता का है
जो अपने सभ्यता होने से
आजिज़ आ गई थी
हुक़ूमत जहाँ शिकार पे थी
नालियाँ एक दूसरे को
नब्बे के कोण पे काटने के बजाए
एक बिंदु पे मिलती थीं
एक दुष्चक्र-सा बनाती हुईं
और हम्माम में
सब नंगे थे!

जीवित होने के कारण
इसे संग्रहालय में नहीं
प्रयोगशाला-निरीक्षण में रखा जाएगा
फिर इसमें तो उत्परिवर्तन के
गुण भी लक्ष्य हो रहे हैं!
और बातों की पुष्टि तो होती रहेगी
पर इतना तो स्पष्ट है कि
यह उस काल का
एक विलक्षण साहित्य है
एक अनोखी विधा का नमूना जिसमें,
आरोप लगाने के बाद
उन्हें महाआख्यानों में
पिरोया जाता है,
कम से कम
इतना तो बिना संदेह के
कहा जा सकता है कि
उस दौर में
न्याय व्यवस्था
न्यायशील से अधिक
कल्पनाशील थी
जाँच तंत्र में
सनसनीख़ेज़ गल्प के
सामूहिक रचनाकर्म का अनुशासन था
और लेखकों से कहीं बढ़कर
सत्ता का मन लगता था
रूपकों के
व्यापार में।

सुनो बादशाह!
कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान…

बादशाह
रियाआ फिर झूम उट्ठी है
तुम्हारे नए फ़रमान पर
तुम्हारी नई अदा
तुम्हारी नई पोशाक
तुम्हारे नंगेपन का नया रूप
फिर चौंधिया गया है आँखें
फ़रयादी इकट्ठ्ठा हैं
तुम्हारी एक झलक पाने को
भीड़ इतनी है कि तुम ख़ुद ही ख़ुद को पाओ जिधर देखो
सभी ने तुम्हारे चेहरे वाले मास्क पहने हैं
सब के भीतर तुम्हारे नाम का टाइम बम धड़क रहा है
इतना प्यार कहीं तुम्हें राजा से ऋषि न बना दे राजन!
तुम्हारी गिलगिलाई हुई मुस्कान तो यही कह रही है
ये और बात है हुज़ूर-ए-आली कि
न ये राज-पाट का समय है
न फ़क़ीरी का
जो खुद को रियाआ मान बैठा है
एक अभागा जम्हूर है
जिसे तुम अपनी सल्तनत समझ रहे हो
एकदम तोड़ रहा देश है
और जो तुम्हें अश्वमेध यज्ञ लग रहा है
आलम-ए-वबा की वीरानी है
ये चारों तरफ तुम्हारे घोड़े नहीं हैं चक्रवर्ती
एक वाइरस अपना अहद मुकम्मल कर रहा है
ज़िल्ले-सुब्हानी, दिलावरुलमुल्क़, शाहआलम
अगर सोचो कि यह तुम्हारी हुक़ूमत ही है
तो भी क्या ख़बर रखेगी आक़िबत तुम्हारी
कि वह सम्राट जो अपनी तहरीर से प्रजा के सीने में
नफ़रत का ख़मीर उठा सकता था
वही घुट रही साँसों को जान देने के लिए
ऑक्सीजन के दो बुलबुले तक न उठा सका?
ओ माइटी किंग टेक अ डीप ब्रेथ
और उसे धीमे-धीमे छोड़ो
ये जो नक़्श उभरते देख रहे हो
ज़िंदगी के नहीं ज़हर के हैं
पिछले कई हुक़्मरानों की तरह तुम भी
इसी मुग़ालते में हो कि तुम्हारी छोड़ी हुई हवा ही जीवन है
और लोग तभी तक ज़िंदा हैं
जब तक वे तुमसे गुहार लगा रहे हैं!

रफ़ी साहब

बहुत शोर है रफ़ी साहब
शहर में इमारतों का
बड़े सन्नाटे हैं दिलों में रफ़ी साहब
क़स्बे की रूह ऊब के कीचड़ में धँसी है
गाँव का जिस्म तार-तार है वीरानी से
शकज़दा हैं लोग परेशानकुन हैं
हाथ तहख़ानों में बंद
पैर सहरा की ख़ाक छान रहे हैं
साँसें बबूल के झाड़ में फँसी हैं
निगाहों में ख़ौफ़ के जाले हैं
बड़ी चुप्पी है रफ़ी साहब
बड़ी दूरियाँ हैं
कोई आवाज़ नहीं जो पुकार ले
कोई साज़ जो उबार ले
कोई नदी नहीं जिसके किनारे रोयें
किसी टीले पे बैठ उदासियाँ बोयें
लोग लौटने पर आमादा हैं
ग़म को कमज़ोरी का नाम देते हैं
साथ को मजबूरी का नाम देते हैं
मंदिरों में अजब बेरुख़ी है
मस्जिदों में ग़ज़ब बेबसी है
दफ़्तरों में कारकुन हैं कामगार नहीं
फ़क़त ज़िंदा हैं हस्ती के तलबगार नहीं
बहुत बोझ है मन पर मश्विरों का
बहुत बोझ है ख़्वाबों पे तज़्किरों का
बस इक अय्याम है जो चल रहा है
लोग कहते हैं कि ज़माना बदल रहा है
हाकिम के चेहरे पे वही क्रूर हँसी है
वो चुनी हुई दुनिया भी बहुत दूर बसी है
बड़ी नारसाई है रफ़ी साहब
ऐसे में कितनी ग़नीमत है कि आप हैं
दुःखों पर अब भी बरस रहा है
आवाज़ का महीन रेशम
सुबहें फूट रही हैं सुरों में सँजोई हुई
कभी किसी बिछड़े हुए भजन का साथ है
दिल पर कभी किसी भूली ग़ज़ल का हाथ है
एक सदा है जो दश्त में मरहम लिए घूम रही है
एक बारिश है जो तारीकियों में झूम रही है
आप हैं रफ़ी साहब तो हम हारे हुए लोग
अब भी बराए-फ़रोग़ हैं
आप हैं रफ़ी साहब तो ये बिखरा हुआ मुल्क
अभी भी हिंदोस्तान है।

मुड़ती हुई ट्रेन की खिड़की से

मुड़ती हुई ट्रेन की खिड़की से
देखा मुड़ती हुई ट्रेन को

सुरंग में घुस रही ट्रेन
पीछे छूट गए पुल पर
अभी भी सरक रहे डिब्बे

बोगियाँ जो प्लेटफ़ॉर्म से पहले थीं
वे जो प्लेटफ़ॉर्म छोड़ रही थीं

ज़िंदगी को भी अक्सर
इसी तरह देखना चाहा है

एक हिस्सा अतीत में
भविष्य में दाख़िल हो रहा दूसरा

वर्तमान की छड़ों पर टिमकती पुतलियाँ टिकाए
सरसराते हुए बालों को पीछे करते

मंज़र को नमकीन पानी में घुलने से
यक-लख़्त बचाते हुए।

वो नहीं रहा

वो नहीं रहा

वही जो अपने बच्चे को बिलानागा
स्कूल छोड़ने-लेने आता था
अपना पुराना स्कूटर वो
बाक़ायदे पार्किंग में लगाता
इतने कम समय के लिए भी
वो ये चक्कर मोल लेता

बच्चे का बैग उसकी पीठ से यूँ चिपका होता
जैसे चौड़ी दीवार पर कोई नन्हा-सा स्टीकर
बच्चे को उसका बैग पहनाता
बोतल थमाता
और फिर उंगली पकड़ कर उसे स्कूल के
दरवाज़े पर छोड़ देता
वो वहीं रुकता जब तक
स्कूल की इमारत में बच्चे के साथ
बच्चे की छाया भी दाख़िल नहीं हो जाती

वह बाक़ी अभिभावकों को देखकर
मास्क नीचे कर मुस्कुराता
और दोनों पैरों पर खड़ी अपनी गाड़ी को
न्यूनतम धक्के के साथ उतारता
और उस पर यूँ सवार होता
जैसे पेड़ की डाल पर

बच्चे को लाने के लिए भी
वह समय से पर्याप्त पहले पहुँचता
धूल और धुएँ के गुबार से
यूँ निकाल कर लाता अपने बच्चे को
जैसे घने जंगल से बनफूल
वह उसे पहले पानी पीने को कहता
फिर उसे उसकी कैप पहनाता
बच्चे से अपने दोस्तों से विदा लेने को कहता
और फिर उसका बैग टाँगकर
बोतल लटकाकर
हेलमेट यूँ पहनता जैसे
फ़ॉर्मूला वन का रेसर हो

पर इसके ठीक उलट
धीमे-धीमे गाड़ी चलाता हुआ
पीली बत्ती वाला इंडिकेटर देकर
मोड़ से ओझल हो जाता
इस दरम्यान वो लगातार बच्चे से
बात करता हुआ नज़र आता
उँगली से उसे कुछ न कुछ दिखाता हुआ
लाल-बत्ती पर अपना स्कूटर
वो गाड़ियों की क़तार के पीछे ही लगाता
और बत्ती के हरी होने के बाद ही
अपनी गाड़ी स्टार्ट करता
उसके आने में कोई हड़बड़ी नहीं-जल्दबाज़ी नहीं
अक़्सर घर के कपड़ों में ही बच्चे को छोड़ता-लेने आता
लोग-बाग़ यही सोचते उसे देखकर
बेकार होगा, बीवी कमाती होगी
तभी इतना समय है
उसकी आँखों से पता चलता कि
उसे मालूम है लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं
और यह भी कि वह इस सबसे पूरी शाइस्तगी के साथ बेतकल्लुफ़ है

वो नहीं रहा

उसके नहीं रहने का कितना कुछ मतलब होगा
उसके घर-उसके बच्चे और कितने कुछ के लिए
पर उसके नहीं रहने का एक अर्थ यह भी तो है कि
वो अब कभी अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने-लेने नहीं आएगा
उसका स्कूटर अब नहीं दिखेगा उस जगह पर
गुलमोहर की बारीक पत्तियों और यायावर तिनकों से ढँका हुआ

एक आत्मीय शालीनता से वह सधी हुई भूमिका
अब नहीं निभेगी रोज़-रोज़
इस अनुपस्थिति का भी तो कोई मानी है
वरना क्या? एक ख़बर…वो नहीं रहा
कौन… वो… हाँ वही
वो नहीं रहा

ओह… इसीलिए आज इतने दिनों में पहली बार
उसका बच्चा स्कूल नहीं आया है।

सुसाइड नोट

अपना सुसाइड नोट ख़त्म करने के बाद
उसे वो मेज़ पर रखी रोज़मर्रा के सामानों की लिस्ट-सा लगा
उसने कुछ सतरें और जोड़ीं, अब वो किसी गुज़ारिशी ख़त-सा लगने लगा
ज़बान फेरबदल की, वो कुछ ज़्यादा ही फ़लसफ़ाई हो गया
थोड़ी और काँट-छाँट के बाद लगने लगा मानो कोई अकादमिक जिरह हो
या इल्म के पैंतरों से सना मज़मून
वह उसे घटाता, बढ़ाता रहा, ख़ुद को रखता, कभी हटाता रहा
कभी उसका शिकायती लहजा बस में करता
बेचारगी के इज़हार को छिपाने की कोशिश करता कभी
ऐसा करते हुए उसे मालूम न पड़ा
कि कब उसका सुसाइड नोट एक कविता में बदल गया

बेतरतीब पर अचूक, बाक़ी पर बेशक!
काग़ज़ पर उगी कविता देखकर
मौत अब उसे सेकंड बेस्ट ऑप्शन लग रही थी…

क्या ज़िंदगी से लड़ते रहने के लिए
बस इतना ही काफ़ी नहीं है?


सौम्य मालवीय (जन्म : 1987) हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि हैं। उनका एक कविता-संग्रह ‘घर एक नामुमकिन जगह है’ शीर्षक से गत वर्ष प्रकाशित हो चुका है। उनसे saumya.najim@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comment

  1. योगेश जून 10, 2022 at 4:32 पूर्वाह्न

    अच्छी कविताएं। कुछ विरोधाभास जरूर नजर आए लेकिन नयापन है। भाषा भी जानदार है।

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