वहीद अहमद की नज़्म ::
लिप्यंतरण : तसनीफ़ हैदर

वहीद अहमद

ख़ाना-ब-दोश

ना मुश्त में मेरी मुश्तरी ना पाँव में नीलोफ़र
ना ज़ुहरा मेरी जेब में ना हुमा उड़े ऊपर
ना धड़का है सरतान का ना ज़ुहल का कोई डर
ना कोई मेरा देस है ना कोई मेरा घर
ना माथे चमके चंद्रमा ना तारा छुंगली पर
पर देख गिलोब है घूमता मेरी मैली उँगली पर

ना अलख जगा संसार में जब माँ की कोख हटी
ना पुस्तक खोली बाप ने जब मेरी नाफ़ कटी
ना अमल किया रम्माल ने ना धन ख़ैरात बटी
ना बड़ों ने मंतर तान के कोई पाक ज़बान रटी
मैं आप हूँ अपना ज़ाएचा मैं आप सितारा हूँ
मैं आप समुंदर ज़ात का मैं आप किनारा हूँ

मेरा महद कजावा ऊँट का मेरी लोरी बाँग-ए-दिरा
झनकार जो छिड़कें घंटियाँ तो रिसती जाए हवा
है ऊपर गोला डोलता चमकीले सूरज का
और उसके ऊपर आसमाँ है गीला नील भरा
मेरी भोर कटी है कूच में तो साँझ पड़ाव में
दिन ढोर सुमों की टाप में तो रैन अलाव में

है वक़्त छनकती चाल में पग लम्हों की पायल
है चोला छाँव धूप का सर सतरंगी आँचल
मेरा मक्का चमके आँख में बहे दिल में गंगाजल
मैं वायु, अग्नि, सूर्य, मैं बे-साहिल जल-थल
मेरा साथी सुबह-ओ-शाम का मेरी माँ का कंगन है
हैं तकिया उस की छातियाँ तो गोद सिंहासन है

मैं बाला बेले दश्त का, सहरा में हुआ जवान
मेरा जिस्म छरैरा साँवला, मेरी सीधी तीर उठान
मेरी काली आँख दरावड़ी, मुत’जस्सिस और हैरान
मेरे नींद में हिलते पाँव हैं मेरे जज़्बे की पहचान
एक मिशअल राह-नवर्द है जो जलती रहती है
मेरे हाथ पे एक लकीर है, जो चलती रहती है

ओ दबी-दबी सरगोशियों लो सुनो दरावड़ी धाड़
हम आसमान का पारचा, इक फूँक से डालें फाड़
हम काले कोस उजाल दें, संगलाख़ पहाड़ पछाड़
हम चलें जो पूरे पाँव से, तो धरती खाए दराड़
हर एक नशेब फ़राज़ को, हम ठोकर देते हैं
जो ख़ाब ख़याल गुमान है, हम वो कर देते हैं

अंगुश्त-बदंदाँ रास्ते दिल पाश कलेजे शक़
तन सम ज़र्बों से नीलगूं और चेहरा-चेहरा फ़क़
हों शीशा शीशा धारियाँ या रेग कदे लक़दक़
मैं अकबर-ए-आज़म राह का मैं मंज़िल का तुग़लक़
मेरा तन हमज़ाद अलाव में दरबार लगाता है
हर रस्ता जिस्म सँभाल के तस्लीम को आता है

ओ माँग भरी मेरी कामिनी मेरे साथ जवानी चख
ये जग तेरी जागीर है तो खुल के पाँव रख
इस वरक़-वरक़ संसार को तू खोल फरोल परख
रहें सदा ये दश्त नवरदियाँ है जीवन नक़्श अलख
आ पाँव पे मिट्टी बाँध लें आ हवा हथेली पर
आ इस्म-ए-सिम सिम फूँक दें, इस जन्म पहेली पर

ओ धरती खोल हथेलियाँ मैं पाँव से खींचूँ रेख
मरे कटे-फटे पापोश हैं पर नक़्श निगारी देख
मैं कुंडली हूँ तारीख़ की मैं जन्म-जन्म का लेख
मैं बाँझ ज़मीन का सुंबुला मैं ज़र्द रुतों का मेख
इक ख़ीरा-ख़ीरा रोशनी मरी छाँव में होती है
ये दुनिया जिसका नाम है मेरे पाँव में होती है

मैं संग नहीं इंसान हूँ क्यों घर तामीर करूँ
जब पाँव लगे हैं जिस्म को तो क्यों ना चलूँ-फिरूँ
जब उजलत में है ज़िंदगी तो काहे धीर धरूँ
मैं कैसे ईंटें जोड़ दूँ मैं क्यों बुनियाद भरूँ
इस धरती की बुनियाद पर मैं जिस्म उठाता हूँ
घर साया बन कर साथ है मैं जहाँ भी जाता हूँ

मैं पिगमी, बद्दू, नीग्रो में हूँ मंगोल, अफ़्ग़ान
उस सुब्ह बहीरा रोम था इस शाम हूँ राजस्थान
है सिडनी क़ुर्ब-जवार में कभी पहलू में ईरान
दरया-ए-ज़र्द में कश्तियाँ, डेन्यूब में कभी पड़ान
इक नक़श-ए-पा रोमानिया तो इक क़फ़क़ाज़ में है
इक साँस है मालाबार में तो एक हिजाज़ में है

मैं शाइर सांदल बार का, मेरी सोचें ख़ाना-ब-दोश
जब करे सुलेमां मौजज़ा, तो दुनिया से रुपोश
पी सावी बरी इमाम की, तो मनमौजी मदहोश
कभी सारा धारा आइना, कभी पूरन-माशी जोश
ये चेहरे सूरजदार हैं लश्कारा होते हैं
ये लोग जो हैं बे-ख़ानमाँ, मेरा सारा होते हैं


वहीद अहमद (जन्म : 1959) पाकिस्तान के सुपरिचित कवि हैं। तसनीफ़ हैदर से परिचय के लिए यहाँ देखें : अतीत से कटी हुई दुनिया का भविष्य

1 Comment

  1. Akhilesh singh नवम्बर 19, 2022 at 4:59 पूर्वाह्न

    क्या अद्भुत काम सामने लाये हैं तस्नीफ़ भाई। 👌

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