कविताएँ ::
सुभाष तराण
मेरे घर के सामने का पहाड़
नीचे नदी की तलहटी से
ऊपर आसमान के छोर तक
न जाने कब से खड़ा है
मेरे घर के सामने का पहाड़
अपने आग़ोश में
जीवों, वनस्पतियों, संस्कृतियों एव सभ्यताओं को
सहस्त्राब्दियों से पोसने वाला
यह निर्बाध अभिभावक
वर्षा-ऋतु में ओढ़े रहता है हरित आवरण
शीत में बर्फ़ की चादर से ढके होते हैं
किसी योगी के जैसे इसके कंधे
और फिर वसंत में यह दुल्हन की तरह
फूलो के गहनों से लदा होता है
जबकि ग्रीष्म में
नंग-धड़ंग नज़र आता है
सागर-तट पर धूप तापते
दक्षिण ध्रुव के किसी लापरवाह सैलानी की तरह।
पहाड़
आपदाओं के आते ही
फ़ाइलों की शक्ल अख़्तियार किए हुए
नेताओं, पर्यावरणविदों, साहित्यकारों और पत्रकारों के साथ
तबाही के मंज़र लिए हुए
आपदाओं के लेखे-जोखे सहित
बहुत जल्द आ धमकता है पहाड़
शहर के एक सेमिनार में
महत्त्वकांक्षाओं के तत्वावधान से शहर में उसके लिए
एक मंच उभर आता है
और मंच पर नज़र आता है एक जनरल
जो कहता है कि सब कुछ है आसान
उसको मिलने वाली सरकारी सुविधाओं की तरह
उसके उन आदेशों की तरह
जिनका पालन होना ही है
उसके बाद मंच पर एक कप्तान भी नुमायाँ होता है
जो कहता है आदेशों का पालन होना चाहिए
अगर आदेश का पालन हो तो नहीं आती हैं आपदाएँ
जो थोड़ी बहुत आती हैं
वे डरकर भाग जाती हैं
तार्किक महत्त्व की बेतुकी कहानियों के साथ
मंच पर दिखता है फिर एक कर्नल
जो कहता है
ईश्वर समझो ख़ुद को
पहाड़ को समझो एक रोड़ा
जिसे ज़रूरत पड़ने पर
उठाकर जेब में रखा जा सके
फिर रह नहीं जाती ज़रूरत
नदी, पहाड़ और पेड़ को कुछ भी समझने की
और अंत में एक अपील के साथ
मंच पर आता है एक पत्रकार
और बताता है कि ऊपर जो बातें कही गई हैं
उन्हें सच मान लिया जाए
आपको यह सब सुनने के बाद
बहुत आसानी के साथ
यह समझ में आ जाता है
कि वह क्या समझाना चाहते हैं आपको।
आसमान का क़रीबी गाँव बिथरी
बर्फ़ से लदी
फ़तेह पर्वत की अंतिम धार की ओट में
किसी अनुशासित सैन्य टुकड़ी की तरह घात लगाए
बैठा नज़र आता है बिथरी गाँव
छापामार गुरिल्लाओं की टोली से
इस गाँव के घर
भीमकाय देवदार और बाँज के वृक्षों की आड़ लिए
मोर्चा सँभाले हुए है
आसमान से उतरती
सर्द मौसम की ठिठुरती ठंड के ख़िलाफ़
सिपाही के शिरस्त्राण-सी है
प्रत्येक घर पर फैली पटाल की ढलवाँ छतें
और युद्धरत लड़ाके के बख़्तरबंद-सी नज़र आती है
देवदार के मज़बूत शहतीरों
और पत्थरों की जुगलबंदी से बने घरों की दीवारें
हिमालय के इस उच्च भू-भाग पर
सर्दियों से सीधी टक्कर लेने वाले इस गाँव के घरों को
आप चाहे तो जंगबाज़ भी कह सकते है
जीवित रहने के ज़रूरी संसाधनों से लैस
किसी प्रशिक्षित योद्धा की तरह
गाँव का प्रत्येक घर
रसद के रूप में रखे हुए है
अपनी एक ओर
अनाज की निश्चित खेप से भरा एक कोठार
जबकि बाँज की सूखी लकड़ियों का ज़ख़ीरा
किसी आयुध भंडार-सा
दूसरी ओर सुरक्षित रखा गया है
जुझारू युवा-सा आत्मबल है
इन घरों की पहली दोनों मंज़िलों के
अंदर रखे गए पशु
और इस आत्मबल को पोसती है
पालतुओं के चारे-चबैने
और सूखी घास से लदी इन घरों की बारहदरियाँ
गाँव के घरों में बिना खिड़की के कमरे
मालूम पड़ते है सरहद पर तैनात किसी टैंक के केबिन
जहाँ तय होती है रणनीति गिरते पारे के विरुद्ध
ख़ालिस काठ से गढ़े गए
इन घरों के तीसरे मालों पर
अहर्निश सुलग रहे चूल्हे
जीवित चेतना है संघर्ष की
जो पोसती है संवेदनशीलता को
और ऊर्जा देती है जीवन को।
पहाड़ से होने का मतलब
चोटी-सी ऊँची होती है सोच
होती है उतरती खाई-सी गहराई भी बातों में
हौसला चट्टान होता है
होता है बाँज-देवदार के जंगल-सा शांतचित्त
दु:ख के बादल फटने पर
और बहुत कुछ बह जाने के बाद भी
बची रहती है ठहर जाने की हिम्मत
जज़्ब करने का जज़्बा होता है दावानल को भी
घाटी गदेरों में बहती
अविरल जल-धाराओं और नदियों की तरह
धमनियों में होता है रक्त का स्वच्छ प्रवाह
दोनों छोर आसमान जितनी होती है
आँखों की चमक
मुस्कुराहट की रंगत बुराँश-सी होती है हुबहू
होता है व्यवहार बुग्यालों की नर्म घास-सा
सहारा होता है तो
प्रत्येक जीव को प्रश्रय देने वाली
प्राकृतिक गुफा के जैसा
और पहाड़ से होने का मतलब
हर साँस को सुलभ होना होता है—
प्राणवायु की तरह।
शिल्पकारों के नाम
दुनिया के बेनाम शिल्पकारो,
मेरे आराध्य तो तुम हो
मिट्टी, पत्थर और काष्ठ को तराशकर
उकेरी गई तुम्हारी कल्पनाएँ
जो सहस्त्राब्दियों से
जनमानस की आराध्य रही आई हैं
जो वर्तमान में आराध्य हैं
और आराध्य रहेंगी भविष्य में भी
तुम्हारी कल्पनाओं ने
पहिए और पंखों को तब आकार दिया
जब सारा विश्व वहशी और बर्बर हुआ करता था
जो यहाँ पूजे जाते हैं
वे मात्र प्रतीक भर हैं अंधविश्वास के
तुम शाश्वत हो
भले ही आस्था तर्क पर भारी रहे
लेकिन एक समय ऐसा ज़रूर आएगा
जब इन बेजान मूर्तियों की नहीं
लोग तुम्हारे हुनर की आराधना करेंगे
मुझे ज़रा भी सरोकार नहीं इन छ्द्म देवताओं से
जिनके लिए भीड़ भेड़ हुई जाती है
जैसे परिश्रम के आगे नतमस्तक होती है दिव्यता
उसी तरह तुम्हारी कठोर साधना के आगे
दंडवत होता हूँ
मैं भी…
सुभाष तराण [जन्म : 1972] की जड़ें उत्तराखंड के ज़िले देहरादून की त्यूनी तहसील के सीमांत गाँव हटाल में हैं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव और पास के क़स्बे त्यूनी से हुई। उनका जुड़ाव लंबे समय तक वॉलीबाल और क्रिकेट जैसे खेलों से रहा। वह एथलीट और प्रशिक्षित पर्वतारोही हैं। पूर्वी काराकोरम से लेकर सुदूर कुमाऊँ हिमालय के पर्वत-शिखरों पर जाने वाले अभियानों में वह बतौर सदस्य शरीक रहे हैं। उनकी कविताएँ, कहानियाँ, आलेख, संस्मग्ण और यात्रा-वृत्तांत समय-समय पर यत्र-तत्र प्रकाशित होते रहे हैं। उनकी एक गद्य-कृति ‘नदी की आँखें’ [संभावना प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 2022] अपने पाठ में अत्यंत मार्मिक और प्रशंसा-योग्य पाई गई है। उनसे trehansubhash@gmail.com पर संवाद संभव है।