कविताएँ ::
पीयूष दईया

निर्मल वर्मा और उनका पीयूष दईया के नाम पत्र

नई दिल्ली / 8.11.1990

प्रिय पीयूष जी,

आपकी कविताएँ पढ़ गया हूँ… बल्कि यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि मैं उन्हें बहुत धीरे-धीरे पढ़ता रहा हूँ—एक साथ उन्हें पढ़ना संभव नहीं। उनमें एक उज्ज्वल, संक्षिप्त और प्रांजल चित्रमयता है, जो मुझे जापानी हायकू-शैली की याद दिलाती है। वे चित्र कोमल नहीं हैं—उनमें एक अजीब क़िस्म की भयावहता भी है, जो उन्हें हायकू के लिरिसिज्म से उठा कर आधुनिक भावबोध के निकट ले आती है—

आधी रात    दरवाज़े के पास
टहलता है,
मरा हुआ शरीर

या

हाथ की हरकत
ख़तों में बंद है।

ऐसे अनेक बिंब हैं, जो देर तक मन को उलझाए रहते हैं।…

सस्नेह,
आपका,

निर्मल

पीयूष दईया | तस्वीर सौजन्य : संतोष पासी

एक

सुबह खुली पानी में तैरती हुई मछली-सी
एक अंतर्मुखी आँख में

ऐसे लिखते हुए
केवल होना

हृदय है

दो

पेड़ पर फल कहता है—
मुझ में अब और पकना शेष नहीं है;
मैं पूरा पक गया हूँ

आओ, मुझे तोड़ो
डरो मत

लो, पूरा
हूँ

तीन

जन्मपत्री में सब भीतर से ऐसे बदल गया है
जैसे देश बदल लिया हो पक्षी ने

पूर्णविराम के लिए

चार

मौन का मुख

खुला

गाँठ जैसे
भीतर

लिखा

केवल
कहा, अनकहा

रहा

पाँच

कर्म का दाग़ ऐसा भी
हो सकता है जैसे हवा में नमक का दाना

घुलता हुआ     ऋण है जो

—माला का

अंतिम दाना है

छह

एक शब्द के भीतर एक शब्द के रूप में :

असमाप्त अपने में निहित समाप्त का शोक करता है।

सात

जब वह भाषा में एक शब्द लेता है, तो समुद्र से
एक बूँद बाहर आती है और फूल में एक पंखुड़ी
वापस जुड़ जाती है।

आठ

अंतिम शब्द ने अपना रास्ता पाया
आईने में, लेकिन यह देख-पा कर दहल गया
—आईने में एक नहीं अनेक थे

और सब लभ्य

अलभ्य
वह अंतिम शब्द था

नौ

एक विवरण का पारदर्शी सारांश जहाँ दूसरा
उपसंहार है—अपना सबक़ सीखते

किसी ने खोह दी न खाल दी ढँकने के लिए
एक पूरा जाड़ा

वह
नीला रहा जैसे आकाश हो

ठंडाया हुआ

दस

शरीरहीन शब्द को शरीर देते हुए
छोटे होते वाक्य को निचोड़ लिया
है : अर्क़—पूरा पी लिया

बोलने से छिपने के लिए

—एक पत्र ने

प्रिय की पीड़ा सोख ली है

ग्यारह

पतझड़ के शब्दों से बनी कविता जल्द ही ठूँठ में बदल गई जिसे छोड़ दिया
शांत, संक्षिप्त!

अपने को एक संग्रह की तरह देखते हुए
जिस का हर पन्ना गल गया है
इबारत से लेकिन

मिट्टी में मिलने
तक

गहराता हुआ

बारह

होने की जड़ों में वह देखता है जो देखा नहीं गया है : यह दुनिया के सभी रंगों को एक तस्वीर में लाने वाला लम्हा बन जाना है—लम्हा उसमें स्वयं को देखता है

और वह उसकी चेतना है
निःशब्द रोशनी की भाँति

तेरह

वह गुलाब को ऐसे देख रहा है जैसे
यह उसका प्यार हो केवल
अभी के लिए

कल तक
झर चुका होगा

चौदह

निर्लोभी नीड़ में झरी ओस सोख लेने का सुख
अपनी दैनंदिनी में यूँ लिख रहा है मानो
सुनील समुद्र का स्वर निकला हो
शुभ्रशंख से

उषा की अरुणिमा में
बहती जा रही
नाव यह

क़लम हो सकती है

पंद्रह

कमी कम नहीं होती, इसे कहने के लिए, यह कमी है जो वह स्वयं है जिसकी कोई पूर्ति नहीं

सोलह

ज़मीन में वह

सूख जाता है जो
अंदर ही

पानी
जड़ों के लिए

मिला
नहीं

सत्रह

जब अपनी आवाज़ वापस लेता है तब वह
अपने आप में छिपा है

पानी की भाषा में लिखता
अपना दूसरा

चेहरा देखने के लिए

अठारह

उस एक से जिस ने कभी कुछ देने के बारे में
बोला न वादा किया, उस से इतना मिला
कि सामने स्वर्ग है

एक नई शुरुआत के लिए

उन्नीस

अपने झर रहे पत्तों को पेड़ देखता है
बदले में झरे पत्ते पेड़ से कुछ कहते नहीं
चुपचाप गल जाते हैं

पीछे रह जाता पेड़ तिरस्कृत है
एक दीठ से

इस बार

बीस

आस पला सारा पसारा पोर-पोर तक
पराया, अपना-सा

आपा न देखा :

गाँठ ली
ठाँव

पाँव में चक्रक चल पड़ा
पुतलियों से
तिर्यक

भाँप

रहा
वही निहित, वही अथ—
बुना जहाँ
इत्यलम्

इक्कीस

उस अंतिम यात्रा में एक कंधा मेरा भी था।
यात्रा ने अंतिम में मेरा चंचु-प्रवेश करा दिया
जहाँ लौटा नहीं एक कविता का पहला शब्द
मुझमें
जिसे

दर्पण की गहराई से बाहर खींच लिया गया
अपने को देखने के लिए

पके फल के रूप में

बाईस

रेत का कण यह नहीं जानता कि उसमें मरुथल है।
जान भी ले तो क्या! रहेगा फिर भी मरुथल ही।

तेईस

अपने प्रेम को आयु की तरह देखना जो आप को केवल धीरे-धीरे जाने देती है, कभी न लौटने के लिए।

चौबीस

उच्चतम के बिंदु पर लिख नहीं सकता, ज़िंदा जल जाऊँगा, सुंदरता से।

पच्चीस

जब सूरज अपनी रोशनी का अनावरण करता है, तो सब देखते हैं।

छब्बीस

वाक्य में अनेक शब्द हैं, जिन में से एक
वह जो अपने भीतर से परित्यक्त है

वही है
न लिखा गया शीर्षक

सत्ताईस

ये वहाँ हैं, जैसे पर्दे के पीछे हों
ख़ुशी के आँसुओं की तरह

बूँदें : बारिश के

संक्षिप्ताक्षर

अट्ठाईस

इन पहले की इबारतों में वह कहाँ है जो पुनर्जन्म का बीज सुखा देता है?

उनतीस

शांत गोधूलि-सा संन्यस्त लौट आया है,
लेकिन जंगल इतना घना है कि पता नहीं कहाँ

तीस

वहाँ से गुज़रता है
जिसे उसने बहुत पहले छोड़ दिया था

एक दिल की तरह

इकतीस

काल्पनिक रचनांश :

चित्रगुप्त के बहीखाते में एक नाम का अक्षरारंभ
होना यूँ दीख गया जैसे दीठ में गर्भाधान हो।

बत्तीस

चाप चुप है, थिर नहीं

—लख लेती
पथ

अन्य-तम
का

सुनते हुए जिसे
आधी रात    दरवाज़े के पास
टहलता है,   मरा हुआ शरीर

अपना ही।

तैंतीस

कंपकपाते कंधे पर रखता
उजाला

कहीं कोई
नीले आसमान की परछाईं

जल पर न रख दे

—अँधेरा
जादुई

हाथ की हरकत
खतों में बंद है।

चौंतीस

भीतर

भी
तर

पैंतीस

जबकि पीछे तो पहली पंक्ति में
यहाँ तक रचना कर क़लम
कब की रख दी गई है

जहाँ निदान निकास है, निर्णय नहीं
यही देहधरे का दंड है

साँस समान पालन से
चीन्ह लेना स्वाक्षर में

—जिस नाम के अक्षरों से रचा
उस नाम में ही घड़ा फोड़ देना
रचना का—

अब
सब, सब नहीं

इस लौकिक में आठपहरी संबोधन-सा

अपना अपने से छिपा
न अन्य से

आगे नाटघर जाने


पीयूष दईया (जन्म : 1972) सुपरिचित कवि-लेखक, संपादक और अनुवादक हैं। उनके तीन कविता-संग्रह, अनुवाद की दो पुस्तकें, चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद और एक लंबी कहानी ‘कार्तिक की कहानी’ प्रकाशित हैं। इसके साथ-साथ उन्होंने साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का संपादन किया है। इन दिनों वह ‘रज़ा फ़ाउंडेशन’ की एक परियोजना ‘रज़ा पुस्तक माला’ से संबद्ध हैं तथा शास्त्रीय संगीत व नृत्य पर एकाग्र पत्रिका ‘स्वरमुद्रा’ का संपादन कर रहे हैं। उनसे todaiya@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comment

  1. मिथलेश शरण चौबे जुलाई 12, 2023 at 4:14 अपराह्न

    निर्मल जी का अनुभव कविता के पास जाने की तमीज़ देता है।
    पीयूष जी की कविताओं को ठहरकर इतमीनान के साथ पढ़े जाने की ज़रूरत है। उसके विन्यास के सम्मोहन में आकर ज़ल्दबाज़ी से पढ़ना, उस सुख और मर्म से विमुख होने का खतरा है, जो इन कविताओं से मिलता है। वर्णनात्मकता की आतुर ललक और स्थूल के ब्यौरों की वाहक बनती बहुसंख्यक कविता के बरअक्स यह एक अलहदा और विरल अनुभव है।
    शब्द यहाँ अर्थ से पहले एक संरचना को निर्मित करते हैं। अत्यल्प में व्यापक की शरणस्थली हैं ये कविताएँ। इन्हें पढ़कर इतना सारा विचार में आ रहा है कि विस्तार से लिखने की इच्छा को स्थगित करना मुश्किल लगता है।
    संक्षेप में सिर्फ़ यही, शुक्रिया सदानीरा
    शुक्रिया पीयूष जी।
    हिन्दी के पाठकों को यह विरल आस्वाद देने के लिए।

    रेत का कण यह नहीं जानता कि उसमें मरुथल है।
    जान भी ले तो क्या! रहेगा फिर भी मरुथल ही।

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