विसेंटे ह्युइदोब्रो की कविता ::
अनुवाद और प्रस्तुति : अभिषेक अग्रवाल
होर्हे लुई बोर्हेस ने विसेंटे गार्सिया ह्युइदोब्रो फ़र्नांडीज के बारे में कहा था, ‘‘उनकी शैली कभी-कभी इतनी जटिल हो जाती है कि केवल कुछ लोग इसे पूरी तरह समझ सकते हैं।’’ ऐसे कवि का अनुवाद करने में मेरी ख़ुद की सीमाएँ भी सामने थीं, लेकिन वर्षों तक इस कविता को कई भिन्न आयामों से पढ़ने के बाद सोचता हूँ कि शायद कुछ कर पाया हूँ।
क्रेआसियोनिस्मो शैली के जनक विसेंटे ह्युइदोब्रो का मानना था, ‘‘कवि को भगवान की तरह नई दुनिया और नए विचारों का सृजन करना चाहिए।’’ इस बात की पुष्टि उनके मित्र पाब्लो पिकासो ने यह कह कर की थी, ‘‘ह्युइदोब्रो की कविता चित्रकला की तरह है। यह ब्रह्मांड को देखने का एक नया तरीक़ा है।’’
विसेंटे ह्युइदोब्रो की यहाँ प्रस्तुत कविता ‘अल्ताज़ोर’ 1931 में प्रकाशित हुई थी और प्रकाशित होते ही इसे अवाँगार्द आंदोलन की प्रमुख कविता के तौर पर स्वीकारा गया। इस लंबी कविता को ह्युइदोब्रो ने सात खंडों में लिखा है।
विसेंटे ह्युइदोब्रो अपनी कविता की प्रस्तावना में ही यह स्पष्ट करते हैं कि उनका नायक किन्हीं अनचीन्हे बड़े उद्देश्यों के लिए नहीं, बल्कि अंत के सफ़र पर निकला है। वह अपने सफ़र में अस्तित्ववाद, मानव-नियति तथा भाषा की सीमाओं से जूझता है और शायद इसीलिए कविता अपने अंत तक आते-आते शब्द को अर्थ से मुक्त करके मात्र एक स्वर में तब्दील हो जाती है।
आइए पढ़ते हैं—हिंदी में पहली बार इस शानदार कविता का आरंभ या कहें इसकी प्रस्तावना।
— अभिषेक अग्रवाल

अल्ताज़ोर
प्रस्तावना
तैंतीस वर्ष की आयु में ईसा मसीह की मौत के दिन मेरा जन्म हुआ, मैं पैदा हुआ था भूमध्य रेखा पर हाइड्रेंजिया फूलों के नीचे और लू के थपेड़ों के मध्य।
किसी कबूतर, किसी सुरंग, किसी सेंटीमेंटल गाड़ी की तरह मैं देखता था और रोता था किसी नट की तरह।
मेरे पिता अंधे थे और उनके हाथ रात से अधिक सुंदर थे।
दिन का अंतिम शृंगार, रात मुझे पसंद थी।
रात सुबह एक के बाद एक।
मेरी माँ भोर की उम्मीद की तरह बोलती थी जिनसे दुःख झड़ता था, उसके काले सफ़ेद बाल किसी झंडे की तरह थे और उसकी आँखों में क्षितिज के जहाज़ लहलहाते थे।
एक दिन मैंने अपना पैराशूट समेटा और कहा—‘‘दो अबाबीलों और एक तारे के बीच यहाँ मौत आ रही है।’’
मेरी माँ ने अपने आँसू पहले इंद्रधनुष पर ही टाँक दिए।
अब मेरा पैराशूट गिर रहा है, एक से दूसरे स्वप्न में मृत्यु के पथ पर।
पहले दिन मैं मिला एक अजनबी चिड़िया से जिसने कहा—‘‘अगर मैं एक ऊँट होती तो नहीं जानती प्यास को, अभी क्या समय हुआ है?’’ उसने मेरे बालों पर गिरी ओस की बूँदों को पिया, देखा मुझे पूरे से कुछ कम और हिलाते हुए अपने रूमाल को ‘विदा’ कह वह चली गई।
दुपहर दो बजे के क़रीब, मैं मिला एक मोहक हवाई जहाज़ से, सजा था जो शल्कों और शंख-सीपियों से, बारिश से बचने को वह तलाश रहा था आसमान में कोई कोना।
वहाँ, दूर कहीं, सारी नावें भोर की स्याही में लंगर डाले खड़ी थीं।
एक-एक कर वे अपनी ज़ंजीरों से मुक्त हो गईं, निर्विवाद भोर की पताकाएँ खींचती हुईं जैसे ढो रही हो अपने राष्ट्रीय गर्व को।
जैसे ही विदा हुए अंतिम यात्री, भोर भी छिप गई उफनती लहरों के पीछे।
और तब मैंने सुनी आवाज़ उस नामहीन ईश्वर की जो शून्य में किसी कुएँ की तरह विद्यमान है और जो है नाभि-सा सुंदर और कोमल।
‘‘मैंने रची एक महान गर्जना टूट जाने की, उस आवाज़ ने बनाए महासागर और निर्मित हुई असंख्य लहरें…
‘‘वह आवाज़ गुँथ गई सदा के लिए समुद्री लहरों में और वे लहरें समा गई उस आवाज़ में वैसे ही जैसे डाकख़ाने की मुहर रह जाती है चिट्ठी पर…
‘‘मैंने बुनी चमकीली किरणों से एक डोरी और सिल दिए दिन अपरिहार्य सुबह के साथ…
‘‘और फिर गढ़ा मैंने इस धरती के भूगोल को और खींच दी रेखाएँ तुम्हारे हाथों पर…
‘‘और पी मैंने थोड़ी कॉन्यैक (ताकि बना सकूँ तुम्हारे लिए साफ़ पानी के स्रोत)
‘‘मैंने बनाए चेहरे और बनाए होंठ ताकि वे अस्पष्ट मुस्कुराहटों को स्पष्ट कर सकें, और बनाए दाँत ताकि अनुचित कुछ भी न निकल सके मुख से…
‘‘मैंने बनाई जिह्वा, जिसे मनुष्य ने उसके काम से भटकाकर बोलना सिखाया… उसी के लिए, उसी के लिए, ओ जलपरी, वह दूर हो गई अपने सुंदर कामुक इंद्रियजन्य अस्तित्व से।’’
मेरा पैराशूट तेज़ घूमते हुए नीचे गिर रहा है। कितना शक्तिशाली है मृत्यु का आकर्षण, उस खुली क़ब्र का खिंचाव।
मेरा विश्वास करो, इस खुली क़ब्र में प्रेमी की आँखों से कहीं अधिक आकर्षण है। और मैं यह कहता हूँ तुमसे, हाँ तुमसे जिसकी मुस्कान ने दुनिया के निर्माण के विचार को जन्म दिया।
मेरा पैराशूट जा उतरा एक बुझ चुके तारे पर, जो अब भी पूरे अनुशासन से अपनी कक्षा में घूम रहा है, मानो उसे इस अनुशासन की व्यर्थता का ज्ञान ही न हो।
निचाई की अपनी इस यात्रा पर मिले अल्पविराम में मैंने अपनी शतरंज की बिसात के छोटे-छोटे ख़ानों को गहरी सोच से भरना शुरू कर दिया।
‘‘सच्ची कविताएँ आग के समान होती हैं। कविता हर जगह फैल रही है, उसकी विजय आलोकित होती है—आनंद या पीड़ा की सिहरनों से।
‘‘इंसान को ऐसी भाषा में लिखना चाहिए जो उसकी मातृभाषा न हो।
‘‘दिशाएँ चार नहीं तीन हैं—दक्षिण और उत्तर।
‘‘कविता कुछ ऐसी है जिसे अभी लिखा जाना बाक़ी है।
‘‘अधूरी रहना कविता की नियति है पर उसका होना ज़रूरी है।
‘‘कविता वह है जो कभी नहीं लिखी गई, वह कभी लिखी भी नहीं जा सकती।
‘‘बाहरी भव्यता से दूर भागो, अगर तुम हवा के थपेड़ों से कुचले जाने से बचना चाहते हो।
‘‘अगर मैं साल में कम से कम एक बार कुछ पागलपन भरा काम न करूँ, तो सचमुच पागल हो जाऊँगा।’’
अपना पैराशूट थाम, मैं तेज़ रफ़्तार वाले सितारे से अंतिम आह के समताप-मंडल में कूद पड़ता हूँ।
मैं सपनों की चट्टानों के ऊपर अंतहीन चक्कर काटता हुआ, मृत्यु के बादलों के बीच से गुज़रता हूँ।
मैं मिलता हूँ गुलाब पर बैठी एक कुँवारी से, जो कहती है—‘‘देखो, लाइट बल्ब की तरह पारदर्शी मेरे हाथों को। क्या तुम उन पतले तारों को देख पा रहे हो, जिनमें मेरी पवित्र रोशनी का रक्त बहता है?
‘‘देखो मेरे प्रभामंडल को। इसमें कुछ दरारें हैं, जो इसकी प्राचीनता का प्रमाण हैं।
‘‘मैं हूँ अक्षता। एक ऐसी कुँवारी जिस पर पुरुष का कोई दाग़ नहीं। मुझमें कुछ भी अपूर्ण नहीं, मैं हूँ ग्यारह हज़ार अक्षताओं की कप्तान1ग्यारह हज़ार अक्षताओं का संदर्भ संत उर्सुला और उनके साथियों से जुड़ा है। जिन्हें ध्यान से अत्यधिक ध्यान से पुनर्स्थापित किया गया है।
‘‘मैं ऐसी भाषा बोलती हूँ, जो संवादी बादलों की तरह हृदय भर देती है…
‘‘मैं अलविदा कह कर, वहीं ठहर जाती हूँ।
‘‘मुझे प्रेम करो, मेरे बच्चे, मैं सराहती हूँ तुम्हारी कविता को और सिखाऊँगी तुम्हें वायवीय कौशल।
‘‘मुझे कोमल स्पर्श की चाहत है… चूमो, भोर के बादलों से धुले मेरे बालों को। कभी-कभी गिरने वाली ओस के गद्दे पर अब मैं सोना चाहती हूँ।
‘‘दूर क्षितिज की उस रेखा पर, मेरी निगाहें टिकी है जहाँ छोटी चिड़ियाँ विश्राम कर रही हैं।
‘‘मुझे प्यार करो।’’
उस वृत्ताकार अंतरिक्ष में मैं अपने घुटनों पर बैठ गया, वह अक्षता उठी और मेरे पैराशूट पर आ गई।
मैं सोया, और फिर उसे सुनाईं अपनी सबसे सुंदर कविताएँ।
उस अक्षता के बाल मेरी कविता की लपटों ने सुखा दिए। उसने मुझे कहा शुक्रिया और वह चली गई वापस अपने उसी नरम गुलाब पर।
और अब बस मैं हूँ, अकेला, जैसे किसी गुमनाम तबाह जहाज़ पर कोई नन्हा अनाथ।
आह, सुंदर… कितना सुंदर।
मैं देख सकता हूँ पहाड़, नदियाँ, जंगल, समुद्र, नाव, फूल और सीपियाँ।
मैं देख सकता हूँ रात और दिन, और वह धुरी भी जहाँ वे मिलते हैं।
ओह हाँ, यह मैं हूँ अल्ताज़ोर, महान् कवि, जिसके पास ऐसा कोई अश्व नहीं, जो उड़ सकता हो खाकर पक्षियों का चुग्गा या अपने गले को गरम करता हो चाँदनी से। मैं लिए हूँ बस अपना छोटा-सा पैराशूट, जैसे ग्रहों के ऊपर टँगी हो एक छतरी।
मेरे माथे पर झलक उठी हर पसीने की बूँद से मैं सितारों को जन्म देता हूँ। उस थोड़े से पानी से उनके बपतिस्मे का जिम्मा मैं तुम पर छोड़ता हूँ, करो, जैसे मिलावट की जाती है शराब में।
मैं सब कुछ देख सकता हूँ, मेरा मन भविष्य-वक्ताओं की वाणी में ढला हुआ है।
पर्वत ईश्वर की आह है, जो अपने ही ताप में उठता है जब तक वह छू न ले प्रिय के पैरों को।
वह जिसने सब कुछ देखा है, जो बिना वाल्ट ह्विटमैन हुए सभी रहस्यों को जानता है, हालाँकि मेरी दाढ़ी कभी भी सुंदर नर्सों और जमे हुए झरनों जैसी सफेद नहीं रही।
वह रात में नक़ली सिक्के बनाने वालों की हथौड़ों की आवाज़ सुनता है, जो हक़ीक़त में मेहनती खगोलशास्त्री हैं।
वह बाढ़ के बाद ज्ञान का गर्म गिलास पीता है। वह कबूतरों का आज्ञाकारी है और जानता है थकावट के रास्ते को; वह उबलती हुई पानी की उस लकीर को जानता है, जिसे जहाज़ अपने पीछे छोड़ जाते हैं।
वह यादों के कमरे को जानता है, उन ख़ूबसूरत भुला दी गई ऋतुओं को भी।
वह, हवाई जहाज़ों का चरवाहा, खोई हुई रातों और अनुभवी पश्चिमी हवाओं का मार्गदर्शक।
उसकी सिसकियाँ अनचीन्हे नक्षत्रों का टिमटिमाता हुआ जाल हैं।
उसके हृदय में दिन उगता है और वह अपनी पलकें झुका लेता है, ताकि वनस्पतियों के विश्राम की रात बना सके।
वह ईश्वर की निगाहों के नीचे अपने हाथ धोता है और उजाले की तरह बाल सँवारता है, जैसे हल्की बारिश की बूँदें फ़सल सँवारती हैं।
जब तारे अनथक मेहनत के बाद नींद में डूब जाते हैं, तब चिल्लाहटें पहाड़ियों के ऊपर झुंड की तरह भटक जाती हैं।
सुंदर शिकारी निर्दयी पक्षियों के लिए ब्रह्मांडीय जलाशय के सामने खड़ा है।
उदास हो जाओ, जैसे हिरन हो जाता है उदास अनंत और उल्काओं के समक्ष, जैसे रेगिस्तान बिना मृगतृष्णा के।
जब तक विछोह की शराब और चुम्बनों से सूजा चेहरा तुम्हारे सामने न आ जाए… उदास हो जाओ, क्योंकि इस गुज़रते हुए साल के एक कोने में उसने तुम्हारी प्रतीक्षा की है।
शायद तुम्हारे अगले गीत के अंत में वह है, उतनी ही सुंदर जितना कोई गिरता हुआ झरना और उतनी ही भव्य जितनी भूमध्य रेखा।
उदास हो जाओ; गुलाब से भी अधिक उदास, वह नादान भँवरों और निगाहों के लिए एक सुंदर पिंजरा है।
ज़िंदगी एक पैराशूट से गिरने का सफ़र है, न कि वह जो तुम समझते हो कि यह है।
तो चलो गिरें—अपनी ऊँचाइयों से अपनी गहराइयों तक, हवा में ख़ून के दाग़ छोड़ते हुए; ताकि कल साँस लें जो इसमें, वे विषाक्त हो जाएँ।
अपने भीतर, अपने बाहर, तुम ऊँचाई से निचाई तक गिरोगे, यही है तुम्हारा भाग्य, तुम्हारा दुखद भाग्य। जितनी ऊँचाई से तुम गिरोगे, उतनी ही ऊँचाई तक तुम वापिस लौटगे, उतने ही लंबे समय तक पत्थर की स्मृतियों में बने रहने के लिए।
हमने अपनी माँ के पेट से या किसी तारे से छलाँग लगाई है और हम गिर रहे हैं।
ओह मेरे पैराशूट, समताप मंडल के एकमात्र सुगंधित गुलाब, मृत्यु का गुलाब, मृत्यु के तारों के बीच झरता हुआ बहता है।
क्या तुमने इसे सुना है? यह बंद संदूक़ों की भयावह आवाज़ है।
मुक्त करो अपनी आत्मा को बाहर निकलो और साँस लो। एक आह से तुम वह द्वार खोल सकते हो, जिसे बंद करने में एक तूफ़ान लगा था।
यह रहा तुम्हारा पैराशूट, अदेखा-सा अद्भुत।
यह रहा तुम्हारा पैराशूट, कवि, उतना ही अद्भुत जितना गहराई के आकर्षण।
यह रहा तुम्हारा पैराशूट, जादूगर, जिसे तुम्हारा एक शब्द पराशॉट2यहूदियों द्वारा ‘नाम जाप’ करने का एक धार्मिक अनुष्ठान। में बदल सकता है, उस बिजली की कौंध-सा अद्भुत जो स्रष्टा को ही अंधा कर देना चाहती है।
तुम्हें किसका इंतिज़ार है?
यहाँ है उस उदासी का रहस्य जिसने मुस्कुराना भुला दिया।
पैराशूट दरवाज़े से बँधा प्रतीक्षा कर रहा है, जैसे अंतहीन दौड़ में भागने वाला घोड़ा।
अभिषेक अग्रवाल मूलतः अध्ययन-वृत्ति के जागरूक व्यक्ति हैं। वह ‘संभावना प्रकाशन’ के संचालक-संपादक हैं। उनका अनुवाद-कार्य कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे sambhavna1972@gmail.com पर संवाद संभव है।