कविताएँ ::
सुधांशु फ़िरदौस

सुधांशु फ़िरदौस, गंडक (सदानीरा) तट, सिंगाही, मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार, भारत

मूर्च्छा

एक मरता हुआ
कुत्ता था प्यार

मैं उसके पास गया
उसने मुझे काट लिया

होश

भेड़ ही भेड़िया है
दोस्त ही भेदिया है

जलाए रखना मशाल
जागते रहना दिन-रात

जो बग़ल में सोया है
वही हत्यारा है

उपेक्षा

जितने रंग हैं
उतनी तितलियाँ

जितने दुःख हैं
उतनी स्त्रियाँ

अनंत मैत्री
अनंत करुणा का साधक
मैं
किस पारमिता में रखूँगा
तुम्हारी सारी क्रूरता

प्रतिबिम्बन

सुंदर दोस्त
सरल भावनाएँ
उड़ जाते हैं कपूर की तरह

कठिन दोस्त
जटिल भावनाएँ
छूटकर भी नहीं छूटते

अँधेरा बुलाता अँधेरे को
रुग्णता दूसरी रुग्णता को
जानवरों में एक मनुष्य ही
दिखाता फिरता है अपना घाव
लगाता रहता इश्तेहार
बाक़ी किसी गुफा-कंदरा में
छिप करते आराम

अधैर्य से अशांत मन
दुख की एक नदी से बचता है
तो कूद पड़ता है दुखों के सागर में

इस आवागमन के लिए
ज़रूरत नहीं किसी जन्म या मृत्यु की
काशी डूबो या नहाओ संगम
मिलती है मन को वही अभ्यस्त कुरूपता

देह-रोग वस्त्र बदलने से नहीं मिटता
काया-विनिमय से नहीं मिलती
आत्मा की निरुजता
मेरे यथार्थ से ज़्यादा सच्चे हैं मेरे सपने
परिस्थितियाँ नहीं—
दुनिया में मेरा चयन ही
ज़ाहिर करता है मेरा किरदार

जब भी चढ़ती है भावना की बाढ़
प्रकट होती है अभ्यंतर की सारी विद्रूपता
किसी शाम बैठे दीखते एक ही शाख़ पर
मन-जंगल के
सभी जानवर

ऋतु-व्युत्क्रम

कहाँ वसंत!
अब तो हेमंत में ही
खिलने लगे सरसों के फूल
कुटरू-कुटरू करता है
जामुन-डाल पर वसंता

उम्र से पहले ही
लड़कियाँ हो जा रहीं गर्भवती
लड़के बनते जा रहे अपराधी

दुर्लभ हो गई सहृदयता
कवियों में भी दिखने लगी क्रूरता

भंग

मेरे घर में
एक भी आईना नहीं था
उसके घर में था एक

एक रात स्वप्न में
उसे देखा
किसी और के साथ
उसी आईने में
जिसमें कभी वह
खड़ी हुई थी
मेरे साथ

उस रात ऐसी नींद उचटी
लगा जन्मों की मूर्च्छा टूटी

अब मेरे घर में
जिधर देखूँ
आईना ही दीखता है

बोध

भासता मृत्यु को
कवि को विस्मृत होते देखता
स्वप्न में जागता—
जागता स्वप्न देखता
कौन लिखता
कौन पढ़ता

कैसी विप्रलम्भा!
किसी से क्या कहता
छल भी उसका
छल नहीं लगता

मैत्री

अमंगल महबूब की कामना है
आशिक़ सदा मंगल चाहता है

मेरी कविता—
जो चले गए उनके लिए विदाई का गान
जो हैं उनके लिए रात्रि का ध्यान
जो कभी मिले ही नहीं
उन्हें दूर का प्रणाम

दुर्लभ वे थे
जो जीवन में थे
और नहीं भी थे
उनका सबसे ज़्यादा
मानता हूँ एहसान

आत्म-रमण

ओसाई कार्तिक की सुबह
विवर्ण चाँद अपनी बची-खुची शुभ्रता
सूरज को सौंप
बादलों में मुँह छिपाए अस्ताचल को
जा रहा झटकता

विषण्ण
बे-आवाज़
झर रही पत्तियों से
निस्संग आँवले की डाली
ओस से भीगे अपने बिंबों को देख
ख़ुद को चूमने की चाह में विमुग्ध
उमग रही—
किसी निष्ठुर
आत्मरत
नायिका की तरह

अपनी पत्तियों के घटाटोप से बाहर
झाँकने लगे हैं मौक़ा देख अर्जुन के फल
कालिदास का प्रिय सप्तपर्णी इस युग में
शैतान वृक्ष रूप में कमा रहा नाम
समय के साथ शब्द कर लेते हैं अर्थ-विपर्यय
त्याग देते हैं शब्दों को
विदीर्ण वस्त्र की तरह
उनके अर्थ
आत्मा बदल लेती है चोला
जीवन बदल लेता है भुलावा
आज जो मेरा पता
वहाँ कल नहीं मिलूँगा
कल कहाँ रहूँगा कोई नहीं जानता

ऊपर से आभासित होता है—
सब कुछ कितना स्थूल
बँधा-बँधा
रुका-रुका
अंदर बह रहा है एक निर्बाध प्रवाह
तुझ-से-मुझ-में-मुझ-से-तुझ-में
पूर्वराग के नायक
पाठांत में हो जाते हैं प्रतिनायक
काल की शिला पर सब विलुलित
उत्पाद-नष्ट-नष्ट-उत्पाद

चवर के डरेर पर चलित ध्यान से गुजरते
नव अंकुरित गेहूँ के खेतों में बैठे बगुलों की—
उजास से भरी आँखें
पुष्ट कर रही हैं मेरी अनंत मैत्री!

निर्जरा

चढ़ रहा है दिन
धूप की गर्मी से फटने लगी
आँगन में काई की परत
रात भर रस चूसकर आघाई चीटियाँ
प्रियतम से चिपकी किसी विलासिनी की तरह—
नहीं त्याग पा रहीं मधुमालती

पौ फटते ही आकर
अड़हुल पर बैठ गई काली तितली
मुझे याद आ रहा है
भोर के चुम्बनों से भीगी तुम्हारी गर्दन का तिल

अपनी प्रार्थनाएँ हैं
अपनी बेचैनियाँ

कोई देखता है फूल
कोई तोड़ता है कलियाँ

ऐसे ही कितने जन्म
ऐसे ही कितने स्वप्न
सुख-दुःख के भाव
स्मृतियाँ
धूप-छाँह की छाया-प्रतियाँ

महसूस करता हूँ
इस तितली जीवन की बेचैनी
उम्र गुज़री है
फूल-फूल
पत्ती-पत्ती
डाली-डाली

पहले भटकता है आदमी तलाश में
फिर भटकता है स्वभाव में
ऐसे ही रात-दिन
ऐसा ही जीवन
पुनरुक्ति!
पुनरुक्ति!!
पुनरुक्ति!!!


सुधांशु फ़िरदौस की कविताएँ तीन साल सात महीने छब्बीस दिन के बाद आज प्रकाशित हो रही हैं। इससे पूर्व—उनकी कविताओं की पहली किताब ‘अधूरे स्वाँगों के दरमियान’ के बाद संभव हुईं—उनकी कविताएँ ‘सदानीरा’ पर ही प्रकाशित हुई थीं—आपदा-दुर्दिनों में। वह बुद्ध पूर्णिमा थी—जब सुधांशु की ‘ध्यान’, ‘धारणा’, ‘प्रतीक्षा’, ‘प्रार्थना’, ‘अभिनिष्क्रमण’ शीर्षक कविताएँ अंतिम बार प्रकाशित हुईं और उनके प्रकाशित होते ही उसी रोज़ हमारे एक अत्यंत प्रिय व्यक्ति की असमय मृत्यु ने हिंदी साहित्य समय को संतप्त कर दिया। इस दुःख में कवि ने स्वयं को प्रकाशन से विरत किया और इस बीच जीवन में शोक—प्रेम और उपलब्धियों—के साथ-साथ चलता रहा। कवि ने धीरे-धीरे सभी सोशल नेटवर्किंग साइट्स और व्हाट्सऐप आदि से भी ख़ुद को दूर किया। इस दूरी में मिले विवरण अभी गंभीर रचनात्मक शक्ल ले रहे हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ इसकी बस एक बानगी भर हैं। इसमें थोड़ा-सा पुराना अब भी शेष है, लेकिन इस दूरी में कवि ने स्वयं को बहुत नया किया है; इसका दृश्य भी यहाँ उपस्थित है। कवि से sudhansufirdaus@gmail.com पर बात की जा सकती है। कवि से और परिचय के लिए यहाँ देखें : इन दिनों उदासी कोई हीर हैमेघदूत विषाद

3 Comments

  1. Bhupal जनवरी 2, 2024 at 6:03 पूर्वाह्न

    कवि का जन्मदिन शुभ हो!

    Reply
  2. अखिलेश सिंह जनवरी 2, 2024 at 7:33 पूर्वाह्न

    बहुत शानदार कविताएं लिखीं सुधांशु भाई ने। उपमाएं बहुत जोरदार हैं उनके पास।

    Reply
  3. वसुंधरा पाण्डेय जनवरी 8, 2024 at 11:11 पूर्वाह्न

    प्रिय सुधांशु को जन्मदिन की अनंत शुभकामनाएं,खूब रचें,निरोग रहें,वापसी की कामना है।
    आज ही मैं सुधांशु को ढूंढ रही थी,जबकि मैं भी फेसबुक पर ढाई तीन साल के अंतराल में आई हूं.. कोरोना काल ने बहुतों को लील लिया ..

    किसी किसी खास का जाना हमे भीतर तक भेदता है इस भेदन में कुछ और महाकाव्य प्रस्फुटन हो तो क्या ही कहने बस रच डालो..
    कविताएं वाकई बहुत अच्छी हैं, पुनः जन्मदिन की अनंत शुभकामनाएं 💐

    Reply

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