गद्य ::
प्रियंवद
बी.ए. में अंग्रेजी साहित्य पढ़ते हुए तीन या चार साल बड़ी और बेहद सुंदर अध्यापिका ने प्रेम के विभिन्न स्तरों को व्यक्त करने वाले तीन शब्दों का महीन फर्क और सर्तक प्रयोग सिखाया था— ‘लव’, ‘डोट’ और ‘एडोर’. जीवन में ‘एडोर’ का प्रयोग अब तक एक ही बार किया था.
संभवतः सत्तर के दशक के शुरुआती सालों के दिन थे. हमारे हाथ एक नया एल.पी. (बड़ा रिकार्ड) लगा था, ‘आइ राइट आइ रिसाइट’. इसमें मीना कुमारी की ग़ज़लें और नज़्में उनकी अपनी ही आवाज में थीं. इसे सुनने की तैयारी की गई. तैयारी मामूली नहीं थी. न ही उत्तेजना और उत्सुकता. रिकार्ड प्लेयर का इंतजाम किया गया. रात गिरने तक सारे काम खत्म कर लिए गए थे. एक छोटे कमरे की बाहर की तीन सीढ़ियों पर हम बैठे थे. मैं, मित्र और उसकी तीन बहनें. बारिश खत्म ही हुई थी. नींबू के पेड़ की गंध अभी बची हुई थी. हममें से कुछ सीढ़ियों पर थे, कुछ बाहर की खुली जगह पर. कमरे के अंदर रिकार्ड प्लेयर रखा था. सारे दरवाजे और खिड़कियां खुली थीं. सामने के छोटे से बगीचे की घास गीली थी. हवा में बारिश की नमी, पत्तों की सरसराहट, हल्की कंपकंपी और एक गीलापन था. कुछ रात और कुछ बादलों के कारण अंधेरा गहरा गया था. हम उसके अंदर थे. अनायास एक चुप्पी छा गई. धीरे-धीरे एक आवाज गूंजना शुरू हुई थी. नोक की तरह ऊपर को उठती… शिराओं को छीलती, अंदर तक धंसती हुई :
आगाज तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वह नाम नहीं होता!
जब जुल्फ की कालिख में घुल जाए कोई राही
बदनाम तो होता है गुमनाम नहीं होता
इस आवाज की गहराई, थरथराहट और उदासी बिलकुल गैरमामूली थी :
टुकड़ा टुकड़ा दिन बीता और धज्जी धज्जी रात मिली
जिसका जितना दामन था, उसको उतनी सौगात मिली
‘आय एडोर हर’ मैंने अपनी घुटती हुई फुसफुसाहट सुनी थी.
मुझे नहीं पता मैंने यह क्यों कहा था. मीना कुमारी के लिए मेरे अंदर हमेशा एक अलग भावना रही थी, बावजूद उनकी समकालीन मधुबाला, वैजयंती माला, सुचित्रा सेन, नूतन और अत्यंत विशिष्ट सौंदर्य की लीला नायडू (हालांकि तब तक शायद इन्होंने दो फिल्मों में ही अभिनय किया था. बाद में अंग्रेजी के मशहूर लेखक डॉम मॉरेस से उनकी शादी हुई थी.) के दृष्टांतों में वर्णित शास्त्रीय सौंदर्य, तराशे हुए चेहरे, भावप्रवण आंखों और उच्च अभिनय के प्रति गहरी प्रशंसा या मुग्धता के. शायद इसलिए, कि मीना कुमारी ने अपने अभिनय में जिस पारंपरिक भारतीय नारी के चरित्र जिए और वे जिस त्याग, आदर्श, निष्ठा, सहनशीलता, ममता, पवित्रता आदि के धागों से गुंथे-बुने जाते थे, वे कहीं मेरे मन के आस-पास की उस नारी छवि को छूते थे जिसे गढ़ने में बंगाली लेखकों की बड़ी भूमिका थी. खासतौर से विमल मित्र, ताराशंकर बंद्योपाध्याय, शंकर आदि की. इस छवि को गाढ़ा किया दुर्गा पूजा के गंधमय धुएं, ढाक की लय और आरती के दीपों को हाथों में लेकर किए जाने वाले नृत्य ने, गंगा में विसर्जन के समय धीरे-धीरे जल में तिरोहित होती दुर्गा की प्रतिमाओं ने और इन सबके बीच दिखती बंगाली लड़कियों ने, जो सीधे उपन्यासों के पृष्ठों से निकलती हुई आती थीं. इसे और गाढ़ा किया दुर्गा पूजा के लगभग चार महीनों बाद ही शिवरात्रि को रात बारह बजे से सुबह छह बजे तक लगातार दिखाई जाने वाली क्लासिक बंगाली फिल्मों, क्यूबा से स्मगल्ड सिगार, आस-पास दस्तक देते वसंत, जमीन पर गिरे सेमल के पांच पंखुरी वाले बड़े कत्थई फूल और उन दिनों बेवजह बनी रहने वाली उदासी ने.
मातृसत्तात्मक समाज की मातृ-पूजा की परंपरा से अब तक अविच्छिन्न बंगाली समाज की इस स्त्री की गरिमा और सम्मोहन को, रवींद्रनाथ की कविताओं ने उस चरम पर पहुंचाया था जहां स्त्री सिर्फ करुणामयी थी, अन्नपूर्णा थी, कल्याणी थी, सबकी रक्षा करने वाली थी, तपस्विनी थी, त्यागी और पवित्रा थी. इस स्त्री में सब कुछ श्रेष्ठ था. इसे दुःख में त्याग का सुख मिलता था. इसके प्रेम में स्मृतियां होती थीं. इसके स्वप्न में समर्पण होता था… सौंदर्य में ममत्व. हर क्षण वह एक निस्पंद आलोक में विचरण करती थी. उसे रचती थी…
तुम तुरंत स्नान करके आई थीं
तुम्हारे लंबे केश भीगे हुए थे
नए शुक्ल वसनों से सजी
ज्योति: स्नाता मूर्तिमती उषा के समान
तुम अकेली ही हाथों में फूलों की डाली लिए
पूजा के निमित्त नए फूल चुन रही थीं
[ रवींद्रनाथ टैगोर : कच देवयानी ]
कौन है जिसने मीना कुमारी को इस रूप में, न जाने कितनी बार नहीं देखा होगा?
हो सकता है उस समय यह मेरा कैशोर्य मोह रहा हो, मेरी तर्कहीन आसक्ति रही हो, काल निरपेक्ष विवेकहीनता हो, लेकिन आज, (31 मार्च 2013 को भी शायद यह मीना कुमारी की पुण्यतिथि है क्योंकि दूरदर्शन के समाचार चैनल पर उनके गानों की क्लिपिंग्स दिखाई गई हैं और पूरा ‘रंगोली’ कार्यक्रम उन पर केंद्रित है. मैं उनकी पुण्यतिथि की पुष्टि करना नहीं चाहता.) मीना कुमारी के प्रति ये भावनाएं उसी तरह अक्षुण्ण-अक्षरित बने रहने का कोई कारण इसलिए नहीं है, क्योंकि बंगाली स्त्री की उस छवि का सम्मोहन बहुत पहले नष्ट हो चुका है. ‘हिंदी कथा साहित्य में तुरुप के पत्तों की तरह फेंटी जा रही स्त्री-मुक्ति जैसी किसी चीज’ ने स्त्री की उस छवि को पूरी तरह धिक्कृत मान लिया है.
इसके बरअक्स आज मीना कुमारी की आलोचना सिर्फ इसीलिए की जा सकती है, कि उनके द्वारा अभिनीत चरित्र ऐसी ‘स्त्री-विरोधी’ छवि रचते हैं, जहां स्त्री के जीवन में सिर्फ आंसू हैं. दया की भीख है, मूक समर्पण है. हर समय पुरुष सत्ता के आगे की जाने वाली दयनीय गिड़गिड़ाहट है. ऐसे ही चरित्रों को बार-बार दोहराना उनके अभिनय को ‘मैलोड्रामा’ जैसी किसी श्रेणी में ढकेल देता है. शायद अब लोग उसमें सिवाय गहरी ऊब के कुछ नहीं पाएंगे.
इसके साथ यह सच भी है कि पिछले पचास वर्षों में भारतीय और अंतरराष्ट्रीय सिनेमा ने बहुत प्रगति की है, कला के रूप में भी और सर्वाधिक लोकप्रिय व सशक्त माध्यम के रूप में भी. संभव है वर्तमान सिनेमा की परिभाषाएं, उद्देश्य, आलोचना शास्त्र, अभिनय शैली, तकनीक और बहुतायत के बीच मीना कुमारी के अभिनय को पारसी थिएटर की लाउडनेस का थोड़ा ‘मॉडीफाइड’ रूप या नौटंकी की परिष्कृत और संयमित शैली का दर्जा दे दिया जाए. इस सबके विरुद्ध कोशिश करके यह तर्क भी दिया जा सकता है कि किसी के भी मूल्यांकन का यह गलत तरीका है कि वर्तमान के ‘टूल्स’ से उसका विच्छेदन किया जाए. उसे जांचा-परखा जाए. सही तरीका तो यही होगा कि उस समय को, उस समाज को, उस मनुष्य को समझने के लिए उस समय के टूल्स ही लेने चाहिए. उस समय के शक्ति-केंद्रों को रचने वाली प्रक्रियाओं को समझना चाहिए.
हिंदी सिनेमा स्थापित पारसी थिएटर और लोकप्रिय नौटंकी शैली से निकलता हुआ आया था. समाज में स्त्री की वही छवि, वही चरित्र स्वीकार्य थे जिन्हें मीना कुमारी अभिनीत करती थीं, और जो अक्सर विशेष रूप से उनके लिए ही लिखे जाते थे. लेकिन बात अभी भी इतनी सरल और एकरैखीय नहीं है कि इस तरह के दो-चार वाक्यों और तर्कों से आर-पार का कोई फैसला कर दिया जाए. यह सरलता से स्वीकार नहीं किया जा सकता कि यह सिर्फ एक कमजोर और अप्रांसगिक हो चुकी अभिनेत्री को जिद की हद तक महान मानने और बनाने की आसक्ति है. यहां बात साफ होनी चाहिए. मोह और मीना कुमारी की प्रतिभा में सच क्या है? संशय, दुविधा और अंतरद्वंद्व बढ़ने लगता है. शव-विच्छेदन जरूरी है. मैं परेश कामदार को फोन मिलाता हूं.
परेश कामदार ‘खरगोश’ के निर्देशक हैं. मुझसे ‘खरगोश’ की स्क्रिप्ट लिखवाने से पहले उन्होंने मुझे विश्व सिनेमा की पंद्रह पुरस्कृत या कहें श्रेष्ठ फिल्में दिखाई थीं. इसी सिलसिले में मैंने पहली बार अंद्रेई तारकोवस्की की ‘द स्टॉकर’ देखी थी! परेश ने रोचक बात बताई थी कि पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में जब नए लड़के आते हैं और उनमें से जो अपने को फिल्मों का बड़ा पारखी या माहिर समझते हैं, हम उन्हें सबसे पहले तारकोवस्की की कोई एक फिल्म दिखाते हैं. उनका सारा गर्द-ओ-गुबार छंट जाता है. परेश अक्सर लंबे समय तक पढ़ाते रहते हैं. कभी सुभाष घई के ‘व्हिसलिंग वुड्स’ में, तो कभी पुणे में एफ.टी.आई.आई. में! परेश सिनेमा की बारीकियों को समझते हैं. अंतरराष्ट्रीय सिनेमा को, उसके इतिहास और विकास को भी समझते हैं. बाद के दिनों में मैंने ‘थ्री कलर ब्लू’ देखी थी. जटिल फिल्म थी, लेकिन बहुत डूबकर देखी थी. परेश को जब मैंने बताया तो उन्होंने कहा कि वह ‘थ्री कलर ब्लू’ पढ़ाते हैं. इसी सीरीज की दो और फिल्में थीं— ‘थ्री कलर रेड’ और ‘थ्री कलर व्हाइट’.
‘थ्री कलर ब्लू’ की एक विशिष्ट बात परेश ने बताई थी कि फिल्म के जिस फ्रेम में भी नायिका आती है, वहां किसी दूसरे की कोई उपस्थिति नहीं है. बाद में जब इस सूत्र को पकड़कर दुबारा फिल्म देखी तो फिल्म ज्यादा खुल गई थी. आनंद भी बढ़ गया था. बाद में इस सीरीज की शेष दोनों फिल्में भी देखी थीं. परेश अभिनय कला खूब समझते हैं. मणि कौल की शैली के निर्देशक हैं, इसलिए जटिल हैं. अब तक कुल तीन फिल्में निर्देशित की हैं. एडिट बहुत की हैं. जाहिर है मुंबई में ज्यादा काम नहीं मिलता. परेश फोन पर हैं :
‘‘मीना कुमारी के अभिनय के लिए क्या कहेंगे?’’ मैं पूछता हूं.
‘‘यूनीक.’’ परेश कहते हैं.
‘‘क्यों?’’
कुछ क्षण चुप्पी के बाद आवाज आती है :
‘‘इसलिए कि दूसरे अभिनेता ‘कॉज एंड इफेक्ट’ से प्रेरित चरित्र करते हैं, उससे प्रभाव पैदा करते हैं! चरित्र बनने की कोशिश में वे चरित्र के अंदर जाकर उसे प्रोजेक्ट करते हैं. मीना कुमारी के लिए ‘कॉज एंड इफेक्ट’ का कोई मतलब ही नहीं था. घटनाक्रम या दूसरे चरित्रों का कोई मतलब नहीं था. इसलिए, क्योंकि वह अपना चरित्र ‘प्रोजेक्ट’ नहीं ‘प्रेजेंट’ करती थीं. (यहां मैं दोनों का फर्क बहुत स्पष्ट नहीं समझ पाता. शायद ‘प्रोजेक्ट’ और ‘प्रेजेंट’ कोई तकनीकी शब्दावली हो.) उनका अभिनय ‘नैचुरल’ नहीं था. उन्होंने अपनी एक ऐसी विशिष्ट शैली विकसित की थी जो दर्शक को ‘सबकांशस’ लेवल पर झकझोरती थी. आप जो पर्दे पर देख रहे हैं, उससे परे जाकर, उससे अलग भी वह आपके अवचेतन को छूती थी और वह भी बहुत सटल (अति सूक्ष्म) तरीके से.’’
‘‘क्या यह करना कठिन होता है?’’
‘‘बहुत कठिन.’’
‘‘आज की फिल्मी दुनिया के लोग मीना कुमारी को किस तरह देखते हैं?’’ मैं जिज्ञासु हूं कि कहीं मैं अकेला ही तो नहीं!
‘‘बहुत सम्मान से. फिल्म इंडस्ट्री में किसी को कभी इतना सम्मान नहीं मिला.’’
‘‘क्यों?’’ मैं फिर पूछता हूं.
‘‘एक तो इसलिए कि उन्होंने जो चरित्र जिए वे सब सम्मान के पात्र थे. (इस अत्यंत महत्वपूर्ण सूत्र पर ध्यान दें) दूसरा इसलिए कि वे देखने वालों के अंतर्मन तक पहुंच जाती थीं. यह ताकत किसी अन्य में नहीं थी. तीसरा, उनका अपना जीवन और अभिनय की एकरूपता. चौथा, उन्होंने अपनी एक ‘नॉन रियलिस्टिक’ शैली विकसित की थी जो बहुत कठिन काम है.’’
परेश की बातों से मैं कुछ आश्वस्त होता हूं… निश्चिंत भी. नहीं… यह सिर्फ मोह नहीं है… बात कुछ और भी है. क्या है, समझने के लिए स्मृतियों को, मन की सलवटों को खोलता हूं. मुझे लगता है मैं अपना पक्ष अब मजबूती और तर्क के साथ रख सकता हूं. बात की तह तक पहुंच सकता हूं.
मीना कुमारी भारतीय सिने जगत की या शायद विश्व सिने जगत की अकेली ऐसी नायिका थीं जो पर्दे पर आते ही नायक की सत्ता, उपस्थिति यहां तक कि अस्तित्व को भी नगण्य कर देती थीं. उन्होंने सबके साथ काम किया : अशोक कुमार, भारत भूषण, दिलीप कुमार, राज कपूर, राजकुमार, प्रदीप कुमार, रहमान, धर्मेंद्र, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त और भी न जाने कितने होंगे. इनमें अशोक कुमार और दिलीप कुमार बहुत बड़े नाम थे. ये पर्दे पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ते थे. मीना कुमारी ने अशोक कुमार के साथ ‘आरती’, ‘एक ही रास्ता’, ‘भीगी रात’, ‘चित्रलेखा’, ‘परिणीता’, ‘बहू बेगम’ और भी कई फिल्में कीं. दिलीप कुमार के साथ ‘यहूदी’ के अलावा ‘कोहिनूर’ और ‘आजाद’ में हल्की-फुल्की कॉमेडी की. राज कपूर के साथ ‘शारदा’ में मार्मिक चरित्र जिया था. ऊपर के सारे नायक या दूसरे भी, अपने समय के बड़े नायकों में शुमार होते थे. उनके साथ बहुत से विशेषण जोड़े जाते थे. ये सब बॉक्स ऑफिस पर भी और अभिनय शैली में भी लोकप्रिय थे. इनके आगे बहुधा नायिकाएं कमजोर दिखती थीं, सिवाय मीना कुमारी के. इनमें से कोई भी मीना कुमारी के साथ फिल्म में काम करके उनसे ऊपर नहीं उठा है. शायद अपवाद के रूप में ‘काजल’ फिल्म का गाना ‘छू लेने दो…’ है, जिसमें राजकुमार मीना कुमारी से बेहतर दिखते हैं. वह भी इसलिए कि उस दृश्य में मीना कुमारी के पास करने के लिए कुछ था ही नहीं, खासतौर से उनकी सबसे बड़ी ताकत ‘संवाद’ उनके पास नहीं थे. उधर राजकुमार शराबी के रूप में अपने ‘फोर्टे’ में थे. इसके अलावा साहिर की शानदार शाइरी थी और पूरा गाना राजकुमार पर ही केंद्रित था.
मीना कुमारी की यह चुनौतीविहीन सत्ता, यह न टूटने वाला जादू इसलिए था क्योंकि अपने अभिनय से उन्होंने नारी की ऐसी खास छवि गढ़ी थी जिसके आगे ‘पुरुष’ मात्र ही बौना दिखता था. यह छवि वही थी जिसका पहले जिक्र हुआ है. इसे समझना और आसान होगा यदि यह समझा जा सके कि दुनिया में मातृ-सत्ता की सबसे पुरानी सामाजिक संरचना, सबसे पुराने धर्म, सबसे पुरानी परंपराएं और मान्यताएं, जो आज भी अधिकांश धरती पर किसी न किसी रूप में जीवित और स्वीकार्य हैं, जो आस्थाओं में पल रही हैं, खासतौर से भारत में, मीना कुमारी उनका प्रतिनिधित्व करती थीं. उनकी जड़ें मातृ-सत्ता की उन बहुत गहरी आस्थाओं की जड़ों से जुड़ी थीं. इसीलिए वह सम्मान पाती थीं, इसीलिए वह ‘पुरुष-सत्ता’ को बौना कर देती थीं, इसीलिए वह बड़ी हो जाती थीं, क्योंकि वह अनायास ही इतिहास, समाज, मिथक परंपरा, उत्सवों के विराट संदर्भों में निहित मातृसत्तात्मक अवधारणा को जीवित या प्रतिबिंबित करती थीं. यही दर्शक का वह ‘अंतर्मन’/ ‘सबकांशस’ था जिसका जिक्र परेश ने किया है. यही वह मूल बीज था जिसके कारण परदे पर आते ही सब कुछ उनकी मुट्ठी में आ जाता था. ध्यान दें कि उन्होंने कभी कोई नकारात्मक चरित्र नहीं किया. ऐसा भी नहीं जो नारी की छवि को कहीं से भी धूमिल करता हो. उसकी अंतिम सत्ता और शक्ति को दुर्बल दिखाता हो. इसीलिए मीना कुमारी ने अपने पूरे फिल्मी जीवन में, किसी भी रूप में देह को भी प्रस्तुत नहीं किया, उसका सहारा नहीं लिया. हालांकि उन्होंने नृत्य किए, शोख चरित्र किए, लेकिन न तो कभी किसी संवाद में कोई हल्कापन रहा, न कहीं देह का अंश मात्र भी प्रदर्शन. उनके पर्दे पर आते ही एक ‘वातावरण’ बन जाता था. उससे जन्मते त्रासदी, प्रेम, शक्ति, दृढ़ता का तिलिस्म फिर टूटता नहीं था. वातावरण रचने की यह क्षमता उनकी समकालीन किसी अभिनेत्री में नहीं थी. हालांकि उस समय की बहुत सी नायिकाओं ने देह का आश्रय नहीं लिया, लेकिन वे देह के सौंदर्य या आकर्षण को सायास प्रस्तुत करती थीं. नरगिस, नूतन (फिल्म ‘यादगार’) और वैजयंती माला ने स्वीमिंग कॉस्ट्यूम पहने, तो मधुबाला अपनी देह के आकर्षण को खूब अच्छी तरह समझती थीं और सूक्ष्मता के साथ उसे प्रस्तुत करती थीं. (‘दो उस्ताद’ में उनका एक स्नान-दृश्य है.)
ऐसा नहीं था कि मीना कुमारी चरित्र की जरूरत के अनुसार दैहिकता का प्रस्तुतिकरण नहीं कर सकती थीं. ‘साहब बीवी और गुलाम’ के गाने ‘न जाओ…’ में वे बेहद ‘सेंसुअस’ लगी हैं. उन्होंने इसकी पूरी कोशिश की है. रहमान को लुभाने के लिए उनकी मांसल देह रहमान को हर तरह का आमंत्रण दे रही है, लेकिन वह सिर से पांव तक ढकी है. इस पूरे गाने में सिर्फ दैहिक आमंत्रण है, नायिका की स्वयं की दमित, अतृप्त कामुक उत्तेजना है और मीना कुमारी यह सब सिर्फ आंखों से प्रस्तुत कर रही हैं. भंगिमाओं में व्यक्त कर रही हैं. इस गाने में वह बेहद सुंदर भी लगी हैं. कैमरा इस उत्तेजक सौंदर्य को बार-बार क्लोज अप में दिखाता है. कामोद्दीपक होते हुए, सुंदर होते हुए, मांसल होते हुए भी, लेकिन कहीं किसी जगह देह का कोई अंश अनावृत्त नहीं है. ऐसा ही दृश्य ‘चित्रलेखा’ में भी है. यहां मीना कुमारी ‘कुमारगिरि’ बने अशोक कुमार को सिड्यूस करती हैं. यहां भी वे बहुत सुंदर दिखती हैं. इस दृश्य में अगर वह थोड़ा-बहुत अनावृत्त होती हैं तो हाथों और कंधों पर. वस्तुतः मीना कुमारी को सिर्फ चाहना होता था, फिर वे अपनी आंखों से, हल्के भारी होंठों से, बेहद घने लंबे बालों से, अभिनय से, संस्कृत साहित्य में वर्णित नायिका भेद की किसी भी नायिका के, किसी भी रूप को रच सकती थीं. उनकी आवाज की इसमें बहुत बड़ी भूमिका थी. ऐसी आवाज सिने जगत में फिर नहीं सुनी गई. मोमिन का एक शे’र है :
उस गैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक
शोला सा लपक जाए है आवाज तो देखो
मीना कुमारी की आवाज में शोले की लपक नहीं थी. (मलिका पुखराज और बेगम अख्तर तो हैं हीं, शोले की यह लपक किशोरी अमोनकर के ‘पपीहा मत कर…’ में भी महसूस की जा सकती है.) मीना कुमारी की आवाज ठंडी, गहरी झील में धीरे-धीरे उतरती हुई आवाज थी. यह आवाज ऊंचे गुंबद से टकराकर लौटती थी, यह मृदंग की थाप से जन्म लेती थी, यह नदी में घट डुबोने से पैदा होती थी. इसके हर रेशे से उदासी, दर्द और एक गैर मामूली तड़प रिसती रहती थी. उस रात जब हरसिंगार के सफेद फूल बारिश की भारी बूंदों से टूटकर नीचे बिखरे हुए थे, और नींबू के पेड़ की शाखों पर बैठे दो परिंदे ऊंघ रहे थे, और हममें से हर कोई दूसरे की आंखों में सीधे देखते हुए डर रहा था, यही आवाज छत की मुंडेरों को पार करती हुई ऊपर उठ रही थी :
चांद तनहा है आसमां तनहा
दिल मिला है कहां कहां तनहा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे ये जहां तनहा
ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म ‘चार दिल चार राहें’ में मीना कुमारी ने एक हरिजन लड़की का किरदार निभाया था. अब्बास की आत्मकथा ‘आय एम नॉट एन आइलैंड’ का एक अंश मीना कुमारी और कमाल अमरोही के शुरुआती संबंधों पर रोशनी डालता है. इस पर भी कि मीना कुमारी का काम करने का तरीका कैसा था, अभिनय की दुनिया में वह किस तरह जीती थीं.
यहां ध्यान दें कि ख्वाजा अहमद अब्बास उस समय की फिल्मी दुनिया का महत्वपूर्ण हिस्सा थे. उन्होंने ‘आवारा’ की कहानी और संवाद लिखे थे जिसने हिंदी फिल्म जगत को नई दिशा दी थी. रूस जाने वाले उस पहले भारतीय फिल्मी प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व किया था जिसमें ‘आवारा’ दिखाई गई थी और रूस में हलचल मच गई थी. साथ ही वह ‘पी.डब्ल्यू.ए.’ और ‘इप्टा’ से बहुत संलग्नता और सक्रियता से जुड़े थे. विद्वान, अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पत्रकार, उर्दू के लेखक और राजनैतिक रूप से कम्युनिस्ट पार्टी के अत्यंत जागरूक, सक्रिय और समादृत कार्यकर्ता थे. मेरे अग्रजों को ‘बिलट्ज’ की और उसके आखिरी पन्ने की याद जरूर होगी जिसमें अर्द्धनग्न लड़की की तस्वीर के साथ अब्बास का कॉलम सालों तक निकला था.
अब्बास का उपन्यास ‘चार दिल चार राहें’ उनकी बीमार पत्नी ने पढ़ा. इसके बाद वह क्या लिखते हैं, कृपया ध्यान से पढ़ें :
”यह बहुत अच्छा है’’ उसने (पत्नी ने) कहा कि अगर वह तैयार हो जाती हैं तो तुम हरिजन लड़की ‘छावली’ की भूमिका के लिए मीना कुमारी को ही लेना.
मैंने कहा कि मैं उन्हें नहीं जानता, लेकिन मेरी पत्नी मीना कुमारी की बहुत बड़ी प्रशंसिका रही थीं, न केवल उनके अभिनय की, बल्कि उनकी संवेदनशील क्षमता और उनकी साहित्यिक रुचि और ग़ज़ल लिखने की स्वाभाविक प्रवृत्ति की भी, तो मैंने कहा कि मैं कोशिश करूंगा.
मैंने उपन्यास की पांडुलिपि मीना कुमारी को इस नोट के साथ भेज दी कि इस पर फिल्म बनाने का विचार है, इसलिए वह इसे पढ़ें और अपनी राय दें.
मैं अपने पुराने मित्र कमाल अमरोही (जिन्हें सालों पहले मैंने बांबे टॉकीज के हिमांशु रॉय से मिलवाया था) द्वारा रात के खाने पर आमंत्रित किया गया, यह कहते हुए कि ‘बेगम साहिबा’ मुझसे ‘चार दिल चार राहें’ के बारे में बात करना चाहती हैं. इस बीच कमाल अमरोही भी उपन्यास पढ़ चुके थे. जैसे ही मैं पहुंचा, वे दोनों कहानी की प्रशंसा करने में बहुत उदार थे, खासतौर से चरित्रों के बारे में जिनके लिए उन्होंने कहा कि वे प्रतीकात्मक होते हुए भी जिंदगी के लगते हैं.
‘‘तीन लड़कियों में से आप मुझे कौन-सा किरदार देना चाहते हैं?’’ मीना ने पूछा.
मैंने कहा कि आप तीनों में से किसी भी चरित्र को समान विश्वास के साथ अभिनीत कर सकती हैं.’’ (ध्यान दें)
तीन स्त्री चरित्र थे. एक हरिजन लड़की, एक वेश्या (जिसे एक नवाब और उसका मोटर ड्राइवर दोनों प्यार करते थे और उसे निर्णय करना था) और तीसरी एक ईसाई आया..
‘‘लेकिन मैं हरिजन लड़की की भूमिका करना चाहूंगी.’’ (ध्यान दें यह 1957 के आस-पास की बात है— ‘सुजाता’ की नूतन से पहले.)
उन्होंने जो कहा वही हम चाहते थे. लेकिन मुझे डर था कि सितारों को स्वयं को ग्लैमरविहीन करने के प्रति विरक्ति राह में आड़े आएगी, इसलिए मैंने कहा, ‘‘लेकिन आप जानती हैं कि छावली काली है और हमारा विचार उसे काली रखने का ही है.’’
‘‘यह आपके मेकअप मैन पर निर्भर करता है.’’ मीना कुमारी ने बिना दृढ़ता के कहा.
लेकिन कमाल साहब बहुत स्पष्ट थे, ‘‘बेशक, छावली को काला ही रहना है. यही कारण है जिसकी वजह से वह यह भूमिका करना चाहती हैं.’’
मैंने उन्हें बताया कि मेरे पास भारत का सर्वश्रेष्ठ मेकअप मैन पेंदरी जुकेर है जिसे मैंने मास्को में विशेष रूप से दीक्षित किया है और जिसके साथ मैं पहले ही खूबसूरत मीना कुमारी के साफ रंग के चेहरे को कोयले की तरह काले चेहरे में बदलने की समस्या पर बात कर चुका हूं.
‘‘और दूसरे चरित्रों का क्या है?’’ मीना ने मुझसे पूछा.
मैंने स्पष्टता के साथ कहा कि हम उनके साथ शुरू करने के बाद फिर दूसरों को लेंगे, लेकिन मैं केवल एक स्टार का खर्च उठाना ही बर्दाश्त कर सकता हूं, दूसरे नए लोग ही लेने पड़ेंगे.
‘‘नहीं… नहीं अब्बास साहब’’, मीना ने आपत्ति की, ‘‘सभी चरित्रों को निभाने के लिए लगभग बराबर या थोड़ा कम-ज्यादा महत्व के कलाकार ही लीजिए. तब अभिनय में असली मुकाबला होगा.’’
इस तरह मैं फिर स्टार सिस्टम के जाल में फंस गया.
मीना कुमारी के साथ मैंने अपने पुराने दोस्त राज कपूर को लिया. (शम्मी कपूर, कुमकुम, निम्मी (जो उस समय बड़ी स्टार थीं), अजीत, अनवर हुसैन भी फिल्म में थे.)
ख्वाजा अहमद अब्बास आगे लिखते हैं :
चार दिल चार राहें’ की शूटिंग स्नायुतंत्र को तोड़ने वाली धीमी गति से चलती रही. मैं ‘अनहोनी’ और ‘राही’ के बाद स्टार सिस्टम की विशिष्टताएं भूल चुका था और मेरे लिए कुछ सितारों को एक साथ इकट्ठा न कर पाना ही कष्टकारक था. लेकिन मीना कुमारी की सहयोगी भावना और खुशनुमा व्यवहार पूरी स्थिति में एक मुक्तिदायी पक्ष था. कहानी के एक चौथाई हिस्से के आधार पर कमाल साहब ने हमें केवल पंद्रह दिन दिए थे. लेकिन मीना ने मुझसे वायदा किया था कि वह सुबह सात बजे आया करेंगी, जबकि उनकी जरूरत साढ़े नौ पर थी, लेकिन वह इसलिए आती थीं कि स्टूडियो के समय से पहले ही वह पूरी तरह मेकअप करवाकर तैयार रहें. (उन्हें काला करने की प्रक्रिया दो घंटे लेती थी.) पोशाक पहनकर, अपने संवादों कर अभ्यास करके शॉट के लिए तैयार रहती थीं. एक बार मैंने उन्हें हरियाणवी उच्चारण की जटिलताएं समझाई थीं, मुझे उन्हें दोहराना नहीं पड़ा. उन्होंने हर संवाद उसी उच्चारण और उतार-चढ़ाव के साथ बोला. उनके साथ काम करना एक आनंद था और मुझे विश्वास है कि उन्हें भी आनंद आया होगा. एक बार स्टूडियो की एक महिला मित्र ने उनसे पूछा, ‘‘आप अब्बास की यूनिट के लिए इतना पक्षपात क्यों दिखाती हैं? उनमें से किससे आप प्रेम करती हैं?’’ उनका उपयुक्त उत्तर आया, ‘‘क्यों, पूरी यूनिट से.’’
*
परिवार की गरीबी के कारण जन्म के समय मीना कुमारी अनाथालय में रहीं या शायद शुरू के कुछ वर्षों में. आठ वर्ष की आयु से उन्होंने धन के लिए फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया था. पूरा जीवन वह एक सच्चे प्यार की तलाश में तड़पती रहीं. उन्होंने इसे बार-बार, कई जगहों पर ढूंढ़ा, लेकिन मिला नहीं. विवाह नाकाम रहा, प्रेम नाकाम रहे. शराब में डूबकर स्वयं को धीरे-धीरे नष्ट करती हुईं मीना कुमारी ने शाइरी में शरण ढूंढ़ी. मुक्ति चाही. उनकी शाइरी बहुत ऊंचे दर्जे की नहीं है, लेकिन ऐसी भी नहीं है कि उसे अनदेखा किया जा सके :
आबला पा कोई दस्त पे आया होगा
वरना आंधी में दिया किसने जलाया होगा
गुलज़ार से एक बातचीत के बाद मैंने पूछा था कि क्या मीना कुमारी शाइरी की समझ ऐसी थी? उन्होंने कहा कि उसमें से काफी कमाल अमरोही की ठीक की हुई है. उन्होंने एक नाम और लिया जो अब याद नहीं है. मीना कुमारी अपनी डायरी और शाइरी मृत्यु के बाद गुलज़ार साहब के सुपुर्द कर गई थीं. उन्होंने उसे बाद में प्रकाशित भी करवाया था. संभवतः ‘शाख पर बैठी मीना’ के नाम से.
बाद के दिनों में अत्यधिक शराब, बीमारी, दुःख और तनावों से मीना कुमारी की देह भारी और बेडौल हो गई थी. चेहरा भी बड़ा और भरा-भरा दिखता था. गहरा मेकअप करना पड़ता था. समय से पहले आयु दिखने लगी थी. लगभग सोलह साल के अंतराल के बाद कमाल अमरोही ने ‘पाकीज़ा’ फिर शुरू की थी. ‘पाकीज़ा’ में दो मीना कुमारी बहुत साफ दिखती हैं. शुरू के छरहरे बदन वाली मीना कुमारी अंत में एक भरी-पूरी उम्र वाली महिला दिखती हैं. वैसे ‘नूरजहां’ और ‘बहू बेगम’ से ही उनकी उम्र साफ झलकने लगी थी. ‘दुश्मन’ और ‘मेरे अपने’ में उन्होंने बूढ़ी औरत की भूमिका की थी. ‘दुश्मन’ में उस समय के सुपर स्टार राजेश खन्ना थे तो ‘मेरे अपने’ में आगे बनने वाले स्टार शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना थे. दोनों फिल्मों में मीना कुमारी बिना किसी शोर-शराबे के आई थीं.
मीना कुमारी के अंतिम दिन बहुत कष्ट के थे. सबने उनका साथ छोड़ा. वह शराब ज्यादा पीने लगी थीं. स्वास्थ्य निरंतर खराब होता जा रहा था. जीवन में बहुत धोखे खाए थे. धन भी चला गया था. महज 39 साल की उम्र में मीना कुमारी इस दुनिया से चली गईं. उन्हें ‘लिवर सिरोसिस’ हो गया था. ‘पाकीज़ा’ की शूटिंग उन्होंने बहुत खराब सेहत के साथ पूरी की थी. फिल्म में उनको लुंगी इसीलिए पहनाई गई थी, क्योंकि उनके पेट पर बहुत ज्यादा सूजन आ चुकी थी. एक पूरा नृत्य/गाना पद्मा खन्ना पर फिल्माया गया था.
सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर अनेक प्रस्तुतियां हुईं, लेकिन उनके इतिहास में मीना कुमारी का नाम नहीं लिया गया. महत्वपूर्ण फिल्मों की सूची में उनकी फिल्में नहीं थीं. नवकेतन, आर के, गुरुदत्त, बिमल रॉय, वी शांताराम, महबूब, बी.आर. चोपड़ा जैसे निर्देशकों या बैनरों की फिल्मों में भी वह अधिक नहीं दिखतीं. जिन नायिकाओं का जिक्र होता है उनमें मधुबाला, नरगिस, नूतन, वहीदा रहमान, वैजयंती माला प्रमुख होती हैं. नायकों या निर्देशकों की मील का पत्थर मानी जाने वाली फिल्मों में भी वह नहीं हैं. शायद इसलिए कि उनकी फिल्मों ने कहीं भी परंपरा या काल को खंडित नहीं किया. उनके चरित्र क्रांति नहीं करते थे. वे अपने समय के परिवर्तनों का दस्तावेज या छटपटाहट नहीं थे. वे नए स्वप्न नहीं गढ़ते थे. नई दिशा नहीं दिखाते थे. कोई नई लहर, नई प्रवृत्ति पैदा नहीं करते थे. उनकी फिल्मों में समाज, समय और संघर्ष के विभिन्न स्वर नहीं थे. आलोचकों ने इसीलिए उन पर बात नहीं की.
वह ‘ट्रेजडी क्वीन’ के खांचे में बांध दी गईं. लेकिन ट्रेजडी का समय बीत चुका था. स्त्री की पारंपरिक, दयनीय, समर्पित छवि समाज में अस्वीकृत हो चुकी थी. स्त्री के अब अनेक रूप थे. मीना कुमारी इनमें कहीं नहीं थीं. इसीलिए ख्वाजा अहमद अब्बास का प्रसंग चौंकाता है. तब तक बदले हुए नए सिनेमा की बदली हुई फिल्में आ चुकी थीं. ‘आवारा’ से शुरू हुआ यह सिलसिला बीस साल तक नहीं रुका. नए निर्देशक, नए नायक, नायिकाएं, समाज, देश और परिवर्तन के नए स्वप्न और एक नया हाशिए का आदमी, जो न मजबूर था न कमजोर. इनमें मीना कुमारी की जगह कहीं नहीं थी. होनी भी नहीं थी. परंपरा को वहन करने वाले तत्काल के लिए परदे में चले जाते हैं. फिर भी, 1957 में ख्वाजा अहमद अब्बास बेहद मशहूर, सक्रिय, कामयाब फिल्मी हस्ती थे. मीना कुमारी के लिए वे जिन शब्दों और भावनाओं का प्रदर्शन करते हैं, वह सामान्य नहीं है. कहीं कुछ था जो पकड़ में नहीं आ रहा.
बहुत संभव है कि यह मीना कुमारी के अत्यंत कटु वैवाहिक जीवन के कारण हो या फिर स्वयं उनका अपना व्यक्तिगत जीवन जिसकी वजह से वह 1971 तक फिल्मों में काम करते रहने के बाद भी हिंदी सिनेमा के इतिहास में याद नहीं की जातीं. या फिर यह कि वह नायक की उपस्थिति खत्म कर देती थीं, इसलिए बड़े नायक उनके साथ काम करने से कतराते थे या उनकी आयु दिखने लगी थी या फिर फिल्मी दुनिया के कुछ अपने समीकरण, कुछ साजिशें थीं. यदि ऐसा था, कि कमाल अमरोही ने सख्ती से उनको दिलीप कुमार के साथ काम करने से मना कर दिया था तो कुछ बातें साफ हो जाती हैं. कल्पना की जा सकती है कि ‘ट्रेजडी किंग’ और ‘ट्रेजडी क्वीन’ ने साथ काम किया होता तो कैसी चिंगारियां निकली होतीं.
फिल्म फेयर पुरस्कार पाने वाली वह पहली नायिका थीं. कम अज कम पचास यादगार गाने उन पर फिल्माए गए हैं. रवि, खय्याम, नौशाद उन पर बात करते हैं तो शब्द ढूंढ़ने में अटकते हैं. भावुक हो जाते हैं. एक ही साल में शायद 1962 में उनकी तीन फिल्में— ‘आरती’, ‘मैं चुप रहूंगी’ और ‘साहब बीवी और गुलाम’ बॉक्स ऑफिस पर भी खूब चली थीं. ‘आरती’ की नायिका पहली हिंदी नायिका थी जो स्वप्न-दृष्टा, समाज बदलने के लिए संघर्षशील कवि के साथ घर छोड़कर चली जाती है. ‘कभी तो मिलेगी, कहीं तो मिलेगी, बहारों की मंजिल राही…’ गाना अब नहीं सुनाया जाता. शायद यह और कुछ नहीं कमर्जफ हिंदी फिल्म उद्योग की अपनी चारित्रिक विशेषता है जिसे मीना कुमारी ने पूरे जीवन और मृत्यु के नजदीक सबसे अच्छी तरह देखा था.
उन दिनों रात में रेडियो पर ‘पाकीजा’ के विज्ञापन में दो डायलॉग आते थे. एक राजकुमार की आवाज में, ‘आपके पांव बहुत हसीन हैं….’ दूसरा मीना कुमारी की आवाज में, ‘रोज रात को एक रेलगाड़ी सीटी बजाती हुई….’ तब रेडियो क्या, ट्रांजिस्टर बड़ी चीज होता था. मैं और मेरे पिता रात को यह विज्ञापन साथ ही सुना करते थे.
एक रात जब मैं घर लौटा था, पिता ने धीरे से कहा था, ‘‘मीना कुमारी मर गई.’’ मैंने उन्हें देखा, वह खाली आंखों से मुझे देख रहे थे. मैं चुपचाप बैठ गया था.
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जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटित होता है जिसका कोई तर्क नहीं होता, इसका भी नहीं कि किसी को कोई क्यों अच्छा या बुरा लगता है. कहीं एक अंतर्मन काम करता रहता है जिसकी क्रिया, प्रतिक्रिया, मूल प्रवृत्ति, सम्मोहन मिलकर एक संपूर्ण व्यक्ति को गढ़ते हैं. उसे दूसरे व्यक्ति से अलग करते हैं. अपने प्रेम, घृणा, आवेग, स्वप्न और आकांक्षाओं के साथ धीरे-धीरे हर व्यक्ति दूसरे से अलग एक स्वतंत्र द्वीप बन जाता है. यही उसका अपना जीवन होता है.
नीत्शे आत्मकथा में लिखते हैं :
इस निर्दोष दिन, जब सब कुछ पूरी तरह पक चुका है और केवल अंगूर ही भूरे नहीं हुए हैं, सूर्य के प्रकाश की एक किरण मेरे जीवन पर भी गिर चुकी है. मैं अपने पीछे देखता हूं, मैं अपने आगे देखता हूं. मैंने आज तक इतनी ज्यादा और इतनी अच्छी चीजें एक साथ नहीं देखीं. मैंने आज अपना चौवालीसवां वर्ष व्यर्थ ही दफन नहीं किया है. मैं इसे दफन करने के लिए अधिकृत था, इससे जो भी जीवन शेष बचकर निकला है, वह अमर है.
मीना कुमारी अपने समय में ही किंवदंती बन गई थीं. किंवदंती कब मिथक में प्रवेश कर जाती है, कोई नहीं जानता. संभव है आज नहीं, लेकिन एक दिन जरूर लोग मीना कुमारी की बात इस तरह शुरू करें कि ‘‘एक थी मीना कुमारी…’’
मीना कुमारी सोचती थीं कि उनके जाने के बाद इस ‘तनहा जहां’ के लोग सदियों उनकी राह देखेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ऐसा होगा या नहीं कोई नहीं जानता. आज उन्हें कोई याद नहीं करता, लेकिन आज भी, इस धरती पर एक व्यक्ति जरूर ऐसा है ‘हू स्टिल एडोर्स हर’.
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यह सब स्मृतियों के सहारे लिखा गया है. संभव है इसमें कुछ तथ्य, कालक्रम या कोई मिसरा गलत हो. हालांकि इनकी पुष्टि करना बहुत आसान था, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं. बस… मन नहीं है! — प्रियंवद.
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प्रियंवद हिंदी के समादृत साहित्यकार हैं. उनसे priyamvadd@gmail.com पर बात की जा सकती है. यह आलेख ‘पाखी’ के जुलाई-2013 अंक से साभार.
Bahut shandaar lekh hai yah
Baar baar padha hai aur har baar pahle se jayda prabhavit kiya hai