गद्य ::
प्रियंका दुबे
प्रतीक्षा के बारे में
एयरपोर्ट पर खड़ी हूँ। या रेलवे स्टेशन पर? या शायद यह एक बस अड्डा है जिसे मैं भूल से एयरपोर्ट समझ बैठी हूँ। एक कोहरा-सा घिर आया है—मेरे चारों ओर जो अब मुझे बस अड्डे और रेलवे स्टेशन में फ़र्क़ दिखाई पड़ना बंद हो गया है। लेकिन इस धुंध में भी अपने पैर साफ़ दिखाई पड़ रहे हैं—प्रतीक्षा में खड़े एक प्रेमी के पैर।
सुनहरे ताँबे रंग से बनी सैंडल के बीच से झाँकते मैरून नेलपेंट वाले नाख़ून। अक्सर टूटे और बदसूरत जूतों में बंद रहने वाले मेरे इन पैरों में यह नाज़ुक सैंडेल आज क्या कर रही हैं, शायद मुझे भी नहीं पता। लेकिन खड़ी हुई हूँ इंतज़ार में। सालों खड़ी रहना चाहती हूँ। और यूँ ही खड़े-खड़े मर जाना चाहती हूँ। इस उम्मीद में कि दुनिया ‘प्रेम की प्रतीक्षा में डूब कर जीने को’ मानवता जितना ही बड़ा मूल्य स्वीकार कर लेगी। और फिर शायद किसी दिन इस ‘प्रतीक्षा’ को प्रेम का ही नहीं, जीवन का भी सबसे बड़ा मूल्य माना जाएगा! आख़िर प्रतीक्षा करना मनुष्य होना ही तो है।
उसको आना तो था। लेकिन कहाँ से? एयरपोर्ट था, बस अड्डा था या रेलवे स्टेशन? याद क्यों नहीं आ रहा मुझे? ‘मेंटल-फ़ॉग’ की तर्ज़ पर कोई ‘लव-फ़ॉग’ भी होता होगा शायद? प्यार का कोहरा? इस कोहरे को फेफड़ों से लेकर आँखों तक में यूँ भरती रही हूँ कि अब कुछ दिखाई नहीं देता। फ़र्क़ भी नहीं पड़ता। जब मुझे प्रतीक्षा में ही खड़े रहना है तो इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मैं कहाँ खड़ी हूँ?
महत्त्वपूर्ण यह है कि मैं इंतज़ार में खड़ी हूँ। मेरे पैर मेरे नहीं, एक प्रतीक्षारत प्रेमी के पैर हैं।
प्रतीक्षा में इतनी गहरी आश्वस्ति कैसे हो सकती है? इतनी तसल्ली कि पीड़ा में भी सिर्फ़ हँसी रुके होठों पर! उसे मालूम है कि मैं यहाँ खड़ी उसका इंतज़ार कर रही हूँ। ‘लेकिन’ वह नहीं आ रहा है। यहाँ ‘लेकिन’ शब्द के व्यर्थताबोध से पूरी तरह वाक़िफ़ हूँ। और आगे किसी बुझती-सी उम्मीद में ही ‘नहीं आया’ के स्थान पर ‘नहीं आ रहा है’ का इस्तेमाल कर रही हूँ। क्योंकि शायद मुझे अभी भी उसके आने की उम्मीद है। क्या मुझे उसे फ़ोन कर लेना चाहिए था? लेकिन उससे क्या बदल जाता? इंतज़ार तो मैं तब भी करती ही।
खड़े-खड़े फ़ोन पर ‘सिगरेट आफ़्टर सेक्स’ के गाने सुनती हूँ। यह मेरा प्रिय बैंड है। अब वह इसके गीतों को भूल चुका है, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था। कभी हम अलग-अलग शहरों में एक साथ सुनते थे इसके गीत। वे सर्दियों के दिन थे। आज उसके इंतज़ार में यहाँ खड़े या तो मैं ‘सिगरेट आफ़्टर सेक्स’ के गीत सुन सकती हूँ या फिर मोहम्मद रफ़ी का कोई गीत जिसे सुनते हुए आँखों से एक आँसू छलक आए। जब भी मैं रोती हूँ तो मेरा एक दोस्त हमेशा कहता है कि जीवन में रफ़ी के गानों के सिवा दूसरी किसी चीज़ के लिए रोना नहीं चाहिए। सुहाती तो थी, लेकिन कभी कान पर नहीं रखी मैंने उसकी वह बात।
सामने टँगी एक तख़्ती पर बड़े-बड़े अक्षरों में दर्ज ‘प्रस्थान’ शब्द के भीतर अब पीली रौशनी के बल्ब जलने लगे हैं। क्या शाम हो गई है? या रात ख़त्म हो गई है? मुझे नहीं पता। प्रतीक्षा में खड़े प्रेमी अक्सर समय के भान से मुक्त हो जाते हैं।
मुझे मजनू और मीर याद आते हैं। मजनू के इंतज़ार की कहानी और मीर का दीवान किसी भी प्रतीक्षारत प्रेमी का सबसे बड़ा सहारा बन सकता है। मेरा तो है ही।
सभी को ‘याद उस की इतनी ख़ूब नहीं, मीर बाज़ आ’ की ताकीद देने वाले मीर ख़ुद ‘इश्क़ का भारी पत्थर’ उठाए हुए आगे ‘इतनी गुज़री जो तिरे हिज्र में, सो उसके सबब, सब्र महरूम अजब मूनिस-ए-तन्हाई था’ जैसे शे’र भी लिखते हैं। यहाँ ‘मूनिस-ए-तन्हाई’ से मुराद सब्र के एकांत का साथी होने से है। सब्र, इकलौता सब्र ही तो है मीर और मजनू के पास। और शायद मेरे पास भी?
2021 की बारिशों में मैं मीर और मजनू को यूँ तड़प के याद करती हूँ कि शायद उनकी रूहों को भी हिचकियाँ आती होंगी। मुझे लगता है कि अपने प्यार में मीर को पढ़ते हुए मैं उन तक पहुँच पाती हूँ, उनके मन तक। यूँ तो सभी तक पहुँच जाती हूँ मैं—सिर्फ़ एक उसके मन के सिवा। उसके मन तक पहुँचने के लिए अभी लंबा इंतज़ार करना होगा। कितना? यह तो नहीं मालूम।
इंतज़ार करते हुए मुझे बीते आठ सालों से दुनिया को पैदल नाप रहे अमेरिकी पत्रकार पॉल सालोपेक की भी बहुत याद आती है। मानवता के विकास की यात्रा को समझने के लिए अफ़्रीका से पैदल निकले पॉल बीते आठ सालों से लगातार चल रहे हैं। क्या उन्हें वाक़ई मालूम है कि वह अपनी यात्रा कब ख़त्म कर पाएँगे? वह सिर्फ़ अनुमान लगा सकते हैं, लेकिन निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकते। और इसलिए कौन कह सकता है कि पॉल सालोपेक की यात्रा किसी प्रेमी की यात्रा से अलग है? दोनों सिर्फ़ चले जा रहे हैं।
मैं भी बीते कई महीनों से सतत यात्राओं में हूँ। इन नए रास्तों पर फूटती अप्रत्याशित पगडंडियों से लगातार जूझते अपने पैरों पर जब भी नज़र पड़ती है तो दो पल को ठिठक जाती हूँ। प्रेम की प्रतीक्षा के सिवा आख़िर वह क्या है जो मन के घनघोर बीहड़ में उलझे शरीर को भी यूँ खींचते जाने का साहस देता है इन्हें? क्यों चलती हूँ मैं? क्या उसकी प्रतीक्षा के सिवा भी कोई आग है, जिसमें जल सकती हूँ?
इस सवाल को गुनते हुए बीती सर्दियों की एक झिलमिल शाम आँखों के सामने खुलने लगती है।
प्यार में दुखते पाँव ज़मीन पर टिकते नहीं थे, लेकिन फिर भी नम आँखों के साथ उन्हीं पैरों पर खड़ी थी—अपनी बुक शेल्फ़ के सामने। सीधे बाबा बार्थ की शरण में। बाबा बार्थ फ़्रांसीसी दार्शनिक रोलाँ बार्थ को दिया मेरा प्यार का नाम है।
प्रतीक्षा में दुखते मेरे मन से बाबा बार्थ की किताबें एक दोस्त की तरह मिलती रही हैं। वही दोस्त जो सपने में झेलम के पुल पर मिलने आता है मुझे।
बर्फ़ में डूबे अनंतनाग में खड़ी होकर भी मैं बर्फ़ में डूब नहीं पाती—इसलिए शायद झेलम के पानी में मिल जाना चाहती हूँ। लेकिन क्या प्रतीक्षा में खड़ा प्रेमी इंतज़ार के सिवा और किसी भी भावना में डूब सकता है?
पुल पर खड़ी मैं यह सवाल अपने दोस्त से पूछती हूँ। लेकिन नीचे बहती नदी इतनी उफान पर है कि उसके शोर में आसुओं में डूबे मेरे सवाल की मद्धम ध्वनि दब जाती है।
मैं पुल के मुहाने पर और आगे सरक आती हूँ। बस पानी को छूने ही वाली हूँ, जब वह दोस्त बाबा बार्थ की तरह प्यार के कोहरे में भी थाम लेता है मुझे। तब शेल्फ़ से ‘अ लवर्ज़ डिस्कोर्स’ निकालती हूँ और चालीसवें पन्ने पर दर्ज उसी वाक्य पर लौट कर जाती हूँ—‘‘किसी को इंतज़ार करवाना—किसी भी ताक़त का सबसे बड़ा विशेषाधिकार है, मानवता का सबसे पुराना जुनून।’’ और ठीक इसी के ऊपर दर्ज लगभग सूक्ति-सा यह वाक्य—प्रेमी वही है जो प्रतीक्षा करता है। उनके भाग्य में लिखी एक मात्र आत्मघाती पहचान यही है—I am the one who waits—मैं प्रतीक्षा में हूँ।
अब जबकि मैं लगभग प्रतीक्षा की पराकाष्ठा पर खड़ी हूँ, तो शरीर में हिलोर मारती पीड़ा की एक काली लहर पर तैरते हुए मुझे सूज़न सांटाग की याद ज़ोर से आती है। सुजान सौन्टैग और बाबा बार्थ निजी जीवन में मित्र थे। उनका एक दूसरे के काम पर लिखा ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ते हुए भी मैं प्रतीक्षा के अपने दिन जीती रही हूँ।
सुजान सौन्टैग बर्फ़ीली झेलम में उस निष्ठुरता से डुबो-डुबो कर मुझे नहीं बचाती जैसे बाबा बार्थ बचाते हैं। सौन्टैग जिन्हें मैं प्यार से एसएस पुकारती हूँ, नर्मी से लिखती हैं—‘‘कोई मानवीय संबंध इतना रहस्यमय नहीं है, जितना प्रेम। प्यार में होने का मतलब किसी के लिए ख़ुद को बर्बाद कर लेना है।’’ लेकिन इसके साथ ही वह यह भी जोड़ती हैं, “मुझे उस विचार से निजात पानी है जो कहता है कि जैसे जैसे प्रेम बढ़ता है, सेल्फ़ या स्व का महत्त्व हिलने-सा लगता है।’’ एसएस के पास आते ही मुझे इंतज़ार को भाग्य बताने वाले बार्थ थोड़े सख़्त लगने लगते हैं।
लेकिन एसएस की यह नर्मी ज़्यादा देर तक नहीं टिकती। यूँ भी, प्रेमी के भाग्य में नर्मी कहाँ?
मुझे बारिश का वह पहाड़ी दिन याद आता है, जब मैंने एसएस की डायरी में पढ़ा था कि उन्हें वे लोग बहुत आकर्षित करते हैं, जो प्यार में अकेले खड़े रहते हैं और जीवन भर जलते हैं; क्योंकि ऐसे लोग उन्हें ख़ुद भी अकेले खड़े रहकर जलने की अनुमति देते हैं। तो एसएस भी इस एकाकी प्रतीक्षा की समर्थक थीं! वह ख़ुद भी एक प्रतीक्षारत प्रेमी होना चाहती थीं। और आख़िरकार अब एसएस भी अपने दोस्त बाबा बार्थ की तरह मेरे सामने प्रतीक्षा के कठिन रास्ते की अनुशंसा कर रही हैं।
हाँ, लेकिन वह मुझे यह ज़रूर याद दिला गई हैं कि इंतज़ार करने से मेरा स्व छोटा नहीं होता।
मैं अभी भी (शायद) एयरपोर्ट पर खड़ी हूँ।
इंतज़ार का चरम उत्कर्ष जैसे आ ही पहुँचा है। अचानक हँसने-सा लगती हूँ। कभी-कभी लगता है कि इंसान पर लागू ज़िंदगी का सबसे काला चुटकुला यही है कि उसकी ज़िंदगी में इंतज़ार का क्लाइमैक्स ही एकमात्र ऐसा चरमोत्कर्ष है जो आख़िरी साँस तक चलता है। कमबख़्त, चलता ही रहता है।
और मेरे अपने ‘स्व’ का क्या? उसी को जलाकर तो खड़ी हूँ—प्रतीक्षा में।
बचता भी क्या है इंतज़ार में?
प्रेमी को जलना इतना होता है कि जैसे पेट में सूरज उगा लिया हो। जीवन भी उस अंतरिक्ष यात्री जैसा जो सूरज तक की यात्रा पर निकला हो। इस यात्रा में कितने प्रकाश-वर्ष चलेगी सूरज तक पहुँच पाने की उसकी प्रतीक्षा, निश्चित होकर कोई नहीं कह सकता।
निश्चित तो सिर्फ़ उसका जलना है—सूरज के बिना या उसमें मिलकर।
प्रियंका दुबे से परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : स्त्री के पैरों पर
वाह! कमाल का गद्य है। शुक्रिया लिखने और पढ़वाने के लिए।
शानदार,मन को छू गया।ऐसा लग रहा है कि जैसे मेरे ही एहसास को आपने अपने शब्दों की माला में पिरो दिया।शुक्रिया; ऐसे ही लिखते रहिए।
यात्राओं का इतना आकर्षक प्रभाव है आपकी लिखावट में।
खूबसूरत।
बहुत सुन्दर👌👌
बहुत ख़ूबसूरत गद्य.
शुक्रिया पढ़वाने के लिए 💐