नूरी बिल्ज जेलान पर कुछ नोट्स ::
उदय शंकर
पिता खेतों में, पेड़ के नीचे, धूप में बेफ़िक्र हो निढाल सोता है, चींटे हाथों पर फिरते हैं, नाक के सुराख़ के पास बैठ साँसों से गर्म होते हैं। माँ रोती है। माँ आधुनिक है। क्या पिता रस्सियाँ हैं? रस्सियाँ जो पेड़ों से, जहाज़ के मस्तूलों से, क्रेनों से और हाँ, पेड़ों और कुएँ से लटकती हैं, जिनसे लटक माँएँ आत्महत्या नहीं करतीं, माँ आधुनिक है। माँएँ बिल्लियाँ हैं। बेटा किताब पढ़ता है, तारकोवस्की की फिल्में देखता है, बीच-बीच में कैसेट/चैनल बदलकर या कंप्यूटर पर इन्कोग्निटो मोड में पोर्न देखता है। बेटा माँ को तारकोवस्की और बाप को इन्कोग्निटो मोड में रखता है। कभी-कभी दोनों को कवच में बंद कर ख़ुद की कल्पना रेशम के रूप में करता है। यह कल्पना उसके लिए बहुत तकलीफ़देह है। वह उन्हें उसमें ही बंद कर या उससे आज़ाद कर नेपाल चला जाता है।
नूरी बिल्ज जेलान की फ़िल्में देखते हुए ऐसे बिंब, या ऐसी कल्पना न तो हास्यास्पद कही जा सकती है, न ही आश्चर्यजनक। उनकी फ़िल्में देखना या उनके बारे में पढ़ना फ़ेरी टेल्स की ज़द में ले जाता है—कभी पूरब-पश्चिम की साझी ज़मीन वाली, कभी ठेठ पुरबिया।
नूरी बिल्ज जेलान, असग़र फ़रहादी, क्रिष्टियन मुंज्यू, रादू मुन्तन, क्रिस्टी पुयू, आंद्रे ज़्वगिन्तज़ाफ़, सारुनस बार्तस, वोइचेह स्मजोव्स्कि, पॉवेल पाव्लिकोव्स्कि सरीखे फ़िल्मकार एक ऐसे ख़ालीपन को भर रहे हैं कि ख़ालीपन का एहसास रह जाता है।
ये तुर्की, ईरान (प्रवासी), रोमानिया, रूस, लिथुआनिया, पोलैंड के प्रतिनिधि फ़िल्मकार हैं। हंगरी को भी इसमें शामिल किया जा सकता है, लेकिन बेला तार्र ने जो कड़ी छोड़ी है, उसका जोड़नहार अभी तक सामने नज़र नहीं रहा है। इन सारे प्रतिनिधि फ़िल्मकारों को एक साथ रखने की उभयनिष्ठता (कॉमननेस) इनकी ‘स्थानीयता’ है। इस बड़ी साझेदारी के अतिरिक्त इनमें एक अन्य स्तर की समानताएँ भी ढूँढ़ी जा सकती हैं, वहीं इनमें स्वाभाविक और परस्पर भिन्नताओं का दायरा भी कम नहीं है।
1. तुर्की के नूरी बिल्ज जेलान ऐसे ही फ़िल्मकार हैं जो भिन्नताओं के दायरे में अलग से पहचाने जाते हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि वह अपनी फ़िल्मों में ख़ुद को केंद्रीकृत करते हुए परिवेश को उकेरते हैं। यह परिवेश उनके नितांत निजी अनुभव के हिस्सों से निर्मित होता है। यह निजता ही वह ज़मीन है जहाँ से दार्शनिक, वैचारिक, संवादी-विवादी स्वर इत्यादि सिर्फ़ विचार के वायवीय स्फुटन न होकर, जीवंत लगते हैं।
2. वैचारिक स्फुटन वाला पक्ष नूरी बिल्ज जेलान का उत्तर-पक्ष है। एक तरह से कहें तो ‘वंस अपॉन अ टाइम इन अनातोलिया’ (2012) से इसके अभ्यास की ज़मीन तैयार होनी शुरू हो जाती है। इस फ़िल्म में वह यह प्रस्तावित करते हैं कि सत्य नहीं होता है, बल्कि उसकी व्याख्याएँ होती है।
3. नूरी बिल्ज जेलान का पूर्व-पक्ष, प्रोविंशियल ट्राइलॉजी—‘द टाउन’ (1997), ‘क्लाउड्स ऑफ़ मे’ (1999), ‘डिस्टेंट’ (2002)—उनके व्यक्तिगत संघर्ष/अनुभव का दृश्यांकन है। दृश्य की गहराई और ख़ूबसूरती उन्हें काफ़ी लगती है और दर्शकों तक संप्रेषित भी होती है। यह अकारण नहीं है कि ‘डिस्टेंट’ को देशी-विदेशी कुल 47 पुरस्कार मिले और यह फ़िल्म तुर्की की सबसे ज़्यादा सम्मानित फिल्म का दर्जा पा गई।
4. प्रोविंशियल ट्राइलॉजी की पहली फ़िल्म ‘द टाउन’ थी और अंतिम फ़िल्म का सिर्फ़ नाम ही ‘डिस्टेंट’ नहीं है; बल्कि यह अपने क़स्बाई समाज, संवेदना, परिवार से ‘डिस्टेंट’ (दूर) होने के बोध की स्वीकारोक्ति भी है।
5. ‘वंस अपॉन अ टाइम इन अनातोलिया’ तक आते-आते नूरी बिल्ज जेलान को लगने लगता है कि फ़िल्मकार को मिशनरी की तरह व्यवहार करना चाहिए। इसके बाद आई ‘विंटर स्लीप’ (2014), और अब ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ (2018) जनसामान्य के बीच प्रस्तुत है।
6. यहाँ शुरू में कहा गया है कि नूरी बिल्ज जेलान अपनी फ़िल्मों में ख़ुद को केंद्रीय भूमिका दे देते हैं। इस पर सवाल हो सकता है कि यह भूमिका क्या कभी निःसृत नहीं होगी? केंद्रीय-पात्र की अनुभव-संपन्नता भी परखी जाएगी!
7. नूरी बिल्ज जेलान का जीवन-संघर्ष (फ़िल्मकार के रूप में स्थापित होने से पहले) लगभग अल्बैर कामू के शुरुआती जीवन की तरह रहा है। ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ में वह इसका इशारा करते हैं। क़स्बाई/किसान परिवार की पृष्ठभूमि। पढ़ाई के संदर्भ में शहर आना। मन के विपरीत रोज़गार-याचन वाली पढ़ाई में संलग्न होना। हड़ताल, आंदोलन, राजनीतिक उथल-पुथल से भरे-पूरे कॉलेज माहौल में इंजीनियरिंग के विपरीत कला के दर्शन की गुत्थियों से जूझना। कॉलेज की शिक्षा का पूरा होना। फ़ोटोग्राफी का शौक़, बेरोज़गारी में कामचलाऊ फ़ोटोग्राफी करना, मसलन पासपोर्ट साइज़ तस्वीर तक उतारना।
8. जीवन और उसमें रोज़गार की गुत्थियों से परेशान होना और पहले यूरोप, लंदन; फिर नेपाल, हिंदुस्तान का भ्रमण। इस भ्रमण और पर्यटन के लिए रेस्टोरेंट में बर्तन साफ़ करने से लेकर सड़क पर भूखे घूमना तक नूरी बिल्ज जेलान के अनुभव में शामिल रहा।
9. कभी दिल्ली के होटलों के गलियारों में सोने वाले नूरी बिल्ज जेलान सत्यजीत रे की ट्राइलॉजी से इतना प्रभावित रहे कि प्रत्यक्ष अनुभव लेने बंगाल के गाँवों तक चले गए। आर्थिक अभाव में दिल्ली में अपना सब कुछ बेच दिया, यहाँ तक कि कैमरा भी। किसी तरह दिल्ली से कराची तक के लिए ट्रेन का टिकट ख़रीदा और वाया कराची तुर्की वापस पहुँचे। आर्मी में अपना तयशुदा श्रम दिया और उसी दौरान सिनेमा को अपना पेशा बनाने पर अडिग हुए।
10. यहाँ कहने की ज़रूरत है कि ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ नूरी बिल्ज जेलान के बीहड़ अनुभवों का रचनात्मक और उम्दा चित्रण है।
11. ‘डिस्टेंट’ में जहाँ मुख्य पात्र फ़ोटोग्राफर था, वहीं ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ में वह एक नवलेखक (यंग इंस्पायरिंग राइटर) है—कॉफ़ी हाउस/लाइब्रेरी में स्थापित लेखकों के पास अचानक से पहुँच जाने वाले उत्साह से लबरेज़। वह हवा में अपने स्वर को फेंकते हुए कहता है, ‘‘नमस्ते, आपने मुझे पहचाना नहीं? फ़लाँ लेखक-सम्मेलन में मैं भी था, लेकिन मैं दर्शक-दीर्घा में बैठा था। हालाँकि मध्यांतर में हम दोनों की आँखें एक बार मिली भी थीं।’’ वह उन्हें चिढ़ाता भी है। ग़ुस्सा तक दिला देता है। वह वैसे आरामतलब/स्थापित लेखकों की ख़ैर लेता है जो नवयुवकों को यह सलाह देते हैं कि लिखना ख़ुद को तबाह करना है, लेकिन तुझे लिखना है, तुझे लिखना है… भले ही तुम्हारा क़स्बा, परिवार सब तुमसे बिछड़ जाए… यही तुम्हारी ज़िंदगी है।
वह चाय की दूकान में बैठे किसी लाचार-वृद्ध से अचानक यह कहते हुए दोस्ती गाँठ सकता है कि आपकी ग़रीबी की उत्तराधुनिक तरंगों को मैं महसूस कर सकता हूँ। शहरी, अकादमिक, अदबी माहौल का यह बंदानवाज़ जैसे ही अपने क़स्बे में वापस लौटता है, क़स्बा उलाहने की मुद्रा में नज़र आता है। वह अपनी तथाकथित नाकारगी का अक्स अपने बाप तक में ढूँढ़ लेता है। क़र्ज़, क़स्बा, खेती, कुएँ की खुदाई, बिजली का बिल, खाने की रसद… सब मुँह बाए खड़े नज़र आते हैं और बाप जुआरी।
पहली पुस्तक की पांडुलिपि लिए अनुदान की आशा में वह संस्था-दर-संस्था भटकता है, और कहीं से टूरिस्ट गाइड बुक लिखने तो कहीं से तुर्की के महान शहीद सैनिकों की जीवनी लिखने आदि की सलाह पाता है। इन सबके बीच वह 80 साल के एक शराबी कामगार के प्रति अपनी जिज्ञासा को ज़ाहिर करने से भी बाज़ नहीं आता। इस शराबी बुड्ढे के अध्ययन के बहाने वह जीवन की जटिलताओं का हल खोजना चाहता है।
12. पृष्ठभूमिगत यथार्थ और व्यक्ति की चेतनागत स्थिति की स्वाभाविक फाँक को ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ जिस अंदाज़ में उभारकर सामने रखती है, वह अन्यत्र दुर्लभ-सा है। इस फाँक के कारण ही ‘डिस्टेंट’ में अलगाव था।
13. ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ को नूरी बिल्ज जेलान ‘डिस्टेंट’ वाले अलगाव से एकदम साफ़ बचाकर निकाल ले जाते हैं। यह अलगाव यहाँ लगाव बन गया है। चेतनागत स्थिति से ख़ुद को निकालकर लेखक यहाँ अपनी चेतना का इस्तेमाल अपनी पृष्ठभूमि वाले यथार्थ को स्वीकार करने में लगाता है। कहने को कोई कह ही सकता है कि नूरी बिल्ज जेलान का यह ज़मीनी लगाव—तारकोवस्की की तरह ही—’ज़मीनी होने का सिजोफ्रेनिक बोध’ है।
14. ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ में नूरी बिल्ज जेलान अपनी मान्यताओं को भी पलटने काम करते हैं। ‘सत्य नहीं होता है, व्याख्याएँ होती हैं’ इस तरह की सूक्तियाँ अब उन्हें क्लिशे लगती हैं। स्थापित कलाकार/लेखक, जो सभा-सम्मेलनों में लकदक नज़र आते हैं, उन्हें मिशनरी की तरह दीखते हैं, जैसे अगर वे कला-लेखन नहीं करेंगे तो मर जाएँगे! नूरी बिल्ज जेलान पहले ख़ुद मिशनरी की तरह होना चाहते थे, लेकिन यहाँ आकर वह इस मान्यता के प्रति तल्ख़ हो उठते हैं।
15. शॉर्ट फ़िल्म ‘कोकून’ (1995) से चलकर ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ पर आकर नूरी बिल्ज जेलान एक वृत्त बना लेते हैं, जिसमें ‘क्लाइमेट्स’ (2006) और ‘थ्री मंकीज़’ (2008) जैसी फिल्में भी हैं। ‘डिस्टेंट’ में अधिकांशतः बर्फ़बारी, अँधेरे के दृश्य हैं तो ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ उजाले के पक्ष में ही ज़्यादा व्यक्त हुई है। बर्फ़बारी शुरू होते ही कर्म-भाव का उज्ज्वल पक्ष अपना काम शुरू करता है और फ़िल्म ख़त्म हो जाती है।
इस वृत्त का बनना नूरी बिल्ज जेलान के लिए अब चुनौतीपूर्ण भी होगा। ख़ुद को केंद्रीय भूमिका के रूप में स्थापित करने से अब वह एक तरह से मुक्त हो चुके हैं। ‘वंस अपॉन अ टाइम इन अनातोलिया’ जैसी ‘स्वतंत्र’ कहानियों की ज़रूरत अब ज़्यादा होगी। ख़ुद से स्वतंत्र होकर फ़िल्मों से उनका व्यवहार अब ज़्यादा देखने को मिल सकता है।
16. ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ एक तरह से मौजूदा तुर्की की एक तल्ख़ आलोचना भी है। रोज़गार की समस्या तो प्लॉट का हिस्सा है, लेकिन इसके इर्द-गिर्द रचे संवादों की तल्ख़ी में कम्युनिस्टों पर अत्याचार, वाटर केनन, टीयर गैस, डिक्टेटर, बम इत्यादि की प्रतिध्वनियाँ स्पष्ट सुनाई पड़ती हैं। युवाओं में नैतिक शिक्षा का प्रसार, पाठ्यक्रम से इतर अध्ययन-अध्यापन पर पाबंदी, राज्य में सैनिक की महत्ता और सैन्य महानता के संग्रहालय इत्यादि संवादों के संदर्भ इशारा कर देने भर के लिए उभरते हैं और कथानक को बोझिल भी नहीं बनाते हैं।
17. नूरी बिल्ज जेलान की सिने-यात्रा के पूर्व-पक्ष के बारे में ऊपर कहा गया है। वह उनके निजी संघर्ष-अनुभव का रचनात्मक चित्रण है… वहीं उत्तर-पक्ष जिसका सम ‘वंस अपॉन अ टाइम इन अनातोलिया’ है और उत्कर्ष—वाया ‘विंटर स्लीप’—‘वाइल्ड पीयर ट्री’ है।
18. नूरी बिल्ज जेलान ने अब तक की अपनी अंतिम दोनों फ़िल्मों में एक तरह से सिनेमा की एक नई विधा उभार कर सामने रख दी है। इस विधा को नाम तो कुछ भी दिया जा सकता है, लेकिन इसकी विशेषता स्पष्ट है—लंबे संवाद (कन्वर्सेशन) का वास्तविक समय (एक्चुअल टाइम) में दृश्यांकन (लॉन्ग टेक)।
19. स्वाभाविक रोशनी में अधिकतम ट्राइपैड से शूटिंग करने वाले नूरी बिल्ज जेलान लैंडस्केप के माहिर तो हैं ही, वह क्लोज़अप के भी उस्ताद हैं। संवाद की महत्ता दृश्य की भव्यता में गुम न हो जाए, इसके लिए दृश्य की कुछ रूढ़ियों को उन्होंने साध लिया है, जैसे वह कैमरे को संवादी के सिर के पिछले हिस्से पर टिका देते हैं, देखने के नाम पर आप बाल गिनने से ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते, आपको सुनना ही पड़ेगा।
20. नूरी बिल्ज जेलान सिनेमा के एक कुटीर उद्योग का नाम है। उनका पूरा परिवार, उनके दोस्त, उनकी पत्नी सब इस उद्योग के हिस्से हैं। रचनात्मक छूट के पीछे वाली आज़ादी का यह उनका अपना राज़ है।
लब्बोलुआब यह है कि नूरी बिल्ज जेलान बिना प्रचार किए ‘डॉग्मा-95’ का उस्ताद है। ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ के साथ ही उनका एक सिनेमाई चक्र पूरा होता है—इस तरह यह उनका ‘सेल्फ़फुल एट’ हुआ। ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ के साथ उनकी सिनेमाई यात्रा पश्चिम से पूरब की ओर लौट आती है। जहाँ पश्चिम-पूरब, यूरोप-एशिया की फाँक में फँसे तुर्की से इतर ठेठ ‘पुरबिया तुर्की’ को उकेरा गया है, और राज्यसत्ता की उधेड़बुन (आधुनिकता-परंपरा और विवेक-नैतिकता) को पूर्णविराम से नवाज़ दिया गया है।
बहरहाल, क्रिसमस आने वाला है, इससे अच्छा दूसरा कोई महीना नहीं हो सकता, कहीं से भी पाइए और देख जाइए! आपको नाशपाती में तीतर ज़रूर मिलेंगे!
On the first day of Christmas my true love sent to me :
A partridge in a pear tree.
यहाँ आकर संपादकीय नोट में नूरी बिल्ज जेलान के बारे में बताने को कुछ रह नहीं जाता है, क्योंकि लेखक ने कुछ छोड़ा नहीं है। उदय शंकर की मेधा के तमाम आयाम हैं, दुखद है कि वह इससे हिंदी संसार को परिचित बहुत कम अवसरों पर ही करवाते हैं। नूरी की नई फ़िल्म ‘द वाइल्ड पीयर ट्री’ ने यह अवसर रच दिया है और उदय ने इस बहाने एक कलाकार का जीवन और उसकी कला का अध्ययन बेहद सुचिंतित और सिलसिलेवार सलीक़े से सामने रख दिया है। उदय के शेष परिचय और पिछले काम के लिए यहाँ देखें : कवि की एक व्यापारिक यात्रा
यदि फैन होने जैसा कुछ सच में होता है तो मैं नूरी का फैन हूँ। उनका नाम सुनते ही मेरे चेहरे पर एक सच्ची खुशी झलकने लगती है। बाकी मैं नूरी की कलाकारी का इतना मुरीद हूँ कि उनके कला का विश्लेषण कर ही नहीं सकता – सिर्फ उन्हें देखकर उनका आनन्द ले सकता हूँ। यहां पर नूरी को प्रस्तुत करने के लिए आप लोगों का बहुत बहुत आभार।