कविता ::
सुदीप सोहनी

गुरुदत्त

कहाँ हो, गुरुदत्त

ये 2020 है
और वो 1964,
जब तुम गए थे

छप्पन बरस हुए
आधी सदी से ज़्यादा
क्या ये मज़ाक़ है कि तुम्हें जिसने नहीं देखा
वो भी आज देखने की हसरत रखता है

ठीक वैसे ही
जैसा ‘काग़ज़ के फूल’ में तुमने दिखाया था—
बड़े से स्टूडियो के बड़े से छज्जे से झाँकते, पाइप पीते हुए

और वैसे नहीं
जैसा तुमने दिखाया था—
उसी बड़े से स्टूडियो में फटेहाल, जर्जर शरीर में पथराई और रोती आँखों से सीढ़ियाँ चढ़कर
वहाँ से बीता रुतबा याद करते हुए

‘प्यासा’ में तुम एक छोटे मकान के छोटे छज्जे पर, सिगरेट पीते हुए
जिस ठसक से भरे दिखते हो न—
‘आज सजन मोहे अंग लगा लो, जनम सफल हो जाए’ गाने में, वैसे!

और वैसे नहीं
विजय की पुस्तक लोकार्पण के समय
हॉल के गेट पर, क्रूसेड पर खड़े ईसा मसीह की तरह

कितनी सारी छवियों में
मिलने न मिलने का निश्चय करते—
‘वक़्त ने किया क्या हसीं सितम’ वाले दृश्य में
डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठे हुए
देखने की बड़ी हसरत है!

(क्या सोचते रहते थे ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ के दरमियान)

कैसे लाइट की लुका-छुपी में
तुमने अपने आँसुओं को छुपा लिया?

और वो माथे की शिकन!
उसके बारे में कब कहोगे?

कैसे, कुछ सफ़ेद झाँकते बालों के बीच
पाइप के धुएँ में, भीतर का सब कुछ हवा कर देते थे?

‘ये रात, ये चाँदनी फिर कहाँ’—से
‘साक़िया, आज मुझे नींद नहीं आएगी, सुना है तेरी महफ़िल में रतजगा है’—तक का सफ़र तुम्हारा

‘जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया
तुम्हारी है तुम ही सँभालो ये दुनिया’

यही तो कहना था न तुम्हें!

और हम नादान
यह भी न समझे कि तुम क्यों ये कहते थे
जबकि तुम फिर-फिर कहते रहे थे—
‘जाने वो कैसे लोग थे, जिनके प्यार को प्यार मिला’

आज आधी सदी के गुज़र जाने पर भी
हम यही गुनगुना रहे, अपने लिए!

तुम्हें कैसे पता चल गया था कि
तुम चले जाओगे
यहाँ से दूर, बहुत दूर
और ये दुनिया तुम्हें खोजते हुए, जब
पहुँचेगी तुम तक,
तुम कहते मिलोगे उनसे—
‘दौर ये चलता रहे, रंग उछलता रहे
रूप मचलता रहे, जाम बदलता रहे’!

गुरुदत्त (1925-1964) संसारप्रसिद्ध अभिनेता और फ़िल्मकार हैं। सुदीप सोहनी से परिचय के लिए यहाँ देखें : समय की प्रतीक्षा अनुभवों की प्रतीक्षा है

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