फ़ातिमा मेहरू की कविताएँ ::
उर्दू से लिप्यंतरण : तसनीफ़ हैदर

फ़ातिमा मेहरू

अहम

चूमना ज़मीन में गड़ी हुई आँखों से
तुम्हारे क़दमों के निशानों को
जब तुम गुज़र जाते हो
देखना हद-ए-समंदर देखने वाली निगाहों से
तुम्हारी पुश्त को
जब तुम जाने लगते हो
सोचना खा जाने वाली नज़रों से
हर उस शै को
जिस पर तुम अनजाने में हाथ धरते हो
मुस्कुराना मसल डालने वाले होंठों से
हर उस बात पर
जिसे तुमने ढंग से कहना नहीं सीखा
भूल जाना शुऊर की आख़िरी मंज़िल से
हर उस काम को
जो तुम्हें सोचने, सोचकर देखने
देखकर मुस्कुराने, मुस्कुराकर चूमने
चूमकर बाक़ी सब भूल जाने से ज़्यादा अहम हो

औरतें हमें धकेलती हैं

हम गंदुम पर इक्तिफ़ा कर लेते
लेकिन हमारे सामने कच्ची रोटी की महक रखी गई
और फिर रोज़े तोड़ने पड़े
हम एक गुनाह पर राज़ी थे
लेकिन उनमें मामता कूट-कूटकर भरी हुई थी
सो हमें सारे सवाब खोने पड़े
हम अपनी ज़मीनों पर मुतमइन होने को थे
कि जंगल में लकड़हारे से मुलाक़ात हो गई
और अचानक बरसात

हमें चार के म’अनी मालूम भी न होते
अगर कभी हम एक से सेर न हुए होते
और इस अमल को ज़र्ब-ए-मुसलसल से न गुज़ारा जाता
हमें हर कुएँ मैं ख़ुदकुशी का शौक़ भी न होता
अगर वो हमारी रात से ज़्यादा गहरे न हो सकते
और पानी मज़ीद सस्ता
हम उनके पैरों तलक रहते
अगर दिल को रास्ता, नाफ़ से होकर न जाता
और दिमाग़, वो तकियों पे न धर आतीं
हमें सुर्ख़-रंग की आदत डाली गई
जिससे उन पर लगने वाले सारे धब्बे हमारे कहलाए
और शराब के म’अनी बदलते रहे
हमें आग से खेलते हुए
एक रात भी मुकम्मल न हुई कि ऐलान हुआ
अपनी मर्ज़ी से खेलने पर हाविया1दोज़ख़ के सातवें दर्जे का नाम, एक बहुत गहरी खोह या गढ़ा। हमेशा के लिए तुम्हारी हुई

चश्मा

वो इससे सारी औरतों को
देखता है
और मैं
सारे मर्दों को

उसे दिन में इससे ब्लैक होल का हाला
और रात में कहकशाँ दिखाई देती है
मुझे, मक्खियों के लिए शहद

सोने से पहले इसे उतारने पर
मैं धुँधला जाती हूँ
और वो मुझे साफ़ नज़र आने लगता है

मुझे हमेशा इसमें अपना माज़ी नज़र आता है
उसे, अपना हाल
सो हम इस बद सूरत-ए-हाल में
मुस्तक़बिल से बे-नयाज़ रहते हैं

इसे ढंग से पहनकर कोई भी
आदम-ओ-हव्वा की जिबिल्लत-ओ-ख़सलत की नाक पर बिना कोई निशान छोड़े
सारे जिस्म का रंगीन सिटी स्कैन कर सकता है

वो उसे ज़्यादा-तर बारिश
और मैं, धूप में इस्तेमाल करती हूँ
इस्तेमाल, अकारत नहीं जाता

उसे, इसमें से सब कुछ सुर्ख़
और मुझे, गंदुमी दिखाई पड़ता है
ये गिर्गटान रंग बदलने में माहिर है

इस चश्मे को रहन रखकर
पानी बेचा
और शहद ख़रीदा जा सकता है

वो सब उसे दिन में खुलेआम बेचने
और रात को, चुपके से ख़रीदने पर तुले हुए हैं
ये मुनाफ़ा-बख़्श कारोबार की ज़मानत है

एक-बार किसी ने इसे बे-ध्यानी से खोला
और जल्द-बाज़ी में जोड़ दिया
अब किसी साइज़ का फ़ीता, दुबारा
इस का नज़ारा एडजस्ट नहीं कर सकता

दरयाफ़्त

क्या तुम वो उदासी दूर कर सकते हो
जो सारे आईने तोड़ देने के बाद
दीवारों में घुस जाती है
क्या तुम वो धुआँ बाहर निकाल सकते हो
जो सारी तसावीर जलाने के बाद
हलक़ में भर जाता है
क्या तुम उस गुलदान को जोड़ सकते हो
जो किसी जाने वाले ने हाथ से गिरा दिया हो
क्या तुम वो आवाज़ें वापिस ला सकते हो
जो किसी मोड़ के आग़ाज़ पर ग़ायब हो जाती हैं
क्या तुम कोई ऐसी चीज़
ईजाद कर सकते हो
जिससे मैं दरयाफ़्त कर ली जाऊँ

शहर-ए-तिमसाल

सारे शहर को
तुमसे सीखनी चाहिए
तन्हाई और ख़ूबसूरती
और तुम्हारी तरह
बिखर जाना चाहिए
धुँध के नाम पर हर तरफ़
तुम्हारी तरह देखना चाहिए
अँधेरे की आँत बने
फ़ुतूर ऐसे शांत बने
सारे शहर को
तुम्हारा लिबास बाँट लेना चाहिए
ढूँढ़ने वालों की आसानी के नाम पर
और तुम्हारी मसरूफ़ियत
बना दी जानी चाहिए
आलमी उलझन की बड़ी वजह
और तुम्हारे कमरे की चीज़ों से
उठाई जानी चाहिए दीवार-ए-आश्नाई
दूर से उठने वाली आँख की ख़ातिर
सारे शहर को
मिलने चाहिए तुम्हारी बद-गुमानी के बरमला तोहफ़े
और रखी जानी चाहिए
मुजस्समा-ए-सुकून की आख़री तहों में
तुम्हारी अनदेखी अध-बिरहना तस्वीरें
सारे शहर को
तुमसे सीखनी चाहिए
बेनियाज़ी, बे-एतनाई
और दलों के बुत की ख़ुदाई


फ़ातिमा मेहरू (जन्म : 1990) वज़ीराबाद, पाकिस्तान में पैदा हुईं। इन दिनों लाहौर में रहती हैं। अँग्रेजी साहित्य में पढ़ाई करने के बाद वह एक स्कूल में पढ़ाती हैं। उनकी नज़्मों का पहला संग्रह ‘दरिया और दरीचे’ के नाम से कोलाज पब्लिकेशन, लाहौर से प्रकाशित हुआ है और इन दिनों चर्चा के केंद्र में है। उनसे fatimamehru7@gmail.com पर बात की जा सकती है। तसनीफ़ हैदर उर्दू की नई नस्ल से वाबस्ता कवि-लेखक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : जुगनू तुम मेरी ज़िंदगी में जबसे आए हो

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