स्मृतिलेख ::
तोषी

सलीम नहीं रहे!

माया (शर्मा) का यह मैसेज पढ़ने में तो आया, पर एक पल के लिए यह समझ नहीं आया कि इस पर कैसे रिएक्ट करना है। एक महीने पहले ही तो मेरी उनसे बात हुई थी। वह मेरे आलेख की तारीफ़ कर रहे थे और उन्होंने कहा था कि जैसे ही यह पैनडमिक थोड़ा-सा भी बेहतर हो, मैं उनसे आकर मिल लूँ।

सलीम किदवई का जाना साहित्य और अकादमिया की गंभीर क्षति है। मेरे लिए यह एक गुरु, सलाहकार और दोस्त के न होने की स्थिति है। मेरे लिए यह अस्तित्वबोध की लड़ाई में हुई एक क्षति है।

यह दूसरी बार है जब मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस हो रहा है कि मैंने वक़्त पर क्यों नहीं कहा कि मैं आपको बहुत प्यार करती हूँ। यूँ तो मैंने बहुत बार सलीम सर (मैं उनको दादा कहती थी) से यह कहा है : “मैं आपसे प्यार करती हूँ।’’ और जवाब में उन्होंने कहा है : ‘‘मुझे तुमसे बेहतर काम करने की उम्मीद है। मैं तुम पर भरोसा करता हूँ।’’

मुझे उनसे किए गए ‘जीवन कैसे जिया जाए…’ के सवाल याद आते हैं। मुझे यह भी याद आता है कि उन्होंने मुझे गांधी को बार-बार पढ़ने की सलाह दी थी। उनके हिसाब से हम यह मान भी लें कि कोई ख़राब है, पर यदि उसमें कुछ अच्छा है तो उसको ले लेना ही बेहतर है।

यह दुःख के गहरे होने के पल हैं। इनमें एक अजीब-सी उत्तेजना है। मैं ख़ुद पर ग़ुस्सा हूँ। मुझे अभी उनसे बहुत कुछ सीखना था और बहुत कुछ पूछना था और बहुत कुछ जानना था।

सलीम सर ने मुझे बहुत कम वक़्त में बहुत सारा प्यार दिया था। वह लगभग हर तीज-त्यौहार पर मैसेज कर देते थे। मुझे अब भी याद है कि उनसे मेरी सबसे पहली बातचीत इतनी अधीर थी कि मैं उनसे लगभग लड़ ही गई थी। इस पर उन्होंने बहुत शांत तरीके से जवाब दिया था। मैंने उनसे कितनी शिकायतें की थीं, यह सोचे बग़ैर कि आज मैं जिस जगह पर उनसे लड़ रही हूँ, वह जगह उनकी ही बनाई हुई है।

इन दिनों वह बहुत परेशान से थे। उनके हिसाब से जिस समाज की कल्पना में उन्होंने अपना जीवन लगाया, वह समाज बहुत बुरी तरह से बिखर रहा है। वह कहते थे :

‘‘आंदोलन मेरी चीज़ नहीं है और हर कोई क्रांतिकारी होकर सामने से लड़ाई लड़े, यह ज़रूरी नहीं है। मेरी लड़ाई तो बहुत लंबे समय तक अपनी देह और अपने ईश्वर से रही है। अब मैं थक गया हूँ। मैं सिंगल हूँ और अब मैंने ख़ुद को पा लिया है।”

मैंने पूछा था कि यह ख़ुद को पाना कैसा होता है? उन्होंने कहा था :

‘‘ख़ुद को पाना पानी जैसा है। पानी जिसके 70% से हम बने हैं, पर हमें प्यास लगती रहती है ताकि हम इस बात को भूल न जाएँ कि हमें ख़ुद को लगातार खोजना है। इस अर्थ में ख़ुद को पा लेना रोज़ पाँच गिलास पानी पीना है। यह सफ़र हमारी रक्षा करेगा।’’

वह बेहद सरल और बेहद शौक़ीन तबियत के थे—उर्दू भाषा, अदब और मध्यकालीन भारत के जानकार। उनकी धरोहर के तौर पर ‘सेम सेक्स लव इन इंडिया’ शायद हर उस व्यक्ति की मदद करेगी जो अपना अस्तित्व अपने धर्म, अपनी सभ्यता और अपने मुल्क में खोज रहा होगा।

सलीम का ज़िक्र हो और बेगम अख़्तर और आग़ा शाहिद अली का ज़िक्र न हो, यह मुमकिन नहीं है। जिस रात बेगम अख़्तर का इंतिक़ाल हुआ, शाहिद और सलीम दिल्ली में साथ थे और शाहिद इतना परेशान हुए थे कि वह पूरी रात सो नहीं पाए थे; जबकि सलीम बेगम अख़्तर के आख़िरी दीदार के लिए अपने दोस्तों से आर्थिक मदद माँग रहे थे ताकि वह फ़्लाइट के ज़रिए दिल्ली से लखनऊ जा सकें। उस रात शाहिद ने बेगम के लिए एक कविता लिखी। शायद यह उनका मलाल था कि वह उन्हें बार-बार यह नहीं कह पाए कि वह उन्हें बहुत प्यार करते हैं।

हमारे बीच से लोग बस चले जाते हैं। मैं कुछ दिन पहले ही एक आर्टिकल पढ़ रही थी। यह आर्टिकल जीवन और मृत्यु के बारे में था। उसमें लिखा था : life is a gift and it will be taken. यह ख़याल मुझे एक पल के लिए इतना भयावह लगा कि यह सोचने में मुझे अभी भी बहुत उलझन होती है कि मृत्यु एक सच है। अब मुझे इसका मतलब बहुत स्पष्ट समझ आ रहा है कि केवल आपका जीवन ही उपहार नहीं है, आपको मिले लोग भी उपहार हैं और एक दिन वे उपहार आपसे वापस ले लिए जाएँगे। आपको वक़्त रहते उनकी क़द्र करनी चाहिए। आपको एक भी मौक़ा नहीं छोड़ना चाहिए यह कहने का कि आप उन्हें प्यार करते हैं। क्योंकि किसी के न रहने के बाद इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप उस व्यक्ति के रहते हुए उसके लिए क्या महसूस करते थे।

सलीम सर की एक बात जो मुझे बेहद अच्छे से याद है कि जब मैं उनसे ऑलमोस्ट लड़ ही रही थी—सेक्सुअल आइडेंटिटी को प्राथमिक तौर पर देखे जाने के लिए… उन्होंने कहा था :

‘‘किसी भी तरह की पहचान आपकी एकमात्र पहचान नहीं हो सकती है। वह सब एक गोले में है। मैं सलीम हूँ, मुस्लिम हूँ, गे हूँ और एक शांत इंसान—मेरी समझ में…। मैं सिर्फ़ गे नहीं हो सकता हूँ। अतः मेरी अन्य पहचानें मेरे लिए उतनी ही ज़रूरी हैं जितनी कि गे पहचान। यह बात जितनी जल्दी सीख लोगी, जीवन आसान और अकेलापन कम हो जाएगा।’’

मेरे अंदर इस वक़्त इतना सारा दुःख और द्वंद्व एक साथ चल रहा है कि मुझे अभी भी शब्द नहीं मिल रहे हैं। मुझे पता है कि अब मोबाइल में कभी सलीम सर नाम का नोटिफ़िकेशन नहीं आएगा। वह लंबे समय से बीमार थे और बहुत सारी शारीरिक समस्याओं से जूझ रहे थे, पर इस सब पर भी उनका जाना मेरे लिए एक बेहद तकलीफ़देह घटना है। मैंने आख़िरी मुलाक़ात में उनसे सीखा था कि हम अपने गुज़र गए लोगों को सुगंध से याद रखते हैं… उन्हें जैस्मिन पसंद था। मैं उन्हें इस सुगंध में याद रखूँगी…


सलीम किदवई और तोषी से और परिचय के लिए यहाँ देखिए : ‘वैधता की चाह बहुत बड़ी चाह होती है’

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