इफ़्तिख़ार नसीम की कविताएँ ::
उर्दू से लिप्यंतरण और प्रस्तुति : तसनीफ़ हैदर
उर्दू में समलैंगिकता के लिए कोई तहरीक (आंदोलन) नहीं चलाई गई। सुनते हैं कि शिकागो (अमेरिका) में इफ़्तिख़ार नसीम नाम के एक शाइर थे, उनका कुछ कलाम पढ़ा है। बहुत अच्छा मालूम हुआ। मगर देखते हैं कि अब उनका भी कोई नामलेवा नहीं है। वजह यह थी कि वह खुले तौर पर अपने ‘गे’ होने को स्वीकारते थे। हमारे एक दोस्त वाजिद अली सय्यद के कहने के मुताबिक़, वह अपने एक सरदार पार्टनर के साथ रहते थे। ज़िंदगी भर उनके घरवालों ने उन्हें नहीं अपनाया, मगर उनके मरते ही, उनकी जायदाद पर क़ाबिज़ होने के लिए तुल गए। अस्ल में ये सब बातें बताती हैं कि समलैंगिकता के ख़िलाफ़ हमारा यह ग़ैरक़ुदरती का प्रलाप कैसी सोची-समझी साज़िश है।
दूसरा जो ख़ौफ़ हम पर तारी किया जाता है, यानी यही कि दुनिया का निज़ाम तह-ओ-बाला हो जाएगा, ये इस सिलसिले में भी था कि अगर ओपन रिलेशनशिप्स को क़बूल कर लिया गया तब भी ऐसा होगा, जबकि हम देखते हैं कि दुनिया के तक़रीबन तमाम मुल्कों में इन रिश्तों को क़बूल कर लिया गया है और उनसे ऐसा कोई नुक़सान नहीं हुआ, कोई उथल-पुथल नहीं मची। दुनिया तबाह नहीं हो गई।
यहाँ इस हवाले से भी उर्दू समाज को देखने की ज़रूरत है कि यहाँ आशिक़ को सीधा कुफ़्र के ख़ाने में फ़िट करने के लिए ‘परस्त’ का साबिक़ा (प्रत्यय) फ़िट कर दिया जाता है। कोई इश्क़ करे तो उसे हुस्नपरस्त कह दो और कोई अपने हम-जिंस (यानी अपने ही जेंडर के किसी शख़्स) से मुहब्बत करे तो उसे हम-जिंसपरस्त कह दो। ये साबिक़े यूँ ही नहीं जोड़े जाते, इनके पीछे मज़हबी समाज की उल्टी गंगा बहती है। परस्त का मतलब है पूजने वाला, और जो पूजता है वो इस्लामी शब्दावली में काफ़िर या हाशिए पर पड़ा हुआ शख़्स होता है। सोचिए, ग़ालिब ने इस लफ़्ज़ के बोझ को कितनी शिद्दत से महसूस किया होगा, जब उन्होंने लिखा :
ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश दिया क़रार
क्या पूजता हूँ उसे बुत ए बेदाद-गर को मैं
एक ऐसे समाज में जहाँ किसी की वंदना पाप समझी जाती हो, वहाँ ‘परस्त और ‘पसंद’ में जो बारीक-सा फ़र्क़ है; उसे जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया जाता है। उर्दू की मशहूर वेबसाइट ‘रेख़्ता’ पर जाइए। उसके उर्दू पेज पर इफ़्तिख़ार नसीम के तार्रुफ़ के तौर पर आपको यह जुमला उनके नाम के साथ चस्पाँ नज़र आएगा : ‘‘हम-जिंसपरस्त पाकिस्तानी शायर जो अमरीका में रहते थे।’’
अब इस हवाले से समझ कर देखिए कि किसी शाइर की शेरी पहचान के लिए सबसे पहले तार्रुफ़ कराने वाले के ज़ेहन में जो बात आई वह यह कि इफ़्तिख़ार नसीम हम-जिंसपरस्त थे और दूसरे यह कि वह अमरीका में रहते थे। कोई पूछे कि भाई! इन दोनों बातों का उनकी शाइरी से क्या ताल्लुक़?
क्या किसी दूसरे शाइर के सामने उसके सेक्सुअल स्टेटस यानी ‘स्ट्रेट’ होने को इसी तरह मेंशन किया गया है। अगर यह कहा जाए कि इफ़्तिख़ार नसीम से छुटकारा पाने के लिए ये दो बातें हमारे मशरिक़ी समाज में काफ़ी हैं तो ग़लत नहीं होगा कि अव्वल तो वह समलैंगिक हैं और दूसरे उस दुनिया में रहते हैं। यही एक दरमियानी वजह इस बात की हो सकती है कि बहुत अच्छे शाइर होने के बावजूद इफ़्तिख़ार नसीम के काम पर कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया गया है।
— तसनीफ़ हैदर
इफ़्तिख़ार नसीम की नज़्में
जुगनू नाम है
जुगनू
ये कभी न सोचना
कि जब तुम अन-देखे सफ़र पर रवाना हुए थे
मैं तुम्हें ख़ुदा हाफ़िज़ कहने नहीं आया था
मैंने तुम्हें अस्पताल में कब छोड़ा था
मैं तो तुम्हें वैसे ही अपने सीने से
लगाए दफ़्तर आ गया था
दुनिया से जंग लड़ने के लिए
जिसमें तुम हमेशा मेरी ढाल बने हो
जब भी मैं अपने दुश्मन से शिकस्त-ख़ुर्दा होकर
अपने ज़ख़्मों की तकलीफ़ से कराहता था
तुम उसी वक़्त मेरे पास आकर
अपनी नर्म और गर्म खाल से
उनपर मरहम का फाहा रख देते थे
तुम अपनी मासूम आँखों से मेरी तरफ़ देखते थे
तो मुझे अपनी ख़ुफ़िया और ख़ुफ़ता1सोया हुआ तवानाइयों पर
यक़ीन आने लगता
तुम्हारी शरारतें मुझे
तुम्हारे साथ खेलने पर मजबूर कर देतीं
और मैं ख़ुद तरह्हुमी2स्वयं पर दया के जाल से बाहर निकल आता
जुगनू
तुम मेरी ज़िंदगी में जबसे आए हो
मुझे इंसानों पर दुबारा यक़ीन
आने लगा है
मुझे अमन के ख़्वाब फिर से दिखाई देने लगे हैं
मुझे इल्म था कि तुम इक फ़रिश्ता हो
तुम एक दिन वापस चले जाओगे
लेकिन मुझे ये इल्म नहीं था
कि वो दिन
इतनी जल्दी आएगा
जुगनू के नाम
किसी ने कहा था जानवरों से प्यार करो
बच्चे—खिलौनों से ही खेलते अच्छे लगते हैं
पालतू रखना तो अय्याशी होती है
तुमसे बिछड़े और बचपन की हद से निकले
मुझको तो इक उम्र हुई
फिर भी मैंने अपने अंदर के बच्चे को
बालिग़ होने और मरने से रोक रक्खा है
बच्चे भी तो घर के पालतू होते हैं
अब तो सब कुछ पास है मेरे
फिर भी ऐसा क्यों होता है
जब मैं रात को सो जाता हूँ
इक बिल्ली दरवाज़े के बाहर आती है
रात गए रोती रहती है
इफ़्तिख़ार नसीम की ग़ज़लें
एक
यूँ है तिरी तलाश पे अब तक यक़ीं मुझे
जैसे तू मिल ही जाएगा फिर से कहीं मुझे
मैंने तो जो भी दिल में था चेहरे पे लिख लिया
तू है कि एक बार भी पढ़ता नहीं मुझे
ढलते ही शाम टूट पड़ा सर पे आसमाँ
फिर मेरा बोझ ले गया ज़ेर-ए-ज़मीं मुझे
ता’बीर जागती हुई आँखों को क्या मिले
इक ख़्वाब भी तो शब ने दिखाया नहीं मुझे
कंदा है मेरा नाम जहाँ आज भी ‘नसीम’
पहचानते नहीं उसी घर के मकीं मुझे
दो
अपना सारा बोझ ज़मीं पर फेंक दिया
तुझ को ख़त लिक्खा और लिखकर फेंक दिया
ख़ुद को साकिन देखा ठहरे पानी में
जाने क्या कुछ सोच के पत्थर फेंक दिया
दीवारें क्यूँ ख़ाली ख़ाली लगती हैं
किस ने सब कुछ घर से बाहर फेंक दिया
मैं तो अपना जिस्म सुखाने निकला था
बारिश ने फिर मुझ पे समुंदर फेंक दिया
वो कैसा था उस को कहाँ पर देखा था
अपनी आँखों ने हर मंज़र फेंक दिया
इफ़्तिख़ार नसीम (1946–2011) की यहाँ प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में लिप्यंतरण के लिए ‘सबरस’(अंक 10-11, अक्टूबर, 1992) से ली गई हैं और उनकी ग़ज़लें ‘रेख़्ता’ से साभार हैं। इफ़्तिख़ार नसीम ‘इफ़्ति’ पाकिस्तान में जन्मे और जवाँ उम्र में ही अमेरिका जा बसे, जहाँ उन्होंने अपनी ज़िंदगी उर्दू लेखनी को सौंप दी। उनके कविता-संग्रह ‘ग़ज़ाल’, ‘मुख़्तलिफ़’, ‘एक थी लड़की’ और ‘आबदोज़’ के नाम से प्रकाशित हुए। तसनीफ़ हैदर उर्दू की नई नस्ल से वाबस्ता कवि-लेखक हैं। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के क्वियर अंक में पूर्व-प्रकाशित।