सुपर्णा मंडल की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : अमन त्रिपाठी

सुपर्णा मंडल

बीस वर्ष बाद

अभी भी हम ज़िंदा हैं
छूकर देखो

देखो वह नींबू का पेड़ वहीं था
जहाँ है
टगर का यह पेड़ भी
यहीं पर था

सीढ़ियाँ लेकिन धीरे-धीरे चढ़ना
सब कुछ बदल गया है यहाँ पर
हमारे प्यार के सिवाय

शून्य

देखो तो,
इस दो-मंज़िला मकान में
अब कोई नहीं रहता
चार लोग थे
अब दो ही रह गए हैं
वे भी चले जाते हैं काम पर
जिस शून्य से उन्होंने यह घर खड़ा किया
अब वही शून्य गूँजता है
इस घर में

खोई हुई चिट्ठियाँ

चिट्ठियाँ खो गई हैं
बीच रास्ते में शायद
और तुम इस अभिमान में बैठे हो
कि अब तक जवाब नहीं आया

जब बीच में बहुत दूरी हो
तो ऐसा होता है
ऐसे में बहुत समय लग जाता है
आने-जाने में

बूँद-बूँद संचित होता रहता है
वाष्पित अभिमान

फिर एक दिन मेघ आते हैं चारों दिशाओं से
छा जाते हैं
और फिर आकाश से बरस पड़ती हैं
खोई हुई लाख-लाख
चिट्ठियाँ

संदेह-लाभ

बिना कहीं गए
किसी के लिए संभव नहीं लौटना

(इसलिए) तुम जान नहीं पाओगे कभी
क्या है दरअस्ल
मेरी आदत

चले जाना
या लौट आना—?

फ़सल का शोक

मुझे बारिश में आँसू दिखते हैं
पिताजी को दिखते हैं धान
खेती करना छोड़ दिया है जाने कब से
फिर भी जब बारिश आती है
या फिर जब गर्मी पड़ती है
और बहुत जाड़े में भी—
मैं देखती हूँ उनकी आँखें
वे बूढ़ी आँखें बन जाती हैं
मानो किसी खेत का दर्पण

जब बारिश कम होगी तो धान बोए न जा सकेंगे
बारिश ज़्यादा होगी तो डूब जाएँगे धान
ये सब हिसाब-किताब
उनकी संतानें भूल चुकी हैं

फिर भी नज़र चली जाती है
कभी-कभी खेतों की ओर
बारिश में दिखते हैं जो
वे फसलों का शोक हैं आँसू

जुगनू-पेड़

तुमने कहा, ‘कितनी दूर हैं आकाश के तारे!’
और पृथ्वी ने जुगनुओं से सजा दी पेड़ की देह

तुमने कहा, ‘बहुत दूर चला जाऊँगा’
और पृथ्वी ने तुम्हारे पैरों के नीचे सरसों बिछा दी

जुगनुओं के जन्म से बहुत पहले ही
मर चुके हैं बहुत-से तारे
फिर भी तुम कहते हो, ‘जुगनुओं का जीवन
इतना छोटा क्यूँ होता है?’

पेड़ को सोचती हूँ

आजकल पंछी बहुत क़रीब चले आते हैं
तो क्या मैं धीरे-धीरे
एक पेड़ में तब्दील होती जा रही हूँ?
हो सकता है यह घर
कभी कोई बहुत बड़ा पेड़ हो
अपनी पीढ़ियों की स्मृति पर सवार होकर
चला आता हो वह पक्षी
खिड़की की ग्रिल पर

मैं भी खिड़की पर बैठे-बैठे
पेड़ को सोचती हूँ आजकल

गुमशुदगी की ख़बर

तेज़ बारिश के शोर में मैं
तुम्हें ही खोजती हूँ
यह तुम्हारे गुम हो जाने का समय है

बूँदों की ओट में दिखता नहीं है तुम्हारा चेहरा
गुमशुदगी की ख़बरें अख़बारों से धुल चुकी हैं
बारिश में भीग-भीगकर

कामिनी कब खिलती है
यह ख़बर मुझ तक
कौन पहुँचाएगा

अख़बारों के पन्ने
बारिश में धुलकर सफ़ेद हो चुके हैं
कामिनी की तरह


सुपर्णा मंडल बांग्ला की नई पीढ़ी की कवि-अनुवादक हैं। वह विश्व-भारती, शांतिनिकेतन में तुलनात्मक साहित्य केंद्र में शोधार्थी हैं। उनकी कविताओं की एक किताब (एसब अनेक आगेर लेखा) वर्ष 2022 में प्रकाशित हो चुकी है। अमन त्रिपाठी हिंदी की नई पीढ़ी के कवि-अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : ‘या रब हमेशा रखियो तू आबाद आगरा’

1 Comments

  1. सुमित त्रिपाठी जून 17, 2024 at 3:59 पूर्वाह्न

    सुंदर कविताएँ। कवि और सदानीरा को बधाई।

    Reply

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