नज़्में ::
बकुल देव

बकुल देव

पुरानी तस्वीर

समय वो और ही था
कि सच पहला अक़ीदा था हमारा
कि सच की जुस्तजू पर वार देना चाहते थे
हम अपनी उम्र सारी
कि मर जाने को भी तैयार थे हम

पुराने फ़्रेम में धुंधली-सी ये फ़ोटो हमारी
सनद है आख़िरी गोया उसी उजले समय की
जिसे अब देख कर बेसाख़्ता याद आ गया है
कि सच पहला अक़ीदा था हमारा

गए बरसों में लेकिन
खुला है ये भी हम पर रफ़्ता-रफ़्ता
कि सच को जान लेना भर भी क़ारआमद नहीं है

हमारा मसअला अब और ही है…

अगर मिल भी गया सच
भला किस काम आएगा हमारे?

ज़मीं के ज़र्द चेहरे पर उगेगा रंग कोई?
सुबुक दरिया में क्या फिर से रवानी आ रहेगी?
हमारे ख़्वाब क्या ताबीर में ढलने लगेंगे?

नहीं… ऐसा तो कुछ होना नहीं है…
यक़ीनन कुछ नहीं होना है ऐसा…

तो फिर किस काम का सच?

ज़ियादा से ज़ियादा बस ये होगा
ख़फ़ा दुनिया को कर देंगे
बढ़ा लेंगे ज़रा तादाद अपने दुश्मनों की

ये धड़का भी है दिल को
वही सच
हमारा ही मुख़ालिफ़ हो गया तो!

कहाँ पहचान में आता है चेहरा
पुराने फ़्रेंम में धुंधली-सी ये तस्वीर किसकी है न जाने
जिसे यूँ देख कर बेसाख़्ता याद आ गया है…

कि अपनी उम्र के उस मरहले पर आ चुके हम
जहाँ पर आग दिल की
हुआ करती है धीरे-धीरे पानी
अक़ीदों के मिनारे हो ही जाते हैं शिकस्ता
हक़ीक़त रफ़्ता-रफ़्ता हो ही जाती है कहानी

ये ऐसा मरहला है
जहाँ होना हमारा
फ़क़त होना हमारा भी नहीं हक़ में हमारे

समय ये और ही है…

मुहब्बत की नज़्म

जबीं आइना रू
और उसके ही साये में
दो नीलगूं साफ़ शफ़्फ़ाफ़ झीलें
चमकती हुईं-सी…

गुलाबी से आरिज़
कबा गुल की पहने हुए सुर्ख़ लब दो
सियह ज़ुल्फ़ कांधों प गिरती हुई-सी

तुझे याद होगी
धनक रंग वाली वो तस्वीर तेरी…

अजब वाक़या है
अब इक साल के बाद
तस्वीर में…
तेरा चेहरा दमकने लगा है ज़ियादा
कि मुस्कान भी कुछ सिवा है कुशादा

मिरा सोचना है
पसे चेहरा तेरी
धनक रंग तस्वीर में रंग मेरा भी
शामिल था पिछले… हाँ पिछले बरस तक
वही रंग गहरा
तुझे याद होगा…

ये क्या सानिहा है
गुज़श्ता बरस में अज़ाब ऐसे गुज़रे
पसे चेहरा जो ख़ुशनुमा-सा था मंज़र
बिखर-सा गया है
अब उड़ने लगी है वहाँ गर्द आख़िर
मिरा रंग हो ही गया ज़र्द आख़िर

यही मोजिज़ा है
मिरा ज़र्द मंज़र
पसे चेहरा तेरे महकने लगा है

कि चेहरा ये तेरा दमकने लगा है!

उमीदे आमदे शब

रात की शाख़ पर
ग़ुंचा ए ख़्वाब है
खुल रही है गिरह अब्र की उस तरफ़
इस तरफ़ इक तमाशाई महताब है
तीरगी के निसाबों में पहले पहल
जुगनुओं की क़तारों का इक बाब है

आ! तख़य्युल को थोड़ा कुशादा करें
सुन ज़रा दिल मिरे
जश्ने बादा करें

इक ज़रा देर को
भीग लें हम भी बेख़ौफ़ बरसात में
तोड़ लें चंद पत्ते उछल कर
लरज़ती हुई शाख़ से
तितलियों के परों को
लिबादा करें…

सुन ज़रा दिल मिरे
जश्ने बादा करें

इस घनी रात में
नम ज़मीं की महक से मुअत्तर फ़ज़ा को
लगाएँ गले
साअते बर्क़ में
रक़्स देखें चमेली के बूटे का हम
चाँदनी रात से इस्तिफ़ादा करें…

सुन ज़रा दिल मिरे
जश्ने बादा करें

याद ये भी रहे
मेरे पुरख़्वाब दिल
सुब्ह की ज़र्ब से
शब छिटक कर अगर गिर पड़े हाथ से
ख़्वाब गर टूट जाए
सँभाला हुआ
एक मुद्दत से आँखों में पाला हुआ

हम प लाज़िम है ये
फिर उसी शब की आमद प कर के यक़ीं
मुस्कुराएँगे हम…

अबके सोए तो सोते ही जाएँगे हम!

एक्लिप्स

देखते-देखते ख़लाओं में
जाने किसका ख़याल दर आया
रौशनी से नहा गया मंज़र
जगमगाने लगी मिरी आँखें…

देखते-देखते हुआ फिर यूँ
मुस्कुराहट का एक सय्यारा
रफ़्ता-रफ़्ता फ़लक प हो के नुमू
हँस दिया मेरी ख़ुशहवासी पर…

और गहन लग गया उदासी पर!

नजात

हाँ ये सच है कि सत्हे दिल प मिरे,
चंद गिरहें पड़ी हैं मुद्दत से,
चंद गिरहें जो एक लम्स के बाद,
खुल भी सकती हैं खुल भी जाएँगी।
यानी यूँ है कि मुझको राहे नजात,
मिल भी सकती है मिल ही जाएगी।

हाँ मगर उस गिरह का क्या होगा,
जो बनेगी उस एक लम्स के बाद,
एक तरकीब ए नाशनासा से…
एक होनी जो टल नहीं सकती।
यानी यूँ है नजात ए दुनिया की,
कोई सूरत निकल नहीं सकती…

ये गिरह मुझसे खुल नहीं सकती!

शिकस्त ए शऊर

एक आवाज़ इसकी मसनद से
एक तक़रीर उसके मिम्बर से
तालियाँ पीटते अवाम इधर
नश्शे में झूमते ख़वास उधर

एक नौहा किसी के नाम का है
फिर क़सीदा किसी की शान में है
ये तमाशा दिखाते शोबदागर
करते जाते हैं हर महाज़ को सर

और हम लोग हम बिचारे लोग
हम जो मानूस हैं उजालों से
हम जो माज़ूर हैं ख़यालों से
इतने माज़ूर इस क़दर माज़ूर
शोबदागर के ही ख़यालों को
अपनी तज़वीज मान लेते हैं
एक तावीज़ मान लेते हैं

और फिर मोजिज़ा ये होता है
शोबदाबाज़ियों के मारे लोग
हाँ हमीं लोग हम बिचारे लोग
अपनी हस्सासियत छुपाते हुए
दिल का नामो निशाँ मिटाते हुए
ओढ कर एक मसनुअ़ी किरदार
भीड़ की शक्ल होते जाते हैं

कितने कम-अक़्ल होते जाते हैं!

वसीले

मैं दिखाई अभी नहीं दूँगा
नज़्मों ग़ज़लों में
या कि गीतों में

कोई अफ़साना ही निकल आए
मुझ से
मेरा हो जो
मिरे जैसा
इस के इम्कान भी
बहुत कम हैं…

मैं अभी हूँ
रुँधे हुए से गले में
कहीं प अटका हुआ
आँखें जो हो चुकी हैं पत्थर की
मैं उन्हीं में दबा हूँ
सहमा हूँ
काँपते होंठों के नीचे
छुपा हुआ हूँ अभी…

बस यही इंतज़ार है मुझको
शोर कुछ कम हो
इन फ़ज़ाओं में
रौशनी भी ज़रा-सी मद्धम हो
कुछ सहूलत भी चाहिए मुझ को
ऐसा माहौल
हो सकूँ ज़ाहिर…

दरहक़ीक़त कोई ज़बान हूँ मैं
जिसको दरयाफ़्त किया जाना है
बेज़ुबानी के कुछ वसीलों से!

अलाव

एक हल्क़ा था रौशनी का कभी
गिर्द थे जम्अ कितने अफ़साने
मुस्कुराते हुए शफ़क़ चेहरे
रंग उड़ाती हुई धनक आँखें
इक सुलगते हुए नज़ारे पर
रक़्स करते हुए शरारे कुछ

और अब इक मुहीब सन्नाटा
राख के ढेर पर है पसरा हुआ
राख चढ़ कर हवा के कांधों पर
बेनियाज़ी से कर रही है सुनो
सर्द रातों की फ़त्ह का ऐलान

अब न चेहरे यहाँ न अफ़साने
अब ये आलम भी हो चुका तारीक
अब तो कुछ भी नहीं है पहले-सा

सख़्त मुश्किल है अब यक़ीं करना
फिर भी समझाए जा रहा हूँ मैं
कुछ तमाशाइयों को मुद्दत से

हाँ! यहीं इक अलाव रौशन था!

तस्बीह के दाने

सुमिरनी हाथ में ले कर
न जाने देर तक क्या बुदबुदाती थी मेरी दादी

कोई मंतर…
किसी का नाम…
जाने क्या?

समझ आता न था कुछ…

जहाँ तक याद पड़ता है
ख़ुदाओं पर यक़ीं तब भी नहीं था…

मगर हाँ…

हम उस मंज़र के शैदाई थे
जिसमें काठ के मनके
मुसलसल उँगलियों के बीच
गर्दिश करते रहते थे…

बहुत मुद्दत हुई इस बात को अब…

और इस मुद्दत में हमने
उम्र के दरिया का पानी बहते देखा

ग़मों के कोह काटे
ख़ाक उड़ाई
इश्क़ के बूटे लगाए…

हँसे रोए
उदासी की घटाओं को निहारा
बेख़ुदी की छाँव में सोए…

हम अपने आप ही से मुतमइन थे…
ख़ुदाओं की ज़रूरत ही नहीं थी!

हमारा नूर हम पर छन रहा था…
ये मंज़र रफ़्ता-रफ़्ता बन रहा था

मगर कुछ दिन से ये लगने लगा है
ये मंज़र वाहिमा था!

ख़याल आता है अब ये
ज़मीं भी काठ का मनका हो गोया…

मुसलसल जो किसी की उँगलियों के बीच गर्दिश कर रहा है

ख़ला में गूँजता रहता है हरदम…

कोई मंतर…
किसी का नाम…
जाने क्या?

समझ आता नहीं कुछ

ख़ुदाओं पर यक़ीं अब भी नहीं है

मगर मंज़र के शैदाई को अब इक जुस्तजू है…

कि आख़िर कौन
इस तस्बीह के दाने घुमाए जा रहा है!

ख़्वाहिशे बेजा

वही इक ख़्वाहिशे बेजा
कि हर मंज़र के पहले उसका पसमंज़र दिखाई दे।
कि माज़ी भी नज़र आए
कि मुस्तक़्बिल दिखाई दे।

जो अपना है दिखाई दे
पराया भी दिखाई दे
बिछड़ना है जिसे उसका
बिछड़ना भी बिछड़ने से ज़रा पहले दिखाई दे।

उदासी के दरख़्तों पर
कभी कोई हरी फुनगी ख़ुशी की भी दिखाई दे।

बहुत मुमकिन है ये ख़्वाहिश न हो
इक ख़्वाब हो मेरा
कुहासे की तरह जिसने नज़र को घेर रक्खा हो।

यही इक ख़्वाहिशे बेजा
नज़र कुछ भी न आने का सबब हो भी तो सकती है…

नज़र आएगा कुछ
या फिर नज़र कुछ भी न आएगा?

इसी बेजा इरादे से मैं पलकें मूँद कर अपनी
बड़ी मुद्दत से बैठा हूँ
कुहासा छँट गया तो देर तक देखूँगा जी भर के!

बकुल देव सुपरिचित उर्दू शाइर हैं। उनसे bakuldeo@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति से पूर्व वह ‘सदानीरा’के लिए जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कुछ कविताओं का दिलचस्प अनुवाद कर चुके हैं। यहाँ प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में उन्होंने ख़ुद लिप्यंतरित की हैं। पाठ में मुश्किल लग रहे शब्दों के मा’नी जानने के लिए यहाँ देखें : शब्दकोश

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