मुनीर मोमिन की नज़्में ::
उर्दू से लिप्यंतरण : मुमताज़ इक़बाल

मुनीर मोमिन │ तस्वीर सौजन्य : the baloch news

सम्मो! तुझे क्या पसंद है

सम्मो! तुझे क्या पसंद है?
इस नगरी में रवाँ महकती पुरवा
या बादलों से बुनी हुई शाम का दिल

सम्मो! तुझे क्या पसंद है?
मैं तिरे ख़ेमे के दरीचे में चाँद रख दूँ…?
तू क्या कहती है?

सम्मो! तुझे क्या पसंद है?
वो सितारा लाऊँ और तेरे तईं नाव में तब्दील कर दूँ
क्या तू समुंदर की नम आलूद सरगोशियाँ लिए
मुझसे मिलने आएगी?

सम्मो! तुझे क्या पसंद है?
इन दिनों मेरा दिल मुझसे कहता है :
तेरी ख़ूबसूरती को गिरफ़्त में लूँ और तुझे एक गीत में ढाल दूँ
फिर शाम को तरतीब-वार बैठे परिंदों के सामने ये धुन बिखेर दूँ!
परिंदे भी तिरी उदास धुन गुनगुनाएँ
मैं इन्हें सुनूँ

सम्मो! तुझे क्या पसंद है?
नगरी में बहती पुरवा… शाम का दिल
महताबी दरीचा… सितारे की नाव

या परिंदे की मिनक़ारों पर मूसीक़ियत से पुर तेरे हुस्न का तराना…!
सम्मो! तुझे क्या पसंद है?

रात और चराग़ के दरमियान

एक

रात और चराग़ के दरमियान
जो कुछ भी मौजूद है… मेरा है
एक नम आलूद आज़ादी
जैसे कोई थका हुआ शख़्स
अपने आँगन का दरवाज़ा खुलने से पेशतर
दहलीज़ पर ही ख़्वाब में चला जाए

रात और चराग़ के दरमियान
तितली का एक पर
मेरे हाथ बढ़ाने पर किसी सरगोशी की तरह मेरी हथेली में आ गया
मैं सुब्ह रौशन हो जाने से पहले
रात और चराग़ के दरमियान की
ज़मीन पर झाड़ू देकर
नमीदा आज़ादी और तितली का पर
अपनी दुआओं में भिगो कर
तेरा बुत बनाना चाहता हूँ
क्योंकि रात और चराग़ के दरमियान
जो कुछ भी मौजूद है… मेरा है।

दो

गलियाँ भाग-भाग कर थक गईं
और अपने पाँव के छाले मेरी आँखों में रख दिए
मेरा अपना ख़्वाब हथेली में है
रात की सीढ़ियाँ शिकस्ता हो गईं
और चराग़ का दरवाज़ा बंद है
मेरे ख़्वाब,
नौ-ज़ाइदा भूके परिंदों की तरह शोर कर रहे हैं
मैं हैरान हूँ
ज़माना अपनी हाजतें कहाँ सुलाता है
हवा शाम के वक़्त बस खिड़की से
अपना रोज़ीना वसूल करती है
बादल अपने भीगे दामन कहाँ निचोड़ते हैं
मुझे गलियों के आब्ले
और हथेली में धरा ख़्वाब
तेरे साथ बाँटने हैं
रात और चराग़ के दरमियान
कोई तराज़ू धरा हुआ है
एक पलड़े में आब्ले
और एक पलड़े में ख़्वाब
आ इन्हें बाँटें
क्योंकि
रात और चराग़ के दरमियान
जो कुछ भी मौजूद है… मेरा है।

तीन

चराग़ की उस ओर
एक शहर की गलियाँ आपस में खेल रही हैं
लोग बदलने का खेल
जो गली ज़ियादा लोग बदल लेती है
वो कामयाब हो जाती है।

शहर की पुश्त से
एक बीमार बाज़ार की रगों में
उड़ेली जा रही है ख़्वाबों की दवा
लेकिन रात और चराग़ के दरमियान
शहर मौजूद है न गली और न ही खेल
बाज़ार न ख़्वाब न ही दवा
और जहाँ कुछ मौजूद नहीं
तुझे वहीं होना चाहिए!
और चराग़-ओ-शब के दरमियान
जो कुछ भी मौजूद है… मेरा है।

नज़्मों की बस्ती

इस शहर की सिपाह तितलियाँ हैं
और मोहल्लात की ईंटें चराग़
सितारे, यहाँ आँखों में घोंसला बनाते हैं
ये मेरी नज़्मों की बस्ती है
यहाँ तमन्नाओं की आग
ता-हाल रौशन नहीं हुई
ख़ाम हैं यहाँ अभी तक तमाम मंज़र
लोग परिंदों की ज़बान में बात करते हैं
और ख़्वाब दिन-दहाड़े घूमते-फिरते हैं
ज़माने ने अपने बच्चों की शादी में यहाँ आना चाहा
लेकिन तूने आँख बंद कर लीं
और वो गली में खो गया
इसलिए अब तक यहाँ
हवाओं के गिरेबान सलामत हैं
और तेरी मोहब्बतों की महक
मेरे सरहाने ख़्वाबीदा है।

जज़ीरा

जब तुमने मुझे नहीं पहचाना था
मैंने दुआ की तरह
तुम्हें अपने आँगन में बोया
और ख़ुद से ग़ाफ़िल हो गया!

आज एक मुद्दत बाद
तुम यहाँ से गुज़रे और मुझसे बोले :
‘‘अगर तू बे-सौत मैदान के समुंदर में
एक पंछी के रैन बसेरे के लिए
जज़ीरा बना सके…तो मुझे बुला लेना’’
मैं अपने चारों सम्त नज़र दौड़ाता हूँ
कुछ भी मौजूद नहीं
दूर एक दुआ रवाँ नज़र आती है
जो कभी दरख़्त बन जाती है और कभी जज़ीरा!

शाम का जादू

हर सुब्ह जब मैं जागता हूँ
मुझे शाम की ख़्वाहिश बेचैन करने लगती है
और मैं काग़ज़ पर
एक दरख़्त और उसका साया बनाने लगता हूँ
लेकिन सुब्ह शाम का चेहरा नहीं ओढ़ती!

अगर मैं लिखना जानता
तो सुब्ह के होंठों में शाम लिखता।

कभी-कभी ये शहर मुझसे इतना बेज़ार हो जाता है
कि भागने लगता है मेरी आँखों में
फिर मैं शहर को कश्ती बना कर
तेरे वा’दों के समुंदर में बहा देता हूँ
समुंदर और कश्ती, दोनों तेरी आँखों में सो जाते हैं
और मैं तेरी आँखों की तलाश में
चराग़ बो कर… ज़ख़्म काटता हूँ
हम्द करता हूँ दर्द की
काम बहुत बढ़ जाता है
एक उम्र गुज़र जाती है
हत्ता कि फिर मुझे गिरफ़्त में ले ले ख़्वाब!
हो सकता है दुनिया को ख़्वाब की नगरी में जाने के लिए
सुब्ह की दहलीज़ पामाल न करनी पड़े
और मेरे सुब्ह-ओ-शाम तेरे होंठों के बीच तहरीर हो जाएँ।

लफ़्ज़… मरजान

मैं नहीं जानता
ये शहर ख़ुद को क्यों
मेरे अंदर के गलियारों में गुम कर देना चाहता है

मैं!
अगर मुझसे परिंदा चूगा माँगे
मैं उसे दो लफ़्ज़ दूँगा।

ये शहर क्यों अपने चराग़ों को आवाज़ की गठरी में बाँध कर
मेरे सरहाने रख देता है
तुम जानते हो!
मेरी ख़्वाबगाह में आवाज़ों का एक बाज़ार बन चुका है
और मैं इस बाज़ार में
किसी मुसाफ़िर की तरह सिर पटकता
कुछ लफ़्ज़ तलाश कर रहा हूँ
कुछ लफ़्ज़…
ऐसे लफ़्ज़ जो मरजान की तरह ख़ूबसूरत हों।

अब, जबकि तुम्हारी जुदाई ने
परिंदे मुझसे रंजीदा कर दिए हैं
मैं ये मरजान
अपनी तन्हाई को पहनाना चाहता हूँ।

बिजूके

अगर बिजूके बात कर सकते
तो लोगों के बातिन बुरी तरह अयाँ हो गए होते
अपनी और मेरी हक़ीक़त जानना चाहते हो?
किसी बिजूके को तीर मारो
और नज़्ज़ारा करो कि लोग
मय्यत किसकी क़ब्र में दफ़्नाते हैं।

अगर बिजूके नक़्ल मकानी कर लें
तो हम जैसे बहुत से लोग जिला-वतन हो जाएँ।

शे’र

मेरा शे’र एक शरीर बच्चा है
उस ख़ामोशी को चुरा लेने के लिए कोशाँ
जो मेरी आवाज़ पर
किसी परिंदे की तरह उड़ती है।

ज़माना

ज़माना हर रात मेरी तन्हाई को दुश्नाम देता है
और दौड़ जाता है खिड़की से
लेकिन शहर से बाहर नहीं निकल पाता
सुब्ह सबसे पहले मुझसे दो-चार होता है
भुला देता है मेरी तन्हाई और अपने दुश्नाम
और मेरे हमराह दरवाज़े से अंदर दाख़िल हो जाता है।

आसमान

अगर एक रात अचानक
तमाम सितारे मेरी आँखों में आ जाएँ
मैं अपनी आँखें तुम्हारी गोद में फेंक कर
आसमान को ज़मीन पर क़ाइम कर दूँगा!

सुकूत

तेरे सुकूत का सहीफ़ा
मेरे शे’रों की पोशिश में है
तेरी ख़ामोशी वो समुंदर की किताब
जो लफ़्ज़ पी कर
मा’नी साहिल पर बिखेर देती है।

सुब्ह

सुब्ह एक रौशन ज़िक्र है और ऐसी ठंडी दुआ
जो आँखों की रहल पर धरी हुई
ठहराव भरा गीत आग़ाज़ करती है
परिंदा…
परिंदा बस इस गीत का मूसीक़ार है
परिंदों के साथ जागना इसलिए ज़रूरी है
ता कि रूह बरहना न हो
ठंडी दुआ ओढ़ ले
और आँख तन्हा न हो
चार अतराफ़ एक रौशन ज़िक्र करते रहें।

ख़्वाब

कोई मेरी आँखों में बैठा सितारे गिन रहा है
एक… दो…
और फिर भूल जाता है कि उसने कितने ख़्वाब दफ़्न किए…

तू जाग उठता!
मैं तुझे दिखाता कि आसमान
दिन में ख़्वाब और रात में ऐसा दरवाज़ा है
जिसकी पिछली तरफ़ ताला हो।

कभी-कभी जब मैं ज़मीन को पतंग बना कर उड़ा देता हूँ
तो दीवार की उस ओर जो कुछ भी दिखाई देता है
मेरी आँखें उसे शनाख़्त नहीं करतीं…

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इन नज़्मों के हुसूल और लिप्यंतरण के लिए ख़ासतौर पर मैं फ़ातिमा मेहरू साहिबा का ममनून-ओ-शुक्रगुज़ार हूँ। इन तक ले जाने के लिए तसनीफ़ हैदर के प्रति भी आभार।—मुमताज़ इक़बाल


मुनीर मोमिन सुपरिचित, सम्मानित और समकालीन बलोची कवि हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत बलोची नज़्में उनके मज्मुए ‘गुमशुदा समुंदर की आवाज़’ से चुनी गई हैं। बलोची से उर्दू में इनका तर्जुमा अहसान असग़र ने किया है। मुमताज़ इक़बाल से परिचय के लिए यहाँ देखिए : रात जब मेरी आँखों पर उतारी गई

पाठ में मुश्किल लग रहे शब्दों के मानी जानने के लिए यहाँ देखें : शब्दकोश

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