सुनील गंगोपाध्याय की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक

सुनील गंगोपाध्याय

सिर्फ़ कविता के लिए

सिर्फ़ कविता के लिए हुआ यह जन्म
सिर्फ़ कविता के लिए हुए कुछ खेल

सिर्फ़ कविता के लिए
तुम्हारे चेहरे पर शांति की एक झलक
सिर्फ़ कविता के लिए
तुम स्त्री हो

सिर्फ़ कविता के लिए
ज़्यादा-ज़्यादा बढ़ता रक्तचाप
सिर्फ़ कविता के लिए
बादलों के शरीर पर गिरता है जल-प्रपात

सिर्फ़ कविता के लिए
और भी ज़्यादा दिनों तक
जीवित रहने का लोभ होता है
मनुष्यों की तरह हताश होकर बचे रहना

सिर्फ़ कविता के लिए
मैंने अमरत्व को हासिल किया है।

वीर्य

नए उपनिवेश में जाओ
नए रास्तों पर घर बनाओ
डीप ट्यूबवेल से भिगाओ बालूगाड़ी को
लगाओ जादुई कृष्णचुरा1गुलमोहर का पेड़। का पेड़
बिल से निकलते हैं साँप और कहते हैं :
‘यहाँ बच्चों का पार्क बनेगा?’

मोहनजोदड़ो से सीखी नहीं है—
भूगर्त की अंतःप्रणाली…?

कीट-पतंगों के संसार को तोड़ दो
यहाँ बनाया जाएगा मनुष्यों का संसार
मनुष्य के लिए और भी चाहिए
और भी चाहिए
सब भूमि चाहिए
प्लॉट भाग करें—
तुम दक्षिण की तरफ़ अपने घर लो
अपने पठन-पूजन के लिए दो घंटे लो
उसके बाद को कोड़ा-कोड़ी, ईंट-लकड़ी और लोहा…
आज भी जहाँ जगह सूनी है
उस तीन तल्ले पर एक दिन
सुखद बिस्तर पर सोकर
तुम्हारी स्त्री के गर्त से वीर्य निषेचन करेगा

हाँ, वीर्य जहाँ रहता है
वहाँ उपस्थित रहता है,
कभी सूखता नहीं
उस गर्त के भीतर…!

तुमसे मिलने पर

तुमसे मिलने पर
मैं पूछता हूँ :
तुम मनुष्य से प्रेम नहीं करते हो,
पर देश से क्यों प्रेम करते हो?
देश तुम्हें क्या देगा?
देश क्या ईश्वर के जैसा है कुछ?

तुमसे मिलने पर
मैं पूछता हूँ :
बंदूक़ की गोली ख़रीदने के बाद
प्राण देने पर देश कहाँ पर होगा?
देश क्या जन्म-स्थान की मिट्टी है
या कि काँटेदार तार की सीमा?
बस से उतरकर
जिसकी तुमने हत्या की
क्या उसका देश नहीं?

तुमसे मिलने पर
मैं पूछता हूँ :
तुम किस तरह समझे कि मैं तुम्हारा शत्रु हूँ?
किसी प्रश्न का उत्तर न देने पर
क्या तुम मेरी तरफ रायफ़ल घुमाओगे?
इस तरह के भी
प्रेमहीन देशप्रेमी होते हैं!

पाना

अँधेरे में मैंने
तुम्हारा हाथ छूकर

जो पाया है
बस, वही थोड़ा-सा पाया है

अचानक नदी की तरफ़ से आईं
सफ़ेद पानी की बूँदें
जो माथे को छूकर जाती हैं।

तुम जानती थीं

तुम जानती थीं
इंसान इंसानों के
हाथ छूकर बोलते हैं—दोस्त।

तुम जानती थीं
इंसान-इंसानों के
आमने-सामने आकर खड़े होते हैं
तुम्हारी हँसी वापस लौट जाती है,
उत्तर-दक्षिण दिशा की ओर।

तुम जैसे आकर खड़ी होती हो मेरे पास
कोई पहचानता नहीं,
कोई देखता नहीं,
सब सबसे अपरिचित हैं।

अन्य लोग

जो लिखता है
वह मैं नहीं हूँ
क्यों मुझे दोष देते हो?

मैंने क्या भेड़िए की तरह शुद्ध होकर नोची है कठोर परत?
नदी के किनारे उसका बचपन कटा
वह देखता है
संसार की रहस्यमय गर्त को

मांस से भरे पानी में
उसने अपना आईना खोजा और तोड़ा
मैं तो स्कूल गया हूँ
किताबों को पढ़कर पाए उज्ज्वल रास्ते
एक चाबुक पाकर शून्यता से
हुआ हूँ घोड़े पर सवार।

जो लिखता है
वह मैं नहीं…

जो लिखता है
वह मैं नहीं…

आज भी नीरव रूप से उपस्थित हूँ
पहाड़ की चोटी पर
चौकस मोड़दार हवा के
रुख़ को भी दूर करके मोड़ दे
कंगाल होने में भी उसे लज्जा नहीं आती
और नष्ट होने के लिए भी
वह भरा हुआ है उन्मुक्तता से

दूतावास के कर्मी की हत्या करने में भी
उसे किसी तरह का भय नहीं
कभी-कभी मेरी तरह
टेबल पर बैठ माथा नीचे कर लेता है।


सुनील गंगोपाध्याय (1934-2012) समादृत भारतीय-बांग्ला कवि-लेखक और इतिहासकार हैं। उन्हें साल 1985 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ बांग्ला से हिंदी अनुवाद के लिए ‘सुनील गंगोपाध्याय की श्रेष्ठ कविताएँ’ शीर्षक पुस्तक से चुनी गई हैं। रोहित प्रसाद पथिक से परिचय के लिए यहाँ देखें : पानी के भीतर कितने मुक्तिपथ हैं

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