केहरि सिंह मधुकर की कविताएँ ::
डोगरी से अनुवाद : कमल जीत चौधरी
चरख़ा
जिसे कौड़ियों, पूनियों1रूई की बत्तियाँ से,
सुंदर सजाया था
दिन रात कूँ ऊँ ऊँ… करे यह चरख़ा :
मुझ
बाल मन
बाल तन,
रोती को माँ ने जब डोली में बैठाया था
यह चरख़ा भी मेरे साथ, ससुराल भिजवाया था।
पीहर की याद मुझे जब जब आती थी
साथ इसी के मैं; धीरे-धीरे गाती थी
सुर में इसके सुर हर मिलाती थी
बातें भी करके मन बहलाती थी
कूँ ऊँ ऊँ… जब चरख़ा यह गाता था
लगता था जैसे माँ लोरियाँ सुनाती है
कातने का सूत जब गले तक आता था
लगता था मैया मुझे गले से लगाती है
अपने ही हाथों से कातकर, जोड़कर
सुंदर-सा एक, कपड़ा बनाया था
आत्मज पहला, जब आँचल में आया था
उसके लिए कुर्ता इसी रेज़े2कपड़ा से बनाया था
इसी चरख़े ने साथ दिया अहिवात का
इसी ने ही दुःख में संयोग निभाया था
सिर पर साथी का साया नहीं रहा जब
चरख़ा—यह कातना ही मेरे काम आया था
इसकी कूँ ऊँ ऊँ… मेरी साँसों से बँधी है
शोक जाने इसने कब तक निभाना है
जाने कब इसकी यह कूँ ऊँ ऊँ… रुकेगी
साँसों की कहानी मेरी जाने कब थमेगी :
दिन रात कूँ ऊँ ऊँ… करे यह चरख़ा…
प्रीत
गहरी डबर3पानी का स्रोत में पत्थर गिरा
हुआ अजब तमाशा :
यह लहरों की डार4उड़ते पक्षियों-सा लहरों का समूह चली है
किसी छलिए की आशा…
जैसे भार लदी कोई कश्ती
ले हिचकोले चलती हो
या मारुत की गोद में
टिम-टिम बत्ती जलती हो
जैसे हाली5किसान जोग6बैलों की जोड़ी नकार
सुबह नई लीक तलाशे
या सावन के उद्गम का
पूस में आनन सूखे
भोली-भाली प्रीत बेचारी
अंक आस का भरे
लेकिन मिले उदासी ही
जब भी देखे, हाथ कुरेदे
आँसुओं के जेलख़ाने में
तड़पे क़ैदी हासा7हँसी
गहरी डबर में पत्थर गिरा
हुआ अजब तमाशा :
यह लहरों की डार चली है
किसी छलिए की आशा…
कोहलू
चुरमुर चुरमुर कोहलू चलता
बलद8बैल चले इक चाल
यह जन्मों का राही है
क्या माह क्या साल
जजरी-जजरी9विवशता से भरी चाल यह चलता
गले बजती कंग्रेल10बैलों के गले में बाँधा जाने घुंघरुओं का पट्टा
डंडा खिंचता तिलहन फिसता
तब मिलता है तेल
ज़ोर-ज़ोर से छाँटा पड़ता
पीठ झना-झन-झन
आँखों पर रहती पट्टियाँ
क्या चैत्र-सावन
हर कोई इसे रहे डपटता
कि करे तेज़ ज़रा चाल
यह मजबूरी में बँधा हुआ
बेमार्ग बेहाल
मीलों थककर भी
रहता एक ही धाम
तेली बेचे इसकी मेहनत
नहीं बैल का नाम
एक खटे दिन रात बेचारा
दूजा मौज उड़ाए
क्या जीने का शौक़ भला फिर
यह क्या जीवन-गाथा गाए
यह कैसा निज़ाम बना है
यह व्यवहार जलाए
ऐसे ही बस इस युग का
कोहलू चलता रोज़
मानव भी एक बैल बना है
नहीं सूझती सोच
मजबूरी से बँधकर चलता
धीमी-धीमी चाल
इस शोषण से बन चोर लफ़ंगा
ले अपराधों की ढाल
आश्वासन की पट्टी बाँधे
चलता उलटी चाल
बेकारी का डंडा हाँके
उसी को खींचता जाए
आस मन की, रूप तन का
सब कुछ तेल बनाए
भूख का चाबुक पड़ता जब
तो करे तेज़ कुछ चाल
सोच सोच कर उम्र गँवाए
मिलती नहीं कोई ताल
तिल-तिल करती जले जवानी
मिटे जीवन-जयकारे
इसके मालिक ऐश करें
और यह हर पल चीत्कारे
बच्चे भूखे इसके
भूख अभाव से रोएँ
तो कोहलू के चक्कर इसको
अपनी चाल चलाएँ
कितनी देर तक चलेंगे कोहलू?
मानू बैल कहलाएगा?
कब तक आख़िर इसको मालिक
अपनी चाल चलाएगा
कितने और दिनों तक यह
आँख पर पट्टी बाँधेगा
कब तक बैल का जीवन जीकर
यूँ ही चक्कर काटेगा
बेगारी में जुत कर कब तक
तेल निकालता जाएगा
कब तक सत्ता के यह कोड़े
पीठ पर खाता जाएगा
कब तक यूँ ही भूखे रहकर
उदरम्भरियों को खिलाता जाएगा
क्योंकर अपनी कंगरेलों की ही
टन-टन सुनता जाएगा
कब तक झूठी आस का आख़िर
जाला बुनता जाएगा :
कितनी देर तक गिनोगे चक्कर?
जीवन नहीं है कोहलू का बक्खर11तिलहन
~~~
आओ
सभी एक हो जाओ
रूप काल का बदल रहा है,
एक ही पलटा देना है
क्षण भर की ही बात है बस,
तनिक-सा ज़ोर लगाना है।
संन्यासी
ऊँची लंबी यह फकबाड़ी12पाकड़/गूलर का पेड़/फाइक्स, तले खिली गुलबासी13गुलबास का पौधा
जैसे आस की आँखों में, चमके डायन उदासी
जैसे प्यासी बदली
नीले अम्बर डोले
दूर कहीं एक दुखियारा
कहीं पपीहा बोले
जैसे पकते बर्तन आँवे
अंकुर फूटते दाने
लुटा-पिटा एक बंजारा
जैसे लेतर14रेत छाने
यह मन मूर्ख रोज़ बनाए
ऊँचे महल मीनारें
चाँदनी से फ़र्श सजाता
दीवारों पर जड़ता तारे
दुनिया छोड़, दुनिया पर, मोहित यह संन्यासी
ऊँची लंबी यह फकबाड़ी, तले खिली गुलबासी
जैसे आस की आँखों में, चमके डायन उदासी।
वसंत
सरसों भी पीली और पीला वसंत
पीली हैं नायिकाएँ पीले ही कैंत15पति/नायक
पीली जाति पीले दिलेर
लंबे रास्ते दुर्गम हैं फेर
खड्ग की पीली धार है आज
कला का पीला आकार है आज
पीली भाख और पीले ही गीत
मैरम16राज़दार भी पीले और पीले ही मीत
पीला मज़दूर-किसान है आज
पीला ही क़ौम का मान है आज
खेत भी पीला सहमा-सा आज
पीला ही हल और पीला सियाड़
पीले बैल हैं पंजाली17जुआ भी पीली
प्रतीक्षा की झुकी हुई टाली भी पीली
पीला सम्मान और यह कैसा तूफान
पीली जवानी के रोते हैं प्राण
बग़ीचे के फूलों के पीले हैं भाव
पीली हैं मंडियाँ पीले व्यापार
देस को हुआ जैसे जरकान18पीलिया
पीली है धरती और पीला आसमान
आया नहीं अभी आएगा वसंत
होगा ही होगा फिर दुःखों का अंत
आएगा नहीं ख़ुद हमें ही है लाना
चाँद सँभालेगा सारा उजाला
उठो भी जागो तो बेपरवाहो
देस की बिगड़ी ख़ुद ही बनाओ
एकता की रस्सी को बटो बनाओ
विपदा के हाथी को बाँधो-टिकाओ
दुश्मन को जानो और साथी पहचानो
रूठे हुए माथे को फिर ला ठानो
चोरों को अंदर बसाना मत आप
धोखा फिर से खाना मत आप
ग़रीबी का पतझड़ भगाना है पहले
धरती का भाग्य जगाना है पहले
शोषितों की एकता है : ठंडी हवाएँ
प्रतीक्षा के फूलों को वे ही खिलाएँ
फिर जिये मेहनत, हँसे और गाए
आशा की कलियों का यौवन जगाए
सभी वृक्षों का होगा सिंगार
वल्लरी भी पहन लेगी फूलों का हार
कला की मीठी सुगंध फिर आएगी
टहनी आकाश की भी झुक-झुक जाएगी
एक दिन वसंत, हर जगह खिलेगा
उल्लास का सिंधु फिर कहाँ थमेगा।
केहरि सिंह मधुकर (1930-2000) ने लेखन की शुरुआत हिंदी में की, लेकिन जल्द ही उन्हें मातृभाषा डोगरी ने चुन लिया। वह डोगरी कविता की प्रगतिशील धारा के आधार-स्तंभ कवि माने जाते हैं। नौकरियाँ करते-छोड़ते हुए उन्होंने आकाशवाणी, कला अकादेमी, पत्रकारिता जैसे क्षेत्रों को समृद्ध किया। उनके चार कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। 1977 में उन्हें ‘में मेले रा जानुं’ कविता-संग्रह पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। 2012 में साहित्य अकादेमी ने उनका रचना-संसार प्रकाशित किया, जिसे वरिष्ठ डोगरी लेखक मोहन सिंह ने संकलित किया है। उनके अनुसार केहरि सिंह मधुकर की काफ़ी रचनाएँ अभी उपलब्ध नहीं हो पाई हैं। कमल जीत चौधरी हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। वह इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ के लिए डोगरी के प्रसिद्ध कवि ध्यान सिंह की कविताओं का भी अनुवाद कर चुके हैं।
बहुत ही सुंदर सर। बधाई💐8
❤️💕❤️ बहुत अच्छे। अगर कोई और अनुवाद करता तो मैं डोगरी में लिखी असल कविताओं को जरूर पढ़ना चाहता। उसके बाद टिप्पणी करता कि अनुवाद कैसा हुआ है। लेकिन अनुवाद कमल जीत चौधरी ने किया है तो अब ऐसी जररूत नहीं। कविता का अनुवाद कभी आसान नहीं होता। इसकी अपनी सीमा और विस्तार है। इसके लिए कमल को बधाई। मधुकर जी की कविताओं को पढ़ते समय ध्यान सिंह जी की याद आ गई। उम्मीद है यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। सदानीरा का आभार। मधुकर जी को सादर नमन।
मैं निजी तौर पर कविता के अनुवाद का पक्षधर नहीं हूँ, लगता है कि अनुवाद के चक्कर में कविताई, गेयता और कविता का शिल्प कहीं दब जाता है, मर जाता है। परन्तु फिर पीछे नज़र दौड़ाऊं तो पाता हूँ कि, समझ में आने वाली भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त जो भी भारतीय या विदेशी भाषा की कविताएं (अँग्रेज़ी को छोड़कर) पढ़ीं, वो सब हिन्दी में अनुवाद हुई ही पढ़ीं; और यदि वो अनुवाद उपलब्ध ना होता, तो निश्चय ही मैं बहुत महत्वपूर्ण कविताओं को पढ़ने से वंचित रह जाता। जो भी अनुवाद मैंने पढ़े, उनके मूल रूप की ठीक ठीक कल्पना करना मुश्किल है, पर इतना तो तय है कि, जिन कविताओं का अनुवाद इतना दिलकश और मारक है, उनका मूल रूप इससे सौ गुणा आगे होगा। तो फिर सोचता हूँ कि दरअसल मैं उन कविताओं के अनुवाद का पक्षधर नहीं हूँ, जिनका मूल रूप मैनें पढ़ा है/पढ़ सकता हूँ, और उनका अनुवाद पढ़कर मैं उनको मूलरूप से कमतर पाता हूँ। लेकिन ऐसा सोचकर क्या मैं उन पाठकों से अन्याय नहीं कर रहा, जो वो भाषा नहीं जानते, जो मैं जानता हूँ, और क्या मेरी इसी सोच के कारण वो मेरी मातृभाषा के खजाने से निकले काव्य मोती, अनुवाद रूप में ही सही, से लाभान्वित ना हों ? नहीं, ऐसा करना तो अन्याय होगा। एक और भी कारण मुझे कविता के अनुवाद का पक्ष लेने से रोकता है। कई बार अनुवादक शब्दकोश से ऐसे शब्द ढूंढ लाता है, कि अपनी विद्वता सिद्ध करने के चक्कर में, वो कविता के मर्म को ही नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। फलां शब्द का जो अर्थ उस मूल रचना में दृष्टिगोचर हो रहा होता है, अनुवाद में वो पूरी तरह भौंडा सिद्ध होता है।
लेकिन अब जब मैं डुग्गर धरती के प्रसिद्ध कवि केहरि सिंह मधुकर की चुनिंदा पांच डोगरी कविताओं का हिन्दी अनुवाद पढ़ रहा हूँ, जिसको अंजाम दिया है, डुग्गर धरती के ही युवा किन्तु वरिष्ठ कवि और मित्र भाई कमल जीत चौधरी ने, तो मैं कविता के अनुवाद के प्रति अपनी विचारधारा को लचीला करने पर विवश हूँ। कमल जीत स्वयं एक स्थापित हिन्दी कवि हैं, और हिन्दी काव्य जगत के राष्ट्रीय पटल पर बड़े बड़े हस्ताक्षरों द्वारा उन्हें नोटिस किया जाता है, रेखांकित किया जाता है। कमलजीत को कभी भी हिन्दीतर भाषी क्षेत्र के हिन्दी कवि होने की सीढ़ी का इस्तेमाल नहीं करना पड़ा, उनकी सशक्त लेखनी और प्रतिबद्घता ही उन्हें स्थापित करने के लिए पर्याप्त है, हालांकि लहरों के विरुद्ध तैरने की उनकी जिजीविषा ने उनसे ज़रूर कुछ अधिक संघर्ष करवाया, उनके विरोधी तेवर और ग़ैर समझौतावादी नीति ने शुरू शुरू में उन्हे स्थानीय संस्थाओं और मठों में घुसने नहीं दिया, लेकिन “राज़ कहां तक राज़ रहेगा, मंज़रे आम पे आयेगा”। आज कमल जीत हिन्दी कविता के क्षेत्र में अपना सिक्का जमा चुके हैं। असीम संभावनाओं संग अभी भी निरंतर लेखन में रत हैं। तो कमलजीत ने अपनी धरती के कवि, मधुकर की पांच डोगरी कविताओं का हिन्दी अनुवाद कर, नैतिक दायित्व का निर्वाह किया है, आप ये अनुवाद पढ़कर जान पाएँगे कि स्वयं कवि होने के कारण, कविता के मर्म को समझते हुए, अनुवाद में कमल जीत ने कहीं भी मूल रचना को दबने नहीं दिया। जहां कहीं भी डोगरी भाषा का कोई ऐसा ठेठ शब्द आया, जिसके अनुवाद से अर्थ बदल सकता हो या काव्य शिल्प भंग होने का अंदेशा हो, तो उसे अर्थ सहित, ज्यों का त्यों ही रहने दिया। वैसे भी कभी कभार, ध्वनियों का अनुवाद अर्थ का अनर्थ कर देता है, और संभवतः इसी बहाने डोगरी कविता के अनुवाद संग हिन्दी पाठक, डोगरी के कुछ शब्द भी सीख पाएँगे। हो ना हो इन ठेठ शब्दों को अपनी मातृभाषा से जोड़ पाएँ, क्योंकि शब्दों का संसार तो निराला है। कौन जाने, कौन सा सम्बन्ध कहां जुड़ जाये! इसी तरह जब हर कोने से पकड़कर जब इस शब्द चादर को उठाया जाए तो भान हो कि हम तो इक दूजे के बहुत निकट पड़ते हैं, केवल उच्चारण के भेद ने दूर कर रखा है। भाई कमलजीत को इस अनुवाद की बधाई, अनुवाद का ये सफर भी उत्तरोत्तर बढ़ता रहे, भविष्य के लिए अग्रिम शुभकामनाएँ…
मै कमल की अपने किसम की शैली की कविताई की सदैव प्रशंसक रही हु मेरे प्रिय कवियों में से एक कमल भी हैं। अनुवाद के लिए मधुकर जी को चुनना फिर उस को प्यार से सलीके से मुस्तैदी से निभा लेना उन की महारत सिद्ध करता है दोनों भाशायों पर । बहुत बहुत बधाई।