नज़्में ::
तसनीफ़ हैदर

जंग से बेज़ारी की नज़्में
एक
और बस
इक पल में मैंने
ख़ूबसूरत चेहरों पर
मुरझाए हुए फूलों की झुर्रियाँ
उग आने की ख़्वाहिश को
नाचते देखा
दो
आग उगलते हुए दिनों में
पूछने वाले
सोचने वाले
रोकने वाले
सभी लोग ग़द्दार कहे जाते रहे हैं
और कहे जाते रहेंगे
तीन
वो जानते हैं
वो फ़ैसला कर रहे हैं
कि किसे कहाँ भेजना है
किसे क्या सोचना है
किसे क्या बोलना है
और वो कहते हैं
कि इस वक़्त कुछ ज़रूरी नहीं है
सिवाय एक बड़े क़ौमी शोर का हिस्सा बन जाने के
फिर वो कहते हैं कि ये ज़रूरी से ज़्यादा फ़र्ज़ है
और फ़र्ज़ से ज़्यादा इस बात का सुबूत
कि तुम वफ़ादार हो
चार
तुमने उस बात पर तो कुछ नहीं कहा
इस बात पर तुम्हें बड़ा दुःख है
वो बात तो तुम्हें दूर से दिखाई देती है
वो हमारे मज़हब के लोग नहीं हो सकते
हम और कितना सहेंगे
ये आम बातें नहीं हैं
ये तारीख़ के इस दौर के
सबसे ज़्यादा घातक
सबसे ज़्यादा ख़तरनाक
सबसे ज़्यादा चालाक
नारे हैं
पाँच
मेरे आस-पास ऐसे लोग हैं
जो मेरी ही तरह कभी-कभी बहुत चुप हो जाते हैं
जब देखते हैं कि
नाज़ुक वक़्त में कुछ बोलते हुए
शायद वो कुछ ऐसा कह बैठें
जिसे बाद में याद करते हुए
उन्हें ख़ुद पर शर्मिंदगी हो
छह
जंग के ज़माने में
इंसान-दोस्ती की सतही नज़्में लिखने वाले शाइर
क़ाबिल-ए-बर्दाश्त थे
मगर वो नहीं
जो अपने मुल्क के सियासी चलित्तर-बाज़ों का
बयानिया दोहरा रहे थे
सात
इन दिनों
मैंने इल्म और उसके ग़ुरूर को
सियाह-बदबूदार नालियों में छपाके मारते
नंगे होकर बिक जाने की
उम्मीद में पागलों की तरह अपनी बोली लगाते
और ख़ुद को तराज़ू के ऐन बीच में
रख कर दोनों बाँहें फैलाए
नफ़रत की पैग़म्बरी का ऐलान करते देखा
जो इस बात पर ख़ुश था
कि उसके बदसूरत बयानिये पर
लोग तेज़ी से ईमान ला रहे हैं
आठ
माँ-बाप
भाई-बहन
घर-बार
जब कोई नफ़रत में डूब जाए
तो उसे छोड़ते हुए हिचकिचाओ मत
क्योंकि सियासी दलदल का एक नाम
घर भी है
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