अमोस ओज़ का गद्य ::
अनुवाद : प्रमोद सिंह

अमोस ओज़

एक चीज जो हमारे यहां इफरात में थी, वह थी किताबें. एक दीवार से दूसरे दीवार तक ठंसी हुईं, गलियारे और रसोई में, एंट्रेंस और खिड़कियों के सिल पर— हर कहीं वे भरी पड़ी थीं. हजारों किताबें, फ्लैट के हर कोने में.

मुझे लगता लोग आते-जाते हों, जन्म लेते और मरते हों, मगर किताबों की कभी मौत नहीं होती. जब मैं छोटा था मेरी यही हसरत थी कि किताब की शक्ल में बड़ा होऊं— किताबें लिखनेवाला लेखक नहीं. लोग मक्खियों की तरह मर सकते हैं. लेखकों का मरना भी ऐसा खास मुश्किल नहीं. लेकिन किताबों का है : आप कितनी ही तरतीब से उन्हें खत्म करने की कोशिश करो, इसकी हमेशा गुंजाइश रहती है कि कहीं एक प्रति जिंदा बच जाए और किसी दूर-दराज, असामान्य-सी जगह की लाइब्रेरी के शेल्फ पर सुरक्षित पड़ी रहे.

एक या दो मर्तबा जब कभी ऐसा हुआ कि शबात के मौके पर घर में खाने को पैसे न हों, तब मां बाबा की तरफ देखतीं, और बाबा समझ जाते कि कुरबानी का क्षण आ गया है और वह किताबों की अलमारी की ओर पलटते. वह नैतिक आदमी थे, और जानते थे कि रोटी की जगह किताबों से ऊपर है और बच्चे की बेहतरी सब चीजों से ऊपर है.

मुझे दरवाजे से बाहर निकलती उनकी झुकी हुई पीठ याद पड़ती है, बांह के नीचे दो या तीन अपने प्यारे पोथों को दाबे मेयर साहब की सेकेंडहैंड किताब की दुकान के लिए हड़बड़ी में निकलते कि जल्दी से जल्दी इस पाप से निजात पाएं…

मैं उनकी तकलीफ समझ सकता था. मेरे बाबा का अपनी किताबों से एक बेहद सेंसुअल संबंध था. किताबों को सहलाना, थपथपाना, सूंघना उन्हें अच्छा लगता. किताबों की संगत में उन्हें एक जिस्मानी खुशी मिलती : भले दूसरों की किताबें हों, खुद को वह रोक नहीं पाते, आगे जाकर उन्हें छू-टटोल लेना उन्हें जरूरी लगता. और आज की बनिस्बत तब किताबें ज्यादा सेक्सी भी थीं : सूंघने, सहलाने, दुलराने के लिए वे ज्यादा मुफीद हुआ करती थीं.

सुनहली लिखावट वाली थोड़ा रफ बाइंडिंग की कुछ खुशबूदार किताबें थीं, जिन्हें छूते ही मन ऊपर-नीचे करने लगता, मानो पहुंच से परे किसी अगम्य और निजी दुनिया में झांक रहे हों, और आपके छूते ही वह रोमांच और थरथराहट में आंखें खोल उठेंगी. फिर गत्ते और कपड़ों से बंधी किताबें थीं जिनसे सरेश की अद्भुत सेंसुअस महक उठती.

हर किताब की अपनी खास निजी, उत्तेजक महक होती. बहुत बार — किसी ढीठ फ्रॉक की तरह — गत्तों से कपड़ा अलग हो जाता, तब कपड़े और देह की उन अंधेरी जगहों में झांककर देख लेने और नशीली महक को सूंघने की इच्छा पर काबू करना असंभव हो जाता.

बाबा अमूमन एक या दो घंटे पर वापस लौटते. किताबों की जगह भूरे कागजी बैग में रोटी, अंडे, चीज, और कभी-कभी डिब्बाबंद मांस होता. लेकिन कभी-कभी कुरबानी पर निकले वह वापस लौटते तो होंठों पर एक छोर से दूसरे छोर तक मुस्कान तनी होती— अपनी दुलारी किताबों को खोकर लौटे होते, मगर साथ में खाने का कुछ सामान भी न होता. अपनी किताबें वह जरूर बेच आए होते, मगर उस कमी की भरपाई उन्होंने तत्काल दूसरी किताबें खरीदकर कर ली होती, क्योंकि सेकेंडहैंड किताब की दुकान में किसी अनोखे खजाने पर उनकी निगाह पड़ी होती, ऐसा मौका जो जीवन में दुबारा नहीं आता, और खुद पर काबू करना उनके लिए नामुमकिन हो गया होता.

मां उन्हें माफ कर देतीं, और उसी तरह मैं भी. वैसे भी मीठी मकई और आइसक्रीम से अलग मुझे कुछ खाना अच्छा न लगता. ऑमलेट और मांस से तो मुझे एकदम नफरत थी. ईमानदारी से कहूं तो मुझे तो भूखे मर रहे उन हिंदुस्तांनी बच्चों से रश्क होता, जिन्हें अपनी प्लेट का सब कुछ खत्म करने के लिए कोई उनके सिर पर न सवार रहता.

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इजराइली लेखक अमोस ओज़ के गद्य का यहां प्रस्तुत अंश मूलतः उनकी किताब A Tale of Love and Darkness से है. यह अनुवाद प्रमोद सिंह की पुस्तक ‘अजाने मेलों में’ से साभार है. प्रमोद सिंह मुंबई में रहते हैं. सिनेमा और साहित्य के संसार से यों जुड़े हुए हैं कि कटे हुए लगते हैं. ‘जो है उससे बेहतर चाहिए’ के शिल्प में जो कहना चाहते हैं, उसे अलग-अलग माध्यमों में बहुत अलग रंग-ढंग से कहने की कोशिश करते रहते हैं. उनसे indiaroad@gmail.com पर बात की जा सकती है.

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