हेनरी डेविड थोरो के कुछ उद्धरण ::
अँग्रेज़ी से अनुवाद : बनारसीदास चतुर्वेदी

हेनरी डेविड थोरो

जो लोग फ़ैशनेबल गोष्ठियों और विधानसभाओं में जाते हैं, केवल उन्हीं को नए कोटों की ज़रूरत पड़ती है; ताकि वे उन्हें उतनी ही जल्दी-जल्दी बदल सकें, जितनी जल्दी कि उनको पहनने वाला बदल जाता है।

जिन कामों में नए कपड़ों की आवश्यकता होती है, नए पहनने वाले की नहीं; उनसे ख़बरदार रहिए।

यदि कोई नया काम आपके सामने आए तो उसे पुराने वस्त्रों में ही करने की चेष्टा कीजिए।

प्रत्येक पीढ़ी पुराने फ़ैशन पर हँसती है, लेकिन नए फ़ैशन की पूजा परम धार्मिक भाव से करती है।

मानव को जो बहुत बड़े-बड़े अंगों वाला बहुत मज़बूत प्राणी नहीं बनाया गया, वह केवल इसलिए कि वह अपनी दुनिया स्वयं संकुचित करने का प्रयत्न करे; जहाँ उसके लिए ठीक हो, दीवार खड़ी कर ले।

विलासी और छिछोरे लोग ही फ़ैशन चलाते हैं, और पूरा रेवड़ बड़ी तत्परता से उनका अनुसरण करने लगता है।

हमारे अविष्कारों की प्रवृत्ति खिलौनों की-सी होती है, जो गंभीर चीज़ों से हमारा ध्यान बँटा देते हैं।

प्राची के सभी खंडहरों की तुलना में ‘भगवद्गीता’ कितनी अधिक महिमामयी है! मीनारें और मंदिर तो राजों-महाराजों की विलासिता-मात्र होते हैं। एक सरल और स्वतंत्र मन वाला व्यक्ति कभी किसी राजा या महाराजा का हुक्म नहीं बजाता। प्रतिभा किसी शहंशाह के आश्रम में नहीं पलती, बहुत मामूली सीमा के अतिरिक्त, इसकी सामग्री न चाँदी, न सोना, और न संगमरमर। मेहरबानी करके यह बताइए कि इतना अधिक पत्थर फोड़ने का लक्ष्य क्या है?

जातियाँ एक पागलपन में भरी आकांक्षा से ग्रस्त होती हैं—जितना फोड़ा हुआ पत्थर वे अपने पीछे छोड़ जाएँ उससे अपनी स्मृति बनाए रखने की आकांक्षा उनमें होती है। यदि इतना ही परिश्रम वे अपने आचरण को सुधारने-सँभालने में करें तो क्या हो?

बुद्धिमानी की एक बात चंद्रचुंबी स्मारकों से कहीं अधिक स्मरणीय होती है।

असभ्य और बर्बर धर्म और सभ्यता ही शानदार मंदिर बनवाते हैं, किंतु जिसे आप ‘ईसाई धर्म’ कहते हैं; वह ये सब नहीं बनवाता।

स्वतंत्र होने के लिए छछूँदर अपना तीसरा पैर तक काट डालती है।

बुराई के प्रारंभ का ही परिहार करना सर्वोत्तम है।

व्यापार जिस चीज़ में भी हाथ लगाता है, उसे बरबाद कर देता है; आप चाहे ‘दिव्य’ संदेशों का ही धंधा क्यों न करते हों, इसमें भी व्यापार का समूचा अभिशाप लग ही जाता है।

निष्ठा और अनुभव दोनों से मुझे यक़ीन हो गया है कि यदि हम सादगी और बुद्धिमानी से रहें तो इस पृथ्वी पर अपना भरण-पोषण कर लेना कठिन नहीं है, बल्कि यह एक प्रकार का मनोरंजन है—अपेक्षाकृत सादे ढंग से रहने वाली जातियों का ‘उद्यम’ अब भी अपेक्षाकृत कृत्रिम ढंग से रहने वाली जातियों के लिए खेल-कूद ही होता है। यह नितांत आवश्यक नहीं है कि आदमी चोटी से एड़ी एक पसीना बहाकर ही जीविकोपार्जन करे—हाँ, यदि उसका पसीना मुझसे जल्दी निकल जाता है, तो बात दूसरी है।

मेरी जान-पहचान के एक नवयुवक ने, जिसे उत्तराधिकार में कुछ एकड़ भूमि मिली है, मुझे बताया कि यदि उसके पास साधन हों तो उसका भी विचार मेरे ढंग से रहने का है। मैं नहीं चाहता कि कोई, किसी भी कारण से, जीवन का मेरा ढंग अपनावे, क्योंकि हो सकता है कि जब तक वह मेरे ढंग को अच्छी तरह सीखे, उससे पहले ही मैं अपने लिए कोई दूसरा ढंग चुन लूँ। इसके अतिरिक्त में यह चाहता हूँ कि इस संसार में इतने विभिन्न प्रकार के व्यक्ति हों जितने संभव हो सकते हैं; लेकिन मैं यह भी चाहता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति अत्यंत सावधानी से अपना रास्ता तलाश करे और अपने रास्ते पर चले, अपने माता-पिता या पड़ोसी के रास्ते पर नहीं।

जो व्यक्ति अकेला जाना चाहता है, वह आज ही रवाना हो सकता है; किंतु जो व्यक्ति किसी दूसरे के साथ यात्रा करता है, उसे उसके तैयार होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, और उनकी यात्रा प्रारंभ होने में ही बहुत समय लग सकता है।

जिस प्रकार दूसरे कामों के लिए प्रतिभा आवश्यक है, उसी प्रकार दानशीलता के लिए भी प्रतिभा आवश्यक होती है। ‘दूसरों की भलाई’ करने के बारे में यही कहा जा सकता है कि वह उन पेशों में से है जो भरे हुए हैं, और जिनमें अब जगह नहीं है। इसके अलावा मैंने इसे ख़ूब आज़माया है, और शायद यह बात विचित्र मालूम पड़े कि मुझे संतोष है कि यह काम मेरी प्रकृति के अनुकूल नहीं। संभवतः जान-बूझकर मुझे अपना विशेष धंधा छोड़कर इस सामाजिक कल्याण के काम में, सृष्टि को सत्यानाश से बचाने के काम में नहीं लगना चाहिए, और मेरा विश्वास है कि यदि आज यह सृष्टि सुरक्षित है तो केवल इस कारण कि इसी प्रकार की किंतु इसकी अपेक्षा अनंत रूप से महान् अविचलता कहीं और काम कर रही है। लेकिन मैं किसी भी व्यक्ति और उसकी प्रतिभा के बीच बाधा बनना नहीं चाहता, और जिस काम को करने से मैं इंकार करता हूँ, उसे यदि कोई अपने संपूर्ण तन-मन-प्राण से करे, तो मैं उससे कहूँगा, लगे रहो, भले ही सारी दुनिया इसे बुरा कहे, जैसा कि संभवतः वह कहेगी भी।

बहुधा ग़रीब आदमी उतना नंगा और भूखा नहीं होता, जितना वह गंदा और चिथड़ों से लदा होता है। इसमें केवल उसका दुर्भाग्य ही नहीं होता, बल्कि अंशतः उसकी रुचि भी होती है। यदि आप उसे कुछ धन दे देंगे तो शायद वह उससे कुछ और भी चिथड़े ख़रीद लेगा।

डूबते हुए को बचाइए और अपने जूतों के फ़ीते बाँधकर चल दीजिए।

संतों के संसर्ग से हमारे ढंग दूषित हो गए हैं।

हमारी प्रार्थना की पुस्तकों में परमात्मा को सुरीले शाप देने और उसको सदा-सर्वदा सहन करते जाने की बात गूँजती रहती है। यह कहने की तबीयत होती है कि संतों और उद्धारकों ने मानव की आशाओं को पुष्ट करने के बजाय उसके भय को ही कम करने की चेष्टा की थी। यह जो जीवन मिला है उसके प्रति सरल और अदम्य संतोष की भावना का उल्लेख उनमें कहीं भी नहीं लिखा है, उनमें परमात्मा की कोई स्मरणीय प्रशंसा नहीं मिलती।

समय केवल एक सरिता है, जिसमें मैं मछलियाँ पकड़ता हूँ। मैं उसका जल पीता हूँ; किंतु उसके जल का पान करते समय मैं उसकी रेतीली तली को देखता हूँ और जान लेता हूँ कि वह कितनी उथली है। इसकी पतली धारा निरंतर प्रवाहित होती चली जाती है, किंतु अनंत बाक़ी रहता है। मैं और भी छककर पिऊँगा, मैं आकाश में बंसी डालूँगा जिसके तलभाग में सितारों के कंकड़ बिछे हुए हैं। इनमें से एक को भी गिन लेने की क्षमता मुझमें नहीं है। उस वर्णमाला के प्रथम अक्षर का भी ज्ञान मुझे नहीं है। मुझे सदा यह पश्चाताप रहा है कि मैं अपने जन्म-दिन के समान ही बुद्धिमान नहीं रहा हूँ। बुद्धि एक तीक्ष्ण धार वाली छुरी है, वह वस्तुओं के रहस्य को खोलकर रख देती है। मैं अपने हाथों के काम में केवल उतना ही व्यस्त रहना चाहता हूँ जितना नितांत आवश्यक हो, उससे अधिक नहीं। मेरा मस्तिष्क ही मेरे हाथ-पैर हैं। मैं अनुभव करता हूँ कि उसी में मेरी सारी, मेरी सर्वोत्तम क्षमता केंद्रित है। मेरी अंतर प्रकृति मुझे बताती है कि जिस प्रकार कुछ जानवर अपनी थूथन और पंजों की सहायता से मिट्टी खोदकर माँद बनाते हैं, उसी प्रकार मेरा मस्तिष्क भी मेरा खोदने का अंग हैं; उसकी सहायता से मैं इन पहाड़ियों में खोदकर अपनी माँद बनाऊँगा। मैं समझता हूँ कि यहीं कहीं वह संपन्नतम स्थल है, जिसमें सबसे अधिक मूल्यवान पदार्थ दबा पड़ा है। मेरा अन्वेषण-दंड (भू-गर्भ में जल-खनिज पदार्थों का पता बताने वाला यंत्र) मुझे यही बताता है, ऊपर हुई हल्की-फुल्की भाप से मुझे यही पता चलता है। और यहीं मैं खोदना प्रारंभ करूँगा।

लिखित शब्द सर्वोत्तम प्रकार का अवशेष होता है।

मानव जाति ने अभी तक महान् कवियों की कृतियों को नहीं पढ़ा है, क्योंकि महान् कवि ही उन्हें पढ़ सकते हैं।

शोक आदमी को अकाल ही खा जाता है।

कन्फ़्यूशियस का कथन है, “साधुता परित्यक्त अनाथ की भाँति नहीं रहती, उसके लिए पड़ोसियों का होना आवश्यक है।”

मुझे कभी कोई साथी उतना साथ रहने ‘योग्य’ नहीं मिला जितना कि एकांत।

आदमी का मूल्य उसकी त्वचा में नहीं है कि हम उसे छू ही लें।

अच्छाई ही एक-मात्र ऐसा व्यापार है, जिसमें कभी घाटा नहीं होता।

प्रत्येक श्रेष्ठता तुरंत व्यक्ति की आकृति निखारने लगती है, प्रत्येक नीचता, और ऐंद्रिकता उसे विकृत कर देती है।

प्रत्येक व्यक्ति एक ऐसे राज्य का स्वामी है कि जिसके सामने ज़ार का पार्थिव साम्राज्य भी अत्यंत तुच्छ, बर्फ़ का एक छोटा-सा टीला है। फिर भी कुछ लोग, जिनमें आत्मसम्मान नहीं होता, देशभक्त होते हैं, और छोटी-सी चीज़ के लिए कहीं अधिक बड़ी चीज़ का बलिदान कर डालते हैं। उन्हें उस मिट्टी से प्यार होता है जिसमें उनकी क़ब्र बनती है, उन्हें उस आत्मा से प्रेम नहीं होता जो अब भी उनकी मिट्टी में जान डाल सकती है।

केवल हारे हुए और भगोड़े लोग ही युद्धरत होते हैं, कायर ही युद्ध-भूमि से भागकर सेना में भर्ती होते हैं।

अपने प्रयोग से मैंने कम से कम इतना तो सीख ही लिया कि यदि कोई विश्वास के साथ अपने स्वप्नों की दिशा में बढ़ता चला जाए, और जिस जीवन की उसने कल्पना की है उसी के अनुसार रहने का प्रयास करता रहे, तो उसे वह सफलता प्राप्त हो जाएगी; वह एक अदृष्ट सीमा को पार कर जाएगा, नए सार्वभौमिक और अधिक उदार नियम उसके चारों और उसके भीतर स्वयं व्यवस्थित हो जाएँगे, अथवा पुराने नियम ही विस्तारित हो जाएँगे जो अधिक उदार और अनुकूल सिद्ध होने लगेंगे, और वह श्रेष्ठतर प्राणियों के समान रहने लगेगा। जिस अनुपात में वह अपना जीवन सरल बनाता जाएगा, उसी अनुपात में सृष्टि के नियम कम उलझे हुए प्रतीत होंगे और तब एकांत नहीं रहेगा। दरिद्रता दरिद्रता नहीं रहेगी, कमज़ोरी कमज़ोरी नहीं रहेगी। यदि आपने हवा में क़िले बनाए हैं, तो यह आवश्यक नहीं है कि आपका श्रम निष्फल हो जाए, क़िले बनाने का समुचित स्थान हवा ही है। बस केवल, उनके नीचे नींव रख दीजिए।

भावी अथवा संभाव्य की दिशा में तो हमें बिना किसी तनाव के रहना चाहिए, हमारे आगे कोई परिसीमा न हो, उस ओर हमारी रूप-रेखा धुँधली और अस्पष्ट हो, जैसे कि सूर्य की दिशा में हमारी परछाई पर पसीना अदृष्ट रहता। हमारे शब्दों का वाष्पगुणी सत्य निरंतर अवशिष्ट वक्तव्य की असमर्थता प्रकट करता रहे। उनका सत्य तो तुरंत ही अनूदित हो जाता है, केवल उसका वाचिक स्मरण रह जाता है। जो शब्द हमारी निष्ठा और पवित्रता को अभिव्यक्त करते हैं वे सुनिश्चित नहीं हैं, फिर भी, देवताओं को समर्पित धूम्र-चंदन की भाँति, वे सार्थक और सुगंधित होते हैं।

हम सदा अपने बोध के निम्नतम स्तर की ओर ही क्यों झुकते रहें, और उसकी सहज बुद्धि के रूप में प्रशंसा क्यों करते रहें? सबसे अधिक सहज बुद्धि तो सोते हुए लोगों की होती है जिसे वे ख़ुर्राटों में अभिव्यक्त करते हैं। कभी-कभी हम डेढ़ बुद्धि वाले लोगों को अर्द्ध-बुद्धि (मूर्खों) की श्रेणी में रख देते हैं; क्योंकि हम उनकी बुद्धि के एक तिहाई भाग को ही समझ पाते हैं। कुछ लोगों का यह स्वभाव ही होता है कि अगर कभी जल्दी उठ बैठें तो प्रातःकालीन लालिमा में भी दोष निकाल दें। मैंने सुना है कि ‘‘कबीर के पदों में चार अर्थ होते हैं—माया, आत्मा, बुद्धि और वैदिक सिद्धांत।” लेकिन दुनिया के इस हिस्से में यदि किसी के लेखों के एक से अधिक भाष्य हो सकते हैं, तो लोग शिकायत करने लगते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति अपना-अपना काम करे और जो उसे बनाया गया है, वही रहने का प्रयास करे।

क्या हम चोटी से एड़ी तक का पसीना बहाकर अपने ऊपर नीले काँच का एक आसमान खड़ा कर लें, हालाँकि यह बात निश्चित है कि ऐसा आसमान बना लेने के बाद भी हम इससे बहुत ऊपर के अंतरिक्ष में स्थित असली आसमान की ओर ताकेंगे ही, मानो बीच में इसका अस्तित्व ही न हो?

किसी पदार्थ को हम चाहे जो रूप प्रदान करें, अंततोगत्वा वह हमारे लिए इतना उपयोगी नहीं होगा जितना कि सत्य। केवल यही स्थायी रहता है।

अपने स्वस्थ क्षणों में हम केवल तथ्यों अर्थात् वस्तु स्थिति पर ही विचार करते हैं। जो आपको कहना है वही कहिए, वह नहीं जो कहना चाहिए। बनावट की अपेक्षा तो कोई भी सत्य अधिक श्रेष्ठ होता है। टौम हाइड नाम के ठठेरे से फाँसी के तख़्ते पर जब पूछा गया कि वह क्या कहना चाहता है, तो उसने कहा, ‘‘दर्ज़ियों से कह दो कि टाँका लगाने से पहले धागे के छोर में गाँठ लगाना न भूलें।’’ उसके साथी की प्रार्थना कभी की भुलाई जा चुकी है।

आपका जीवन चाहे जितना दीन-हीन हो, उसका सामना करिए, उसे जिए जाइए, उससे भागिए मत, उसे गालियाँ मत दीजिए। वह उतना बुरा नहीं है, जितने बुरे कि आप हैं। जब आप सबसे अधिक संपन्न दिखते हैं, तभी आपका जीवन दरिद्रतम दिखाई देता है। छिद्रान्वेषी तो बैकुंठ में भी दोष निकाल लेगा। जीवन से प्रेम करिए, भले ही वह कितना ही दरिद्र हो। दरिद्रालय में भी कदाचित् आपको कुछ सुखमय, उल्लासमय, दीप्तिमय क्षण मिल जाएँगे। दरिद्रालय की खिड़कियों से भी अस्ताचलगामी सूर्य उतना ही प्रतिबिंबित होता है जितना कि किसी धनिक की हवेली से। दोनों के द्वारों की बर्फ़ वसंत ऋतु में एक ही समय पिघलती है। मैं तो यही देखता हूँ कि शांत मन वाला व्यक्ति वहाँ भी उतने ही संतोष के साथ रह सकता है, जितने संतोष से किसी राजमहल में, इस नगर के दरिद्र बहुधा मुझे सबसे अधिक स्वतंत्र जीवन व्यतीत करते दिखाई देते हैं।

संभवतः वे इतने महान हैं कि बिना किसी आशंका के ग्रहण करते हैं। अधिकतर लोग अपने बारे में सोचते हैं कि वे नगर द्वारा पोषित होने से ऊपर हैं, किंतु बहुधा होता है यह कि वे बेईमानी के साधनों से अपने-आपको पोषित करने से ऊपर नहीं होते, और यह बात उससे कहीं अधिक लज्जाजनक है। संतों की भाँति निर्धनता को बाग़ की दूब की तरह उगाइए। नई वस्तुएँ, चाहे वे नए मित्र हों या नए वस्त्र, प्राप्त करने के लिए कष्ट मत उठाइए। पुरानी चीज़ों को ही पलटिए—बार-बार उसी पर लौट आइए।

वस्तुएँ नहीं बदलती, हम बदल जाते हैं। अपने वस्त्रों को बेच डालिए, लेकिन अपने विचारों को अपने पास रखिए। ईश्वर कभी आपको संग-साथ की कमी नहीं रहने देगा। यदि मुझे जीवन-भर के लिए, मकड़े की भाँति, किसी अटारी में क़ैद कर दिया जाए, तो भी जब तक मेरे पास मेरे विचार है, तब तक संसार मेरे लिए उतना ही बड़ा रहेगा, जितना कि अब है। दार्शनिक ने कहा है, ‘‘तीन डिवीज़नों की सेना के जनरल को हटाकर उसे अव्यवस्थित किया जा सकता है, किंतु आदमी से, सबसे दीन-हीन आदमी से भी उसका विचार नहीं छीना जा सकता।’’ इतनी आतुरता से चमक उठने का प्रयास मत करिए, अनेक प्रभावों का शिकार मत होइए, यह शक्तिक्षय है।

दिन का उदय केवल तभी होता है जब हम जाग्रत हों। दिन का उदय अभी और बाक़ी है। सूर्य केवल भोर का एक तारा है।

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हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) संसारप्रसिद्ध अमेरिकी दार्शनिक हैं। उनके यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनकी अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक ‘वालडेन-सरोवर’ (साहित्य अकादेमी, संस्करण : 1964) से चुने गए हैं। बनारसीदास चतुर्वेदी (1892-1985) समादृत हिंदी साहित्यिक और अनुवादक हैं।

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