आलेख ::
शुभनीत कौशिक
अपने ही देश में पराए हो जाने का दंश
उत्तर भारत के दिल्ली जैसे शहरों में पूर्वोत्तर के लोगों को अपने रोज़मर्रा के जीवन में किस तरह के पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है, वे कैसे रोज़-ब-रोज़ अवमानना और हिंसा का शिकार होते हैं। इसकी ही कहानी है निकोलस खारकोंगोर द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘अखुनी’ (Axone)। कभी अपने चेहरे और बालों के रंग को लेकर पूर्वोत्तर के लोगों को नस्लीय टिप्पणियों का शिकार होना पड़ता है, तो कभी वे ‘अखुनी’ जैसे अपने प्रिय व्यंजनों से महज़ इसलिए वंचित कर दिए जाते हैं; क्योंकि उसकी तीखी गंध उत्तर भारत के लोगों को नहीं रुचती।
इन पूर्वाग्रहों के शिकार जहाँ एक ओर नीदो तानिया जैसे पूर्वोत्तर के युवा होते हैं, जिन्हें जनवरी 2014 में दिल्ली के लाजपत नगर में पीट-पीटकर मार दिया गया; तो दूसरी ओर, कभी पूरे पूर्वोत्तर समुदाय को ही अगस्त 2012 में बेंगलुरु से पलायन करने को विवश कर दिया जाता है। समुदाय और क्षेत्र-विशेष के लोगों के प्रति पूर्वाग्रह और दैनंदिन हिंसा की कहानी एक व्यंजन के सहारे ‘अखुनी’ फ़िल्म बख़ूबी कहती है। इस फ़िल्म में दिल्ली के हुमायूँपुर इलाक़े में रहने वाले मणिपुर और नागालैंड की कुछ लड़के-लड़कियाँ अपनी दोस्त मिनम की शादी के लिए नागालैंड का परंपरागत व्यंजन अखुनी बनाना चाहते हैं। इस क्रम में उन्हें जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, ‘अखुनी’ उन्हीं की कहानी है।
फ़िल्म में चंबी (लिन लाइश्राम) का किरदार जहाँ पूर्वोत्तर के मुखर प्रतिरोध का प्रतिनिधि स्वर बनता है। चंबी के ज़रिए दिल्ली जैसे शहरों में पूर्वोत्तर की महिलाओं पर दैनंदिन होने वाली लैंगिक हिस्सा को दर्शाया गया है। वहीं बेंदांग का किरदार अपनी चुप्पी में उत्तर भारतीय समाज की रूढ़ियों, पूर्वाग्रहों, हिंसा की पोल खोलता है। बेंदांग के किरदार के बारे में ‘अखुनी’ के निर्देशक निकोलस खारकोंगोर ने ‘नागालैंड पोस्ट’ को दिए अपने एक साक्षात्कार में कहा भी है—‘‘बेंदांग का किरदार अरुणाचल प्रदेश के नीदो तानिया से प्रेरित है।’’
सयानी गुप्ता द्वारा निभाया गया नेपाली लड़की ‘उपासना’ का किरदार भी सामाजिक सोपानों की बहुस्तरीयता का परिचायक है। वह ख़ुद को पूर्वोत्तर से जोड़कर देखती है। लेकिन वंचना और अवमानना के शिकार पूर्वोत्तर के उसके साथी उसे ‘पूर्वोत्तर’ का नहीं मानते। यहाँ एक पीड़ित समुदाय ख़ुद भी विभेद और ‘अन्यता’ की उस प्रक्रिया में भागीदार नज़र आता है, जिसका वह ख़ुद भुक्तभोगी है।
हुमायूँपुर की गलियों में घूमती हुई ‘अखुनी’ फ़िल्म दिल्ली के उत्तर भारतीय लोगों की निगाह में, उनकी देहभाषा में पूर्वोत्तर के लोगों के प्रति गहरे पैठे पूर्वाग्रहों, विद्वेष और असंवेदनशीलता को दर्ज करती है। जहाँ सड़कों पर शोहदे ही नहीं अच्छे-ख़ासे परिवारों के लोग भी पूर्वोत्तर की महिलाओं पर फिकरे कसने से बाज़ नहीं आते। जिसकी मुखालफ़त करने पर पूर्वोत्तर की लड़कियों को ही यह समाज दोषी ठहराता है। जहाँ एक ओर यह फ़िल्म स्पर्श, रस, गंध की सामाजिकता और उसमें अंतर्निहित पूर्वाग्रहों, रूढ़ियों की बात करती हैं। वहीं दूसरी ओर यह पूर्वोत्तर के लोगों के प्रतिरोध, उनके जीवट और संघर्षों का भी हवाला देती है।
स्पष्ट है कि स्वाद और गंध की धारणा स्वयं में कोई निरपेक्ष या सार्वभौम धारणा नहीं है। यह व्यक्ति-सापेक्ष और समाज-सापेक्ष होती है। समाजीकरण की प्रक्रिया, व्यक्तिगत अनुभव, हमारा परिवेश ये सभी स्वाद और गंध संबंधी हमारे अनुभवों को आकार देते हैं। अकारण नहीं कि किसी एक समुदाय या व्यक्ति के लिए जो चीज सुगंधित और स्वादिष्ट हो, वही किसी दूसरे समुदाय के लिए बदबूदार और घटिया हो सकती है। पवित्रता और प्रदूषण, शुद्ध और अशुद्ध की धारणाएँ भी बहुत हद तक समाजीकरण की प्रक्रिया से निर्देशित होती हैं।
फ़्रेंच इतिहासकार एलेन कॉर्बिन ने अपनी पुस्तक ‘द फ़ाउल एंड द फ्रैग्रेंट’ में फ़्रांसीसी समाज के संदर्भ में लिखते हुए गंध की सामाजिकता और मानव-संवेदनाओं के पीछे काम करने वाली सामाजिक सत्ता का बेहतरीन ऐतिहासिक विश्लेषण किया है। एलेन कॉर्बिन दर्शाते हैं कि कैसे अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के फ़्रांस के अभिजात्य वर्ग ने गंध की संवेदना और उससे जुड़ी अपनी परिष्कृत रुचियों के आधार पर सामाजिक विभेदीकरण के स्तर निर्मित किए, जिसमें ग़रीब वर्ग, किसानों और फ़्रांस के ग्रामीणों की गंध से जुड़ी संवेदना को ‘असभ्य, बर्बर और आदिम’ क़रार दिया था।
गंध के आधार धनाढ्य वर्ग द्वारा किए जाने वाले इस विभेद को कोरियाई निर्देशक बोंग जून-हो ने अपनी चर्चित फ़िल्म ‘पैरासाइट’ में बख़ूबी दर्शाया है। इसमें दक्षिण कोरिया के धनिक वर्ग के प्रतिनिधि पार्क कुनबे का मालिक अपने ड्राइवर किम की समय की पाबंदी, उसकी कर्मठता की सराहना करते हुए भी उसके शरीर की गंध की शिकायत करता है। वह कहता है—‘‘अपने शरीर से निकलती उस गंध के ज़रिए मानो उसका ड्राइवर किम, मालिक और नौकर के बीच की सीमा का अतिक्रमण करना चाहता है।’’
जहाँ तक ‘अखुनी’ फ़िल्म में दर्शाए गए अखुनी व्यंजन की बात है, तो यह ज़िक्र कर देना प्रासंगिक होगा कि सोयाबीन के किण्वन (फ़र्मेंटेशन) से बनने वाला व्यंजन अखुनी, नागालैंड समेत पूर्वी हिमालय के प्रदेशों के जन-समुदायों में काफ़ी लोकप्रिय है। सिक्किम के लेपचा, भोटिया और नेपाली समुदायों में भी अखुनी काफ़ी लोकप्रिय है। नेपाली समुदाय द्वारा इसे ‘कीनेमा’ कहा जाता है, जोकि लिम्बू भाषा से आया शब्द है। अपनी तीखी गंध के चलते यह व्यंजन उत्तर भारत के दिल्ली जैसे शहरों में अखुनी खाने वाले समुदायों और उसकी गंध से घृणा करने वाले लोगों के बीच तनाव और टकराव का कारण भी बना। यहाँ तक कि वर्ष 2007 में दिल्ली पुलिस ने एक हैंडबुक जारी कर पूर्वोत्तर के छात्रों और अन्य लोगों को आगाह किया था कि वे अखुनी और उस जैसे दूसरे व्यंजन बनाने से बचें।
स्वीडन के स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की प्राध्यापक और नागालैंड की रहने वाली डॉली किकोन ने वर्ष 2015 में समाजविज्ञान की महत्त्वपूर्ण पत्रिका ‘साउथ एशिया’ में अखुनी और उसके समाजशास्त्र पर एक विचारोत्तेजक लेख लिखा था। ‘फ़र्मेंटिंग मॉडर्निटी’ शीर्षक वाले इस लेख में डॉली किकोन अखुनी के हवाले से दक्षिण एशिया में आधुनिकता, नागरिकता, राष्ट्र व समुदाय से संबद्धता की धारणाओं का विश्लेषण करती हैं। डॉली किकोन यह दिखाती हैं कि कैसे अखुनी जैसे व्यंजन किसी समाज की अस्मिता का, उसकी संस्कृति और इतिहास का अभिन्न अंग बन जाते हैं। इसकी थोड़ी-सी झलक किकोन द्वारा उद्धृत नागालैंड में बच्चों द्वारा गाए जाने वाले उस गीत में भी मिलती है, जो पूर्वोत्तर के विभिन्न आदिवासी समुदायों और उनके प्रिय व्यंजनों की निशानदेही करता है :
अखुनी खाई खाई सेमा मनु खाई
बसतंगा खाई खाई लोठा मनु खाई
अनिशे खाई खाई आओ मनु खाई
[सेमा जनजाति के लोग ‘अखुनी’, लोठा लोग ‘बसतंगा’ (बाँस की शाखों से बनने वाला व्यंजन) और आओ लोग ‘अनिशे’ खाना पसंद करते हैं।]
दिल्ली पुलिस द्वारा जारी किए गए उपर्युक्त हैंडबुक को समाजशास्त्री डॉली किकोन ने राज्य द्वारा कुछ व्यंजनों को वैधता प्रदान करने और कुछ को प्रतिबंधित करते हुए नागरिकों के खान-पान पर प्रभावी नियंत्रण की तकनीक के रूप में देखा। इसके ज़रिए पूर्वोत्तर के समुदायों को खानपान और समाज की राष्ट्रीय व्यवस्था में परिधि पर धकेल दिया जाता है। अखुनी पर राज्य, उत्तर भारतीय समाज और पूर्वोत्तर के समुदायों की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करते हुए डॉली किकोन खानपान की संस्कृति के इर्द-गिर्द होने वाले संवाद को समकालीन भारत में आधुनिक आदिवासी समाज की प्रतिरोध, आशंका और संवाद की अभिव्यक्ति के रूप में देखती हैं।
कहना न होगा कि खान-पान संबंधी ये व्यवहार जैसे, कोई व्यंजन तैयार करना, उसका उपभोग, उस पर चर्चा दैनंदिन जीवन में आधुनिकता से साक्षात्कार का माध्यम भी बन जाते हैं। डॉली किकोन के अनुसार, ऐसे में ‘अखुनी’ सिर्फ़ स्वाद और खाने का विषय नहीं रह जाती, बल्कि वह पूर्वोत्तर के लोगों द्वारा अपना अधिकार जताने, उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और आत्म-निर्णय के अधिकार जैसे बड़े राजनीतिक सवालों का केंद्र भी बन जाती है। इसमें पूर्वोत्तर के जनजातीय समुदायों और दिल्ली जैसे शहरों के लोगों के बीच संबंध, ख़ुद जनजातीय समुदायों के भीतर पुरुषों और महिलाओं के संबंधों का पदानुक्रम भी शामिल हो जाता है। स्वाद के इस पदानुक्रम में आधुनिकता, साम्राज्यवाद, वर्ग और श्रम की जटिल ऐतिहासिक प्रक्रियाएँ भी समाहित होती हैं।
डॉली किकोन का मानना है कि जहाँ एक ओर अखुनी, उसे बनाने और खाने वालों की खान-पान संबंधी सौंदर्यशास्त्रीय अभिरुचि की बानगी देती है। वहीं दूसरी ओर यह पितृसत्ता की संरचना, सार्वजनिक और निजी दायरों, जेंडर संबंधों और आधुनिकता, भारतीय राज्य के पूर्वोत्तर के जनजातियों के साथ सत्ता संबंधों की जटिलताओं की परिचायक भी बन जाती है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अपनी दादी के अनुभवों, अखुनी के बारे में उन्हें जानकारी देने वाली महिला अनोली सुमी के अनुभव और दिल्ली में जोख़िम उठाकर अखुनी बनाने वाले पूर्वोत्तर के लोगों के अनुभवों के जरिए डॉली किकोन समझाती हैं कि कैसे अखुनी सामाजिक संबंधों, साझेपन और खोने के इतिहास का अनूठा उदाहरण है। जहाँ एक खाद्य पदार्थ जन-इतिहास से अंतर्गुंफित हो जाता है, जिसके ज़रिए नागालैंड का जनजातीय समुदाय संवेदन की आधुनिक प्रणाली और उसकी समूची व्यवस्था को चुनौती देता है। कहना न होगा कि निकोलस खारकोंगोर द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘अखुनी’ एक व्यंजन और उसे बनाने में पेश आने वाली कठिनाइयों के माध्यम से पूर्वोत्तर के समुदायों की सामाजिकता और भारतीय राज्य और उत्तर भारतीय समाज से उनके संबंधों की जटिलताओं को दर्शाने में सफल रही है।
शुभनीत कौशिक हिंदी लेखक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : नेहरू का सिनेमा प्रेम │ मेहनत और प्यार के धागे से बुने हुए शहर की दास्ताँ