जौन एलिया की लिखत ::
लिप्यंतरण : विजय शर्मा

जौन एलिया

मैं इस वक़्त जो कुछ भी लिखना चाहता हूँ अगर वो न लिखूँ तो उससे क्या फ़र्क़ पड़ेगा? कोई भी फ़र्क़ नहीं पड़ेगा लिखने में भी वही है जो न लिखने में है। तो फिर सब लिखने वाले ये बात जानते होंगे कि लिखने में कुछ भी नहीं धरा। इतना कुछ लिखा जा चुका है—उसका आख़िर क्या नतीजा निकला? वो सब कुछ जो सोचा जाता है और वो सब कुछ जो चाहा जाता है, आख़िर उसका हासिल क्या है? अगर मैंने कोई ऐसी बात लिखी जो पसंद की जाए तो इससे फ़ायदा और अगर मैंने कोई मतलब इस तर्ज़ से बयान किया जिसकी दाद दी जाए तो इसका हसूल?

और फिर ये के हम जब सफ़ेद सोचते हैं तो सियाह देखने में आता है, जब धनक की तरफ़ हाथ बढ़ाते हैं, तो धूल हाथ आती है। उजाले लिखो और अँधेरे पढ़ो तो आख़िर उजाले लिखो ही क्यों? अच्छाई कहो और बुराई सुनो तो आख़िर तो आख़िर अच्छाई कहने की ज़रूरत ही क्या है? हाँ, ये सच है कि अफ़सानों का हक़ छीना जा रहा है और हर तरफ़ एक धाँधली मची है। तुम इस पर चीख़ उठते हो। मैं तो पूछता हूँ कि तुम्हारे चीख़ने से होगा क्या? मेरी समझ में आज तक ये बात न आई कि क़लम घसीटने वाले अपने आप को लौहो-क़लम का मालिक क्यों समझते हैं?

जिनके बस में कुछ भी नहीं है, उन्हें बोलने का अख़्तियार भी क्यों है और ये भी मैंने एक ही कही। मैं, जिसे बोलना कहता हूँ, वह कोई बोलने में बोलना है। बोलना तो ये है कि शनवाइयाँ भी कह उठें कि हाँ कोई बोलने वाला बोला और बस्तियाँ पुकार उठीं कि हाँ हमने सुना और हमने माना और फ़ासले दूर से आवाज़ दें कि ठहरो! तुम्हारी मुसाफ़त हम ख़ुद तय करेंगे और दरवाज़े ख़ुद चल कर आएँ कि आओ हमारे अंदर दाख़िल हो जाओ और अपनी आवाज़ को हमारे चौराहों में इस्तादा कर दो कि लोग उसके चारों तरफ़ जम’अ हो कर ज़िंदगी की गर्मी कसब करें। पर ऐसा बोलना ख़ुशवक़्ती और ख़ुशबाशी का बोलना नहीं है। ये उस सच का बोलना है जो बोलता है तो फिर कोई नहीं बोलता।

हम सब झूट बोलते हैं और अगर कोई सच बोलता है तो सच बोलने की तरह कहाँ सच बोलता है। हाँ, मैंने उन लोगों को देखा है, जो सच बोलने के द’अवेदार हैं, वो उस तरह बात करते हैं जैसे कोई अनकही कहने वाले हों और बात ये होती है कि उन्हें कुछ कहना भी नहीं होता । ये सच नहीं बोलते, सच बोलने की धमकी देते हैं इसलिए कि उनका मुँह सोने और चाँदी से भर दिया जाए और होता भी यही है। अगर तुम उनमें से किसी को देखो तो कहोगे कि ये कोई इंसान है या दन्बा। जो सच का दुःख सहते हैं और जो इस दुःख का बोझ सहारते हैं, उनके बदन पर दन्बों की तरह चर्बी नहीं चढ़ती।

फ़ाक़ाकशों की बस्ती में तुम्हें जो आदमी फ़रबा दिखाई दे उसके सलाम का भी जवाब न देना कि उसका वजूद पूरी बस्ती के हक़ में एक बदतरीन बदइख़लाक़ी है। यहाँ जो आदमी फ़रबा है, उसने ज़रूर किसी इकहरे बदन वाले का हक़ मारा है और जो इकहरे बदन वाला है उसने ज़रूर किसी लाग़र का पेट काटा है और जो लाग़र है उसने किसी नातवाँ के आगे से रोटी उठा कर निगल ली है और जो नातवाँ है उसने किसी बीमार के हाथ से लुक़मा छीना है और जो बीमार है वो ज़रूर किसी कफ़नचोर की ख़ैरात पर ज़िंदा है।

ऐ भाई! सच तो ये है कि हम सब की ज़िंदगी धाँधली और धोखे का धंधा है। जो लोग ग़रीबों और मेहनतकशों का नाम लेकर अपने गिर्द मजमा लगाते हैं, उनकी बातों में न आना और न हमारे लिखे पर जाना कि हम सब झूटे हैं। जिनका हक़ छीना गया है, उनको बस अपने ही ऊपर भरोसा करना है। हमने अपनी दानिस्त में जितने भी सच बोले, वो सब झूट थे। सुनो ऐ धोका खाने वालो! ऐ ख़ून के घूँट पीने वालो! तुम सब अपने ही ऊपर भरोसा करो और उनकी तरफ़ से चौकन्ने रहो, जो अपने आपको तुम्हारा चौधरी समझते हैं। अपना सच ख़ुद बोलो! फिर देखना कि ये झूट बोलने वाले और बकवास करने वाले भी तुम्हारे दबाव में आकर सच बोलने लगेंगे। रहा हमारा बोलना तो, हमारा बोलना न बोलना बराबर है। हम तो वो लोग हैं कि एक बार बोलें तो दस बार उसकी दाद चाहें, रही हमारी लिखत में तो बस लुभाना ही लुभाना है।

जौन एलिया (1931-2002) उर्दू के अत्यंत लोकप्रिय कवि-लेखक हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत लिखाई उर्दू से हिंदी लिप्यंतरण के लिए उनकी गद्य-कृति ‘फ़रनूद’ से चुनी गई है। विजय शर्मा उर्दू-हिंदी की नई नस्ल से संबद्ध कवि-लेखक और कलाकार हैं। वह कोलकाता में रहते हैं। उनसे vijaytowrite@gmail.com पर बात की जा सकती है। जौन एलिया के कुछ उद्धरण यहाँ पढ़ें : मैं भी बहुत अजीब हूँ, इतना अजीब हूँ कि बस

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