धूमिल के कुछ उद्धरण ::

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धूमिल

किसी लेखक की किताब उसके लिए एक ऐसी सुरंग है जिसका एक सिरा रचना की लहलहाती फूलों भरी घाटी में खुलता है, बशर्ते कि वह (लेखक) उससे (सुरंग के अंधकार से) उबरकर बाहर आ सके।

कहीं भी आग लगना बुरा है, मगर यह उत्साह पैदा करता है। आग आदमी को आवाज़ देकर सामने कर देती है।

इस ज़माने में संबंध सिर्फ़ वे ही निभा सकते हैं जो मूर्ख हैं।

कविता आदमी को मार देती है। और जिसमें आदमी बच गया है, वह अच्छा कवि नहीं है।

कविता का एक मतलब यह भी है कि आप आज तक और अब तक कितना आदमी हो सके।

कविता की असली शर्त आदमी होना है।

ठाठ, बाट और टाट ये तीनों कविता के दुश्मन हैं।

वीरता… बर्बरों की भाषा है।

कविता की कोई नैतिकता नहीं होती।

कविता किसी से सहानुभूति नहीं माँगती।

कविता अश्लील नहीं होती।

अंधे आदमी की आँख उसके पैर में होती है।

ममता, अक्सर, दरिद्रता की पूरक होती है।

कविता हिंसा की हिंसा करती है।

कहानी क्या कविता का शेषार्थ है?

आधुनिकता वह है जिस पर अतीत अपना दावा न कर सके।

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धूमिल (9 नवंबर 1936–10 फरवरी 1975) हिंदी की आधुनिक कविता के सर्वश्रेष्ठ नामों में से एक हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘नया प्रतीक’ के अप्रैल-1978 अंक में प्रकाशित उनकी डायरी से चुने गए हैं। उनकी एक कविता और उन पर एक टिप्पणी यहाँ पढ़ें :

सापेक्ष्य-संवेदन
कविता कविता से भीगती है

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