कबीर की कविताएँ वाया अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा ::
अँग्रेज़ी से अनुवाद और प्रस्तुति : उदय शंकर
अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा (जन्म : 1947) अँग्रेज़ी के बहुत मशहूर हिंदुस्तानी कवि हैं। उनके लिए कबीर प्रोजेक्ट हैं या नहीं, यह नहीं पता; लेकिन उनके द्वारा अनूदित कबीर की कविताएँ ख़ासी चर्चित हुईं—अनुवाद के तेवर के कारण। पहले से उपलब्ध अनुवाद की दो धाराओं के बीच अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा अपनी एक नई राह निकालते हैं। पहली धारा अकादमिक है, जो अधिकांशतः ‘पाठानुवाद’ होती है, जहाँ भूले से भी काव्य-रस की एक बूँद भी नहीं छोड़ी जाती है और दूसरी धारा अनुवादक के नितांत अपने कबीर की है, जहाँ अनुवादक और कबीर एकमेक हो जाते हैं।
अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा के अनुवाद की ख़ासियत है कि वह कबीर की कविता के केंद्रीय ‘तत्त्व/भाव’ को सुरक्षित रखते हुए सहायक भाषाई उपांगों को समकालीन बना देते हैं। वह समकालीन से भी आगे जाकर ‘संध्याभाषा (twilight language)’ हो जाती हैं, जहाँ अरविंद गाली, अश्लील और ठेठ देशी अंदाज़ की मध्यकालीन समानांतरता को भी ढूँढ़ लाते हैं। इसीलिए यह अनुवाद किसी पौराणिक पाठ का अनुवाद न लगकर आज की कविता लगता है। कविता जिस समय की भी लिखी हो हमेशा कविता ही होगी। इस बात को अपने अनुवाद में अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा गाँठ की तरह बाँधकर चलते हैं।
यहाँ प्रस्तुत कबीर की कविताएँ अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा के अँग्रेज़ी अनुवाद (सॉन्ग्स ऑफ़ कबीर, न्यूयॉर्क रिव्यू बुक्स क्लासिक्स, 2011) पर आधारित है। अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा के अनुवाद का आधार पारसनाथ तिवारी की ‘कबीर ग्रंथावली’ है। यहाँ प्रस्तुत हिंदी अनुवाद को एक चलताऊ प्रयोग कहा ही जा सकता है, लेकिन यह बात हमेशा संग-साथ चलती रही कि अँग्रेज़ी के इस मशहूर हिंदुस्तानी कवि के इस अद्भुत योगदान को याद करने और उनके इस ऋण को महसूस करने का एक बहाना तो यह हो ही सकता है। — उदय शंकर
एक
खल्वाट मुनियो
जटाजूट ऋषियो
मूर्तिपूजको
मूर्तिभंजको
व्रती जैनियो
भोगी शैवो
वैदिक पंडितो
आत्ममुग्ध कवियो
जुलाहे कबीर का संदेश है,
ध्यान से सुनो :
तुम सब पर
मौत का फंदा मँडरा रहा है।
दो
शरीर एक भांड
दिमाग़ दही
उसे मथतीं और
भगवान् के नाम
बारी-बारी गिरातीं
तीन ग्वालन
मक्खन आया
भांड फूटा
आनंद से विभोर
हो उठी ग्वालन।
तीन
कोई ज्ञानी?
जो समझा सके
लाल बुझक्कड़ वेद को!
आग लग जाती है पानी में
देखने लगता है अंधा
पाँच नाग निगल लेता है मेढक
बाघ को पीठ पर लिए
चली जाती है भैंस
भेड़िए को चबा जाती है बकरी
चीते की हत्या कर देता है हिरण
बाज़ से बेहतर है बटेर
बिल्ली से चूहा
कुत्ते से सियार
मैं हाथ जोड़
अपनी ये पंक्तियाँ
विनीत भाव से
ईश्वर को अर्पित करता हूँ।
चार
जलकर राख होते हो
ज़मीन में दफ़न हो
कीड़ों की अक्षौहिणी सेना
द्वारा चट लिए जाते हो
पहलवानों-सा
तुम्हारा शरीर
मिट्टी है
एक भांड
जिससे पानी चूता है
एक लोटा
जिसमें नौ छेद है।
पाँच
शहर
इस शहर की रक्षा
करने को किससे कहूँ
शहर
जहाँ मांस की दुकान
पर गिद्ध बैठते हों
शहर
जहाँ बैल गर्भमय
और गाय बाँझ होती हो
शहर
जहाँ बछड़े दूध देते हैं
दिन में तीन बार
शहर
जहाँ नौका बने बिल्ले को
चूहे खेते हों
शहर
जहाँ मेढक की रखवाली
साँप करते हों
शहर
जहाँ सियार
शेर पर झपटते हों
क्या मालूम है किसी को
मैं किस बारे में
बात कर रहा हूँ।
छह
मैं आया नहीं
मैं गया नहीं
मैं जिया नहीं
मैं मरा नहीं
कटोरा हूँ
थाली हूँ
आदमी हूँ
औरत हूँ
मैं महताब हूँ
और मीठा नींबू हूँ
हिंदू हूँ
मुसलमान हूँ
मैं मछली हूँ
और मैं जाल हूँ
मछुआ हूँ
काल हूँ
न जीवितों में हूँ
न मुर्दों में
मैं कुछ नहीं हूँ
मैं जपता रहूँगा
उसका नाम और
उसी में खुद को खो दूँगा।
जगते ही रौशनी को नहीं, अँधेरे को झड़ते महसूस किया,
इस रात के कितने घंटे हमने गँवाए, ओह कितने स्याह घंटे!
— जेरार्ड मैनली हॉपकिंस
एक
बग़ल में लेटी
आलिंगन हेतु प्रतीक्षारत हूँ
लेकिन वह मुँह मोड़े
नींद के आग़ोश में है
तभी गले पर
किसी की गुनगुनाहट महसूस की
वह आपके ख़र्राटे से अधिक मधुर
होना चाहता है
उसे अपनी बाँहों में समेट
कान में धीरे से कहूँगी
आप ही मेरे स्वामी हैं
आप ही मेरी स्वामिनी
अब क्यों कोई
हम दोनों के बीच आएगा?
कबीर यहीं पर सचेत करते हैं,
प्रेमी के धूर्त ग्राहक होने की
संभावनाओं से इंकार नहीं करते हैं।
दो
हमें पृथक करने से पहले
हीरे के भीतर से गुजरना होगा
मैं कमल हूँ, तो वह जल
मैं दासी हूँ, तो वह स्वामी
उनके प्रति मेरा प्रेम
कोई रहस्य नहीं है
मैं कीट हूँ
आपकी शिकारी मक्खियों के लिए
नदी
आपके समुद्र के लिए
सुहागा
आपके सोने के लिए।
तीन
बुद्धिश्री,
मैं पुरुष थी
औरत कैसे बन गई?
कभी शादी नहीं की
कभी गर्भवती नहीं हुई
फिर भी संतानें जनती हूँ
अनगिनत युवाओं के साथ
संभोगरत रही
और कुँवारी हूँ
ब्राह्मण के घर
ब्राह्मणी हुई
योगी के घर
योगिनी
तुर्क के घर
तुर्किन की तरह कलमा पढ़ी
बावजूद एक भूमिहीन घर में
हमेशा अकेले रही
कबीर इसे ही शरीर कहते हैं
मैं इसके स्पर्श से
सभी को वंचित रखती हूँ
अपने स्वामी को भी।
इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज़ : अर्पणा कौर