बातें ::
डेज़ी रॉकवेल
से
जे सुशील

डेज़ी रॉकवेल अनुवाद की दुनिया का एक सुपरिचित नाम हैं। हिंदी और उर्दू से अँग्रेज़ी में अनुवाद करने वाली डेज़ी ने शिकागो विश्वविद्यालय से साउथ एशियन स्टडीज़ में पीएचडी पूरी की और इस दौरान उन्होंने उपेंद्रनाथ अश्क पर एक पुस्तक भी लिखी। एके रामानुजम की अनुवाद की एक कक्षा के कारण अनुवाद को अपना कार्यक्षेत्र बनाने वाली डेज़ी ने उपेंद्रनाथ अश्क के उपन्यास ‘गिरती दीवारें’ और भीष्म साहनी के बहुचर्चित उपन्यास ‘तमस’ का अनुवाद किया। कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ के अनुवाद के लिए उन्हें अल्डो एंड जीन स्कैगलियोन पुरस्कार दिया गया, जबकि गत वर्ष उन्हें गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ के लिए प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार से नवाज़ा गया है। डेज़ी के जीवन में दक्षिण एशिया, अनुवाद, भाषा और ख़ास तौर पर ‘रेत समाधि’ की अनुवाद-प्रक्रिया को लेकर जे सुशील ने उनसे यह लंबी बातचीत की :

डेज़ी रॉकवेल

जे

पहले तो यह बताएँ डेज़ी कि आपका बचपन कैसा था? क्या बचपन में अलग-अलग भाषाएँ सीखने का शौक़ था आपको?

डेज़ी

मैं पश्चिमी मैसाचुसेट्स से हूँ। वह पहाड़ों में है, लेकिन वे छोटे पहाड़ हैं। हिमालय जैसा नहीं है। वहाँ बहुत सारे आर्टिस्ट, लेखक, कलाकार रहते हैं। बड़े नामी कलाकार वहाँ रहते थे एडिथ वार्टन (Edith Wharton), नैथानियल हाउथोर्न (Nathaniel Hawthorne) मेरे दादाजी नॉर्मन रॉकवेल भी बहुत मशहूर पेंटर थे, जो वहाँ रहते थे। मेरे परिवार में लगभग सब लोग आर्टिस्ट हैं। मेरे पिताजी एक्सपेरिमेंटल, कॉन्सेप्चुअल काम करते थे। मेरी माँ पेंटिंग भी करती थीं और लिखती भी थीं। नानी भी लिखती थीं, ड्राइंग करती थीं तो दोनों साइड से कलाकारों का परिवार रहा है मेरा।

जे

आप कलाकारों के परिवार से आती हैं। आपके दादा—जैसा कि आपने ज़िक्र किया ही—नॉर्मन रॉकवेल तो बड़े नहीं महान् कलाकारों में गिने जाते हैं। फिर पूरा परिवार कलाकार है तो फिर साहित्य और वह भी दक्षिण एशिया के साहित्य में रुचि की कोई ख़ास वजह थी।

डेज़ी

यह बहुत अच्छा सवाल है। मुझे पता नहीं कि हिंदी कहाँ से आई। दरअस्ल, यह एक लंबी कहानी है। लोग कहते हैं कि कभी-कभी बड़ा काम किसी बीज से निकलता है तो मेरी कहानी भी ऐसी है। हाई स्कूल में जब मैं थी तो मेरी एक सहेली थी, जिसके पास ख़ूब सारे आइडियाज़ होते थे कि कॉलेज जाने से पहले यह करना है। अमेरिका में लोग स्कूल और कॉलेज के बीच में एक गैप ईयर लेते हैं। अब यह कॉमन है, लेकिन मेरे समय में यह कॉमन नहीं था। मेरी सहेली के कई आइडियाज़ में से ही एक आइडिया था कि गैप ईयर में हम भारत जाएँ घूमने के लिए, वहाँ हिंदी सीखें और किसी अनाथाश्रम में काम करें। सहेली ने तो ऐसा कुछ किया नहीं, लेकिन मैंने उस समय हिंदी की प्राइवेट ट्यूशन लेनी शुरू की। उस समय बस देवनागरी लिपि सीखी, और कुछ नहीं किया। भारत भी नहीं गई, लेकिन आप कह सकते हैं कि मेरी सहेली ने वह हिंदी का बीज मुझमें डाल दिया।

जे

आपने शिकागो यूनिवर्सिटी से पीएचडी की है तो क्या सोचकर गई थीं कि वहाँ हिंदी पढ़ना है?

डेज़ी

शिकागो गई तो मैं हिंदी को भूल गई थी। मैं वहाँ अपने पहले साल यानी फ़्रेशमैन ईयर में लैटिन, जर्मन, फ़्रेंच, ग्रीक पढ़ रही थी। उस दौरान सुजैन रूडोल्फ़ का एक कोर्स किया मैंने—पॉलिटिकल साइंस का कुछ। सुजैन बताती थीं कि वह दूसरे या तीसरे साल अपने पति के साथ भारत जाती हैं और वे दोनों रिसर्च करते हैं। मुझे लगा कि यह तो बहुत ही दिलचस्प काम है। मैंने अपने बारे में सोचना शुरू किया तो लगा कि लैटिन पढ़कर क्या होगा। लैटिन तो प्राचीन भाषा है। उस पर बहुत काम हो ही चुका है। रिसर्च करें भी तो बहुत छोटा-सा कुछ खोजना होगा। मुझे स्कॉलर बनना था, लेकिन लैटिन स्कॉलर की ज़िंदगी तो बहुत ही बोरिंग लगती थी मुझे। तब मैंने सोचा कि अगर हिंदी मेरे शेड्यूल में फ़िट होगी तो पढ़ लूँगी। इस तरह से हिंदी में जो वापस आई तो फिर बाहर नहीं निकली हिंदी से।

जे

और जिसका फ़ायदा हिंदी को हुआ कि उन्हें आप जैसा अनुवादक अँग्रेज़ी में मिल गया।

डेज़ी

(हँसते हुए) आप ऐसा कह सकते हैं। यह सब कुछ सेरेंडिपिटी जैसा है…

जे

आपने शिकागो में एके रामानुजम का भी कोर्स किया था अनुवाद का?

डेज़ी

हाँ मैंने उनका कोर्स किया था अनुवाद का। उनके कुछ कोर्स और भी थे। वह आख़िरी कोर्स पढ़ाया था, उन्होंने अनुवाद का। उसके बाद उनका आकस्मिक निधन हो गया।

जे

आपने पीएचडी करते हुए उपेंद्रनाथ अश्क के उपन्यास का अनुवाद किया और बाद में भीष्म साहनी के ‘तमस’ का भी। ‘तमस’ का आपका अनुवाद तीसरा अनुवाद था?

डेज़ी

‘तमस’ के दो अनुवाद पहले हुए थे। मैंने अनुवाद करने से पहले वे अनुवाद पूरे नहीं पढ़े। कुछ हिस्से पढ़े। अगर मैं अनुवाद कर रही हूँ तो मैं देखती हूँ कि पहले जो हुआ है वह कैसा है। अच्छा है तो फिर मैं क्यों कर रही हूँ? जो दोनों अनुवाद हैं, पहले के वे बहुत अच्छे नहीं हैं। पेंगुइन ने मुझे यह नया अनुवाद कमीशन किया था। जय रतन का पहला अनुवाद है, जो बहुत अच्छा नहीं है। वह अपने मन से कुछ भी जोड़ देते हैं और कई पंक्तियाँ या पैराग्राफ़ भी ग़ायब कर देते हैं। जैसे समझिए कि कोई सीधा वाक्य है हिंदी में तो जय रतन उसके अनुवाद में अपनी कल्पना भी जोड़ देते हैं।

जे

इसके बाद आपने एक राजनीतिक फ़ैसला किया कि आप पुरुषों के उपन्यासों का अनुवाद नहीं करेंगी। यह एक राजनीतिक फ़ैसला रहा। इसकी क्या वजह रही?

डेज़ी

उन दिनों शायद मीटू का समय चल रहा था। सब लोग उस बारे में बात कर रहे थे। मैं सोच रही थी कि Male Gaze को हिंदी में क्या कहा जाए—मर्द की नज़र या पुरुष की दृष्टि। इस बारे में सोचते हुए ध्यान आया कि मैंने सिर्फ़ पुरुषों की किताबों का अनुवाद किया है अब तक। मैं एक तरह से इस बात से भी थक गई थी कि पुरुष लोग स्त्री-चरित्रों के बारे में कितने ख़राब तरीक़े से लिखते हैं। मैंने एक निबंध लिखा था जो शायद पब्लिश भी नहीं हुआ है। वह कुछ यूँ है कि अश्क जी के उपन्यास (शहर में घूमता आईना) में एक दृश्य है जहाँ एक महिला को पीटा गया है और वह चारपाई पर पड़ी है मोहल्ले में और वह बहुत चोटिल है। यह जाति की लड़ाई है और लोग बहस कर रहे हैं कि क्या होना चाहिए। पुलिस में ले जाना है, डॉक्टर बुलाना है या नहीं। हर तरह की बात चल रही है, लेकिन पूरे प्रकरण में लेखक यह बता नहीं रहा कि वह औरत कैसी है। औरत का कोई वर्जन ही नहीं है। लंबा-सा वाक़या है जिसमें पता नहीं चलता कि उस औरत पर क्या बीत रही है। चालीस-पचास पन्ने हैं, लेकिन उस औरत के चरित्र की कोई एजेंसी नहीं है। इसी दौरान मैं एक फ़्रेंच उपन्यास पढ़ रही थी और उसमें भी स्त्री-चरित्र पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया है। स्त्रियों की सब्जेक्टिविटी को पुरुष ध्यान में नहीं रखते हैं।

जे

उषा प्रियंवदा के उपन्यास ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ के अनुवाद का अनुभव कैसा रहा। वह ‘रेत समाधि’ की तुलना में कम जटिल उपन्यास है।

डेज़ी

वह उपन्यास मेरी छुट्टी थी। मैंने वह अनुवाद ‘रेत समाधि’ के अनुवाद के बीच में ही कर डाला था। ‘रेत समाधि’ से ब्रेक लिया और यह कर दिया था। वह छोटी-सी किताब है। आसान था अनुवाद करना तो उसे जल्दी-जल्दी कर दिया।

जे

आपने ख़दीजा मस्तूर के दो उपन्यासों का भी अनुवाद किया है?

डेज़ी

उनके दो नॉवेल हैं—‘आँगन’ और ‘ज़मीन’। ‘आँगन’ का टाइटल है—‘द वीमेंस कोर्टयार्ड’ और ‘ज़मीन’ अँग्रेज़ी में है—‘ए प्रॉमिस्ड लैंड’।

जे

आप जब हिंदी और उर्दू से अनुवाद करती हैं तो क्या अंतर पाती हैं भाषा में या कहने में या व्याकरण में?

डेज़ी

बहुत अंतर होता है। ग्रामर एक है, लेकिन हिंदी बहुत एक्सपेरिमेंटल और मेस्सी है। हिंदी के लेखकों में यह लगता है कि वे अभी भी प्रयोग करने के दौर में हैं। हिंदी बहुत पुरानी भाषा नहीं है। खड़ी बोली या आधुनिक हिंदी की बात करें तो। तो उसके लेखक प्रयोग करते हैं ख़ूब भाषा के साथ। किसी किशोरवय बालक की तरह लोग हिंदी में प्रयोग करते हैं।

जे

हिंदी के लोग नाराज़ होंगे आपसे…

डेज़ी

हँसते हुए… हाहाहा… अब क्या कहा जाए। उर्दू में ऐसा नहीं है। हिंदी में क्या है कि नए शब्द बनाते हैं लेखक। भोजपुरी से ले लिया शब्द, पंजाबी से ले लिया। अन्य भाषाओं से ले लिए शब्द। उर्दू में ऐसा नहीं है। मेरे एक प्रोफ़ेसर कहते थे कि उर्दू फ़्रेंच की तरह है और हिंदी स्पैनिश जैसी। फ़्रेंच में ऐसा होता है कि सब कुछ बहुत स्पष्ट है। उर्दू में ऐसा है। हिंदी में बाक़ी भाषाओं से चीज़ें आती रहती हैं, जैसे स्पैनिश में होता है।

जे

आपने जो मेटाफ़र इस्तेमाल किया है उर्दू मैच्योर है और हिंदी किसी किशोर जैसी… यह बहुत सुंदर बात है।

डेज़ी

हाँ और ऐसा कहना हिंदी का अपमान नहीं है। यह अच्छी ही बात है।

जे

अब आते हैं ‘रेत समाधि’ पर जिसके नैरेटिव स्ट्रक्चर, फ़ॉर्म और भाषा पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। मैंने अँग्रेज़ी, हिंदी दोनों में इस नॉवेल को पढ़ा है और कह सकता हूँ कि कई जगहों पर हिंदी की तुलना में अँग्रेज़ी में स्पष्टता भी है। मैं एक उदाहरण देता हूँ। नॉवेल में एक चरित्र है—गंभीर—जो एक विशेषण है, मगर हिंदी में नाम की तरह भी इस्तेमाल होता है, जैसे : क्रिकेटर गौतम गंभीर। लेकिन अँग्रेज़ी में आपने इस्तेमाल किया है—द सीरियस वन। अब चूँकि नॉवेल में बहुत रेयरली किसी का नाम है। चरित्रों के नाम माँ, बेटी, बड़े भी है जो मूल रूप से संबोधन हैं तो गंभीर के लिए ‘द सीरियस वन’ बिल्कुल परफ़ेक्ट बन पड़ा है।

डेज़ी

अस्ल में यह समस्या गंभीर से अधिक बड़ी समस्या है। हिंदी या उर्दू में अनुवाद करने में पारिवारिक संबंधों का अनुवाद करने में समस्या होती है जैसे किसी नॉवेल में एक स्त्री है तो वह सास भी है, बहू भी है, बेटी भी है, देवरानी भी है। अँग्रेज़ी में भी ऐसा होता है, लेकिन अँग्रेज़ी में नाम से संबोधित कर सकते हैं। हिंदी या उर्दू में ऐसा नहीं होता। रिलेशनशिप से डिफ़ाइन होता है। ‘रेत समाधि’ में जैसे माँ है तो माँ है। बेटी बेटी है। बहू बहू है। बड़े बड़े हैं। अँग्रेज़ी में पढ़ने वालों के लिए यह सहूलत हो जाती है कि बेटी हर जगह बेटी है। जो बेटा है—गंभीर नाम का—वह जब ऑस्ट्रेलिया जाता है तो उसे गंभीर नहीं बुलाया जाता। मैंने भी दो नाम रखे—द सीरियस वन और जब विदेश चला गया तो ओवरसीज़ सन। मैं उस बेटे के लिए एक टाइटल खोज रही थी, क्योंकि उसके दो हिस्से हैं—एक तो जब वह भारत में है और जब बाहर जाता है।

जे

कृष्णा सोबती की किताब में मँझली करके एक चरित्र है और आपने उनकी किताबों का भी अनुवाद किया है। ‘रेत समाधि’ कृष्णा जी को समर्पित भी है।

डेज़ी

हाँ, आपने बहुत अच्छा नाम लिया। कृष्णा सोबती का अनुवाद करते हुए ये संबंध बड़े साफ़ हुए। ये जो रिलेशनशिप वाले सारे सवाल। देवरानी, जेठानी वाले जो रिलेशन हैं वे। ‘मित्रो मरजानी’ में तो यह सब बहुत आता है।

जे

‘रेत समाधि’ में एक वाक्य है जो क़रीब दो पन्नों तक चलता है। सोशल मीडिया पर भी यह पन्ना तब बहुत शेयर हुआ, जब किताब को बुकर मिला। हिंदी में जिनके पास नॉवेल हो वह पेज नंबर 78-79 और अँग्रेज़ी में 148-151 पर उस वाक्य को देख सकते हैं। यह वाक्य कितना कठिन रहा?

डेज़ी

वह बहुत ही कठिन रहा। जैसा मैंने कहा कि उषा प्रियंवदा का अनुवाद छुट्टी जैसा था। इस वाक्य में कोई छुट्टी नहीं थी। मतलब आपको एक बार में ही करना है, आप रुक नहीं सकते। मैंने उसमें कॉमा का इस्तेमाल ख़ूब किया है। हिंदी में कॉमा भी नहीं है। शायद बुकर के बाद गीतांजलि अँग्रेज़ी का वर्जन देख रही थीं। उन्होंने देखा कि मैंने कॉमा का इस्तेमाल किया है तो वह थोड़ी नाराज़ हुईं। शायद पहले देखा हो तो ध्यान न दिया हो। वह अपसेट हो गईं और बोली कि कॉमा हटा देना चाहिए। मैंने कुछ नहीं कहा। कुछेक दिनों के बाद गीतांजलि ने कहा कि रहने दें—अँग्रेज़ी में यह ठीक लग रहा है। गीतांजलि का आइडिया यह था कि फ़ील ऐसी हो कि किसी ने एक ही साँस में एक बात कही है पूरी।

जे

अँग्रेज़ी में लोग एक साँस में बोलते नहीं हैं। हिंदी में बोलते हैं ऐसे…

डेज़ी

(हँसते हुए) हाँ, शायद हम लोग थोड़ा ठहर-ठहरकर बोलते हैं।

जे

आपके अनुवाद में वाक्यों की संरचना का बहुत ख़याल रखा गया है और हर वाक्य लगभग-लगभग अनूदित है। हिंदी में यह बहुत एक्सपेरिमेंटल है और कई लोग कह सकते हैं कि यह पढ़ने में सहज नहीं है। मेरे लिए भी यह सहज नहीं रहा। हो सकता है कि यह मेरी कमअक़्ली हो। लेकिन अँग्रेज़ी में सहज लगता है, मसलन एक वाक्य है हिंदी में पेज नंबर पेज—79 और अंग्रेजी में 153 पर : ‘‘लंबा आलाप चल सकता है मुहम्मद बिन तुग़लक़ के न बन पाने और गांधी के बन जाने पर, एक के ग़लत और दूसरे के सही वक़्त और मक़ाम की बदौलत।’’ आपका अँग्रेज़ी अनुवाद आलाप संगीत के मेटाफ़र की जगह सामान्य मुहावरा इस्तेमाल करता है : ‘‘We can talk ourselves hoarse discussing the failure of Muhammad bin Tughluq’s ahead-of-his-time ideas, versus the success of Mahatma Gandhi’s right-on-time revolution।’’

डेज़ी

अस्ल में यह सोचना होता है आपको कि मेटाफ़र है किसलिए? अनुवाद में यह बहुत महत्त्व रखता है। मेटाफ़र उस जगह पर कर क्या रहा है। अगर मैंने आलाप का मेटाफ़र ही इस्तेमाल किया होता तो पाठक डिस्ट्रैक्ट हो जाता, क्योंकि यह वाक्य अपने आपमें ही जटिल है। अँग्रेज़ी पाठकों को ज़रूरी नहीं कि पता हो कि तुग़लक़ कौन है। गांधी भले पता हो। अब तुग़लक़ और गांधी के बीच जो तुलना है, उसी में मैं अगर हिंदुस्तानी संगीत के आलाप की अवधारणा को भी डाल दूँ तो बहुत भ्रामक हो जाएगी स्थिति। कल्पना कीजिए कि ये दो चरित्र हैं और कोई इनके बारे में संगीत में बात कर रहा है… उतार-चढ़ाव में। अब मैंने इसकी मूल बात को पकड़ने की कोशिश की न कि संगीत के मेटाफ़र को ताकि मूल बात पकड़ी जा सके अनुवाद में। मैंने मेटाफ़र को नहीं छोड़ा। मेटाफ़र के तत्त्व को पकड़कर बरक़रार रखने की कोशिश की।

जे

इसी पंक्ति में आगे तुलना करते हुए गीतांजलि जीवी देसानी और रश्दी का नाम लेती हैं। आप स्पेसिफ़ाई करती हैं जीवी देसानी को। हिंदी के पाठक को शायद नहीं मालूम हो देसानी और रश्दी का भाषाई रिश्ता। यह आपने एक तरह से आसान किया पूरा नाम देकर। इसी तरह किताब में कई रेफ़रेंस आते हैं अँग्रेज़ी के—विट्गेन्स्टाइन भी आते हैं। जो हिंदी के पाठकों के लिए नए हो भी सकते हैं और नहीं भी। कम से कम देसानी और रश्दी के बीच जो भाषा का मामला है, संभवतः आम पाठकों के लिए वह रेफ़रेंस न हो।

डेज़ी

अनुवाद करते हुए मुझे हमेशा ऑडियंस का ख़याल रखना पड़ता है। यह सुपर इंपोर्टेंट है। मैं एक बहुत बड़े रेंज के ऑडियंस की कल्पना करती हूँ। मैं इसे ऐसे देखती हूँ : समझिए कि एक तंबू है। उसके एक कोने में आप जैसा पाठक है, दूसरी तरफ़ मेरी सास हैं जो अभी किताब पढ़ रही हैं। उनको भारत के बारे में कुछ नहीं पता है। तो मैं अनुवाद करते हुए कहीं बीच में रहती हूँ। जैसे आप जैसे पाठक के लिए यह कल्पना करना मुश्किल होगा कि दूसरे कोने में जो पाठक है, वह कितना भटक रहा है। किताब में पूरी फ़ेहरिस्त भारतीय ख़ानों की जो अमेरिकी पाठक के लिए समझना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उन्होंने उसके बारे में सुना ही नहीं है। अँग्रेज़ी की किताब में न जाने कितने हिंदी के शब्द हैं जो अनुवाद नहीं किए गए। तो मैं चाहती हूँ कि वह अगर गूगल करना चाहें तो एक सिरा हो उनके पास गूगल करके जानने के लिए।

जे

इस पर कई लोगों ने लिखा है, लेकिन मैं फिर भी पूछ रहा हूँ। दिमाग़ का दही वाला मुहावरा। हिंदी में पेज नंबर 92 और अँग्रेज़ी में 179. वाक्य या कविता है जो उठती नहीं थी, कैसे उठी कि ऐसे उठ गई? दिमाग़ हुए दही, घर में मची चिल्ला-चिल्ली। (इसमें कहीं भी लय नहीं है और न तुकबंदी है, इसलिए यह अटपटी लगती है; जबकि आपका अनुवाद तुक मिलाता है और पठनीय है।)

आपका अनुवाद है : Their minds turned to curd: hue and cry occurred. मेरे कहने का मतलब यह है कि आपने अनुवाद में अद्भुत प्रयोग किया है। यह कैसे संभव हुआ?

डेज़ी

लोग हमेशा अनुवाद के मामले में बात करते हैं—‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ की। मूल कृति में से क्या छूट गया। आमतौर पर अनुवाद के बारे में यह माना जाता है कि मूल कृति तो परफ़ेक्ट है और अनुवाद में कहीं न कहीं कुछ छूट ही गया होगा इम्परफ़ेक्ट होगा। क्योंकि कुछ न कुछ तो खो ही जाता है। मेरी फ़िलॉसफ़ी यह है कि अनुवाद में संभव है कि कुछ तो खोता है, लेकिन बहुत कुछ पाया भी जाता है या कहें कि ‘फ़ाउंड इन ट्रांसलेशन’। अनुवाद करते हुए कितनी नई बातें आती हैं। गीतांजलि श्री के लेखन की स्पिरिट में मैंने बहुत सारी चीज़ों को पॉप-अप होने दिया जो शायद मैं नहीं करती। कर्ड और ऑकर्ड ऐसे ही पॉप-अप हो गया। अगर गीतांजलि मेरी जगह होती तो वह यही करतीं। अनुवादक को समझिए कि एक साइकिक जैसा होता है जो लेखक की आत्मा को चैनल करता है—अनुवाद करते हुए। उस एनर्जी को चैनल करता है लिखते हुए।

जे

बकरकना और कनाबकर (हिंदी में पेज 153) के लिए आपने goatearking और Eargoatking अँग्रेज़ी में (317-318) का प्रयोग किया है। अँग्रेज़ी में क्या ऐसे शब्द हैं—डिक्शनरी में। मैंने खोजे मिले नहीं।

डेज़ी

इन दोनों का जवाब किताब के अंत में है, जब माँ और बेटी पाकिस्तान में हैं—मरुस्थल में हैं। वहाँ इस शब्द का मतलब बताया गया है, लेकिन मैं यहाँ नहीं बताऊँगी। मैं चाहूँगी कि पाठक उसे पढ़ें और जानें। अभी बताऊँगी तो स्पॉयलर हो जाएगा। मुझे भी पहली बार में पता नहीं चला था। मैंने दस बार पढ़ी होगी यह किताब।

जे

कई जगहों पर हिंदी में यह उपन्यास बोझिल प्रतीत होता है। यानी नैरेटिव एकदम इधर-उधर है। कोई तारतम्य नहीं नज़र आता है। ऐसे text के अनुवाद में क्या समस्या होती है। क्या आपके ज़ेहन में एक समझ पहले से डेवलप रहती है या फिर आपने एक-एक चैप्टर के हिसाब से रखा चीज़ों को या फिर एक-एक पैरा कर लिया फिर दुबारा उसको पढ़ा।

डेज़ी

मैंने तो अनुवाद किया, क्योंकि अनुवाद करना था। मैं करती चली गई। हिंदी में जो चैप्टर इटैलिक्स में हैं, जो प्लॉट से रिलेटेड नहीं हैं—उन्हें सबसे कठिन था ट्रांसलेट करना। वे वास्तव में कविता हैं—गद्य में लिखी गई कविता। मुझे अंत-अंत में यह समझ में आया कि यह कविता है। मुझे भी पहली बार में लगा कि यह क्या है! जो पाठक कन्फ़्यूज़्ड हैं इसे लेकर, वे पढ़ते हुए सोचें कि ये हिस्से किसी बॉलीवुड फ़िल्म के गाने की तरह हैं। फ़िल्म के गाने किसी फ़िल्म के कथानक को आगे नहीं बढ़ाते। यह उसमें एक इमेजरी जोड़ते हैं। इन हिस्सों को वैसे देखा जा सकता है।

जे

तो यह कह सकते हैं कि पहली बार पढ़ते हुए पाठक कन्फ़्यूज़ हो सकता है। मतलब ‘रेत समाधि’ पहली बार पढ़ने में समस्या होने को सामान्य माना जाए।

डेज़ी

बिल्कुल-बिल्कुल। जब मैंने अनुवाद करने का फ़ैसला किया था या मैं राज़ी हुई थी तो मैंने पूरी किताब नहीं पढ़ी थी। पढ़ने लगी तो फिर बहुत धीरे-धीरे समझ में आया।

जे

चूँकि आप कलाकार भी हैं। आपने इस किताब का कवर पेज भी डिजाइन किया है, इसलिए यह सवाल पूछना उचित है कि हिंदी में हर चैप्टर शुरू होने से पहले एक डिजाइन है। पहले हिस्से में चार पंखुड़ियाँ हैं (जिसमें एक छोटी है) जबकि दूसरे और तीसरे हिस्से में पक्षी है। वह लगता तो कौआ ही है। कौए का ज़िक्र इसलिए कि कौआ एक चरित्र भी है—नॉवेल में। लेकिन अँग्रेज़ी में ऐसा नहीं है।

डेज़ी

इसका तो सिंपल जवाब यह है कि अँग्रेज़ी वालों ने कहा नहीं पेंट करने के लिए। हिंदी में कहा गया तो मैंने कर दिया। अँग्रेज़ी वाले नहीं चाहते थे ऐसा।

जे

हिंदी में क़रीब तीन सौ पेज की किताब है। अँग्रेज़ी में सात सौ लेकिन अँग्रेज़ी में हर चैप्टर के बाद एक गैप है। व्हाइट स्पेस है—अँग्रेज़ी में। क्या यह जानबूझकर रखा गया था कि पाठक को स्पेस मिले ऐसे उपन्यास में जिसमें फ़ॉर्म नॉन लिनियर है।

डेज़ी

यह उपन्यास बहुत जटिल है पढ़ने में। मैंने सोचा कि पाठकों को थोड़ी साँस लेनी चाहिए पढ़ते हुए। थोड़ी छुट्टी चाहिए। एक ब्रीदिंग स्पेस। थोड़ा समय चाहिए पचाने के लिए इसलिए मैंने हर चैप्टर के बाद ख़ाली जगह देने का सुझाव दिया। हिंदी की किताब इस मामले में बहुत क्रैम्पड लगती है। हिंदी की किताब क्लासट्रोफ़ॉबिक है। अँग्रेज़ीवालों को जब मैंने यह सुझाव दिया तो वे तैयार हो गए।

हिंदी में भी ऐसा होता तो अच्छा होता, लेकिन काग़ज़ का दाम बहुत मैटर करता है।

जे

और अब अनुवाद की प्रक्रिया के बारे में बताएँ कि गीतांजलि श्री कितनी इनवॉल्व थीं, क्योंकि यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उन्हें पर्याप्त अँग्रेज़ी भी आती है।

डेज़ी

मैं भारत जाना चाहती थी, लेकिन कोविड आ गया तो मैं नहीं जा पाई। तो हमारा पूरा संपर्क ई-मेल पर रहा। हमने कभी ज़ूम नहीं किया। हमने कभी फ़ोन पर बात नहीं की। हम एक दूसरे को ई-मेल्स लिखते रहते थे। सैकड़ों ई-मेल किए एक-दूसरे को। कुछ लोगों ने कहा कि इन ई-मेल्स को भी किताब के रूप में आना चाहिए, लेकिन मुझे नहीं लगता; क्योंकि यह बहुत रिपीटिटिव ई-मेल्स हैं।

जे

बुकर लेते हुए आपने बांग्ला से अँग्रेज़ी में अनुवाद करने वाले अरुणावा सिन्हा के बारे में कहा कि वह मैचमेकर थे। मैं चाहूँगा कि आप वह क़िस्सा भी शेयर करें।

डेज़ी

डेबोरा स्मिथ अनुवादक हैं। उन्हें कोरियन उपन्यास ‘वेजिटेरियन’ के लिए बुकर मिला था और उन्होंने उसी से एक पब्लिशिंग हाउस खोला टिल्टेड एक्सिस। वह एशिया से अनुवाद प्रकाशित करती हैं। उन्होंने गीतांजलि का कुछ अनुवाद में पढ़ा था ‘माई’ से। वह भारत में थीं और गीतांजलि की किसी किताब का अनुवाद प्रकाशित करना चाहती थीं। उन्होंने अरुणावा से पूछा तो अरुणावा ने ‘रेत समाधि’ के बारे में बताया और मेरा नाम भी सुझाया अनुवाद के लिए। मैं तब भारत में थी तो डेबोरा से मुलाक़ात हुई कॉफ़ी पर। उसके बाद मैंने राजकमल प्रकाशन के दफ़्तर जाकर किताब ली।

जे

आजकल आप किस किताब का अनुवाद कर रही हैं?

डेज़ी

उर्दू का एक उपन्यास है—‘नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर’ जो निसार अज़ीज़ बट्ट ने लिखा है पचास के दशक में। यह नॉवेल समझिए कि ‘मिडिल मार्च’ और ‘मैजिक माउंटेन’ के बीच एक कड़ी जैसा है। इसके अलावा गीतांजलि के उपन्यास ‘हमारा शहर उस बरस’ का भी अनुवाद चल रहा है।


जे सुशील से परिचय के लिए यहाँ देखें : ‘अगर तथ्यों ने लोगों का दिमाग़ नहीं बदला है तो’

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