कविताएँ ::
शिवदीप

शिवदीप

पृथिवी पर एक बच्चे की लाश

एक

जैसे-जैसे भर रहा है धुआँ मेरे अंदर
वैसे ही बालकनी में जमा हो रही है—
दिसंबर-जनवरी की मोटी धुंध
एक डेढ़ डिब्बी ईंधन
चौथा हिस्सा ऋतु

सामने का पुल नज़र नहीं आ रहा
न उस पर जाती कार
एक धुँधली रोशनी जा रही दाएँ से बाएँ
साथ-साथ चल रही हैं मेरी आँखें
नज़र की सर्द रेखा

रोशनी के ओझल हो जाने तक मैं इस रोशनी पर लोगों के बारे में सोचता हूँ। मैं पता नहीं क्यों गिनती करना चाहता हूँ कि कितनी सवारियाँ है, कितने मर्द, कितनी औरतें! अगर कोई बच्चा है तो क्या वह सो रहा है या फिर सिर्फ़ दो ही सवारियाँ हैं। प्रेमी जोड़ा अपना मनपसंद गाना सुनता हुआ जा रहा है और जहाँ धुंध पतली पड़ती होगी—वे देखते होगें एक दूसरे को… चाहे एक सेकंड के दसवें हिस्सा जितना ही। इतने में मेरी नज़र मेरी पुतली की बाईं ओर ज़ोर से टकराती है।

आ रही है ट्रेन की कूक
किस दिशा से? नहीं पता!
मगर मेरी ठंडी हड्डियों से टकरा रही है
शरीर ने बिजली बनाना बंद कर दिया है
मेरे कानों में भर रही हैं—आवाज़ें, चीख़ें
लोहे पर लकड़ी से लगती चोट
लोहे पर घिसता लोहा
मुँह में रेत की किरच
केशों में घूमते किसी जानवर के पंजे की आहट
जंगल के चमड़े से उठते संगीत की गूँज :
जीभ का पागलपन
हिलते पहाड़ की हड्डियों की चुर्र-मुरर
नसों के नीलतन में फटता काला बारूद और प्रेम की तिड़कन

ठंडी गीली रेलिंग को अपने ज़ख़्म पर लगाता हूँ। जीवित होने का अंश ढूँढ़ता या मरने के लिए देह में कोई ख़ास स्थान, कोई ऐसी जगह जिसका ज़िक्र किसी ग्रंथ, किसी उक्ति में न हो; कोई ऐसी विधि जो किसी की पकड़ में न आए, कोई ज़हर जिसको साइंस आइडेंटिफ़ाई न कर सके।

दिन की आवाज़ों के बारे में और सोचता हूँ या सोचना चाहता हूँ,
मगर अब कुछ भी सुनाई नहीं देता
कुछ भी दिखाई नहीं देता

मेरे कानों में शायद मेरे सन्नाटे की बीप है
नहीं, शायद ये उस कूक की पूँछ है
जो रेलगाड़ी भूल गई होगी—जल्दी में

अगले स्टेशन पर पहुँचने की बेचैनी में मुझे वो लंबे ओवरकोट वाला उदास यात्री क्यों याद आता है जिसे इस ट्रेन में दाख़िल होने के लिए अपना उदासी का ड्रामा बंद करना है? और वह रोज़ इसी चक्कर में स्टेशन लेट पहुँचता। गाड़ी की पहली छुक् की तरफ़ भागते, उसका कुछ न कुछ गिर जाता जिसे बिना उठाए वह गाड़ी के दरवाज़े की ओर लपकता है फिर उस गिरी चीज़ को, उससे दूर होते स्टेशन को देखता हुआ दूर जाता है।

मेरी इंद्रियाँ और कल्पना… सब कुछ दब गया है—कहीं बर्फ़ के नीचे। वह जगह यहाँ एक बार एक चिड़िया मरी मिली थी—लहू से लथपथ।

जैसे जा रही थी रोशनी पुल पर…
ऐसे ही जा रहा है सब—दाएँ से बाएँ, बाएँ से दाएँ, ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर, इधर से उधर, यहाँ से वहाँ—बाहर से भीतर।

और मैं बर्फ़ के नीचे दबा
नंगा
झाँक रहा हूँ अवाक्
सब कुछ बदल गया ठंडे दरवाज़ों में—
दृश्य-अदृश्य

कुछ साये गुज़र रहे हैं मेरे ऊपर से
गिर रहा है मेरे ऊपर सफ़ेद आसमान

यह कहाँ गिर गया हूँ मैं?

कोई तारा, बादल, रंग नहीं है आसमान में; कुछ भी नहीं है, ऊपर से गुज़रते हैं—काले बूट, गुलाबी पैर, बड़े कल्पित नाख़ून, जंगल, फ़ैक्टरियाँ, भाषा, मौन, इतने लोग, इतनी आवाजाही, पशु, परिंदे, समझ, बेअक्ली, बेचैनी। एक अनपढ़ सफ़ेद ख़ाली काग़ज़ को खोद रहा है, उसके नाख़ून चुभते हैं। यह कैसी जगह है कि गोलाई नुकीलेपन में बदल गई है, सब कुछ तीखे दाँत में बदल रहा है; सब कुछ सिर्फ़ मरना या मारना जानता है, सब कुछ उठ रहा है।

कितना कुछ उठकर चला जा रहा है मेरे पास से—

जैसे कि एक दिन आसमान ऊब गया, पंख फैलाए और उड़ गया।

जैसे एक अनजान मुल्क के एक वीरान पर सुंदर स्टेशन स्टेशन की पीली बेंच से उठकर तुम चली गई थीं।

जैसे बालकनी में से झाँकती तुम, एक रेल के डिब्बे से उतर गईं
वैसे जैसे कोई भी रेल के डिब्बे से उतरता है।

जैसे उदास लंबे ओवरकोट वाला आदमी एक दिन ट्रेन के समय से पहले पहुँचा, उसकी कोई चीज़ नहीं गिरी; पर इस बार वह ट्रेन के ऊपर नहीं, बल्कि नीचे चला गया।

जैसे जंगल में नगाड़ा बजा रहे किसी बंदे का दिल फ़ेल हो गया एकदम और हर एक पशु-पक्षी-वनस्पति ने अपनी आवाज़ खो दी।

जैसे जंगल कटा और फ़ैक्ट्री में लकड़ी काटने वाले मज़दूर की शहरग लकड़ी काटने वाले ब्लेड से टकरा गई।

जैसे पुल पर जा रही गाड़ी में बच्चा सो नहीं रहा था—
वह उस बच्चे की लाश थी।

जैसे इतना ही वक़्त लगा, सेकंड का दसवाँ हिस्सा और गाड़ी चट्टान से टकरा गई और मनपसंद गीत की मौत हो गई…

जैसे-जैसे-जैसे-जैसे-जैसे

जैसे एक दिन तुम मेरे पास से उठीं और कहा कि अब प्रेम नहीं है तुम्हें।

प्रेम अब इस पृथ्वी से चिड़िया हुआ

मैं वहीं पर हूँ
जहाँ मुझे एक बार चिड़िया मिली थी
ख़ून से लथपथ!

दो

एक लाश को हाथ लगाकर मुझे एकदम ऐसे लगा कि ऐसा पहले भी हुआ है।

पहले भी छुआ है—मेरी उँगलियों ने गिरता हुआ तापमान जिसे पारा नहीं माप पाया।

मगर मैं लाश को हाथ लगाकर क्या देखना चाहता हूँ

क्यों देखना चाहता हूँ
क्यों छोड़ने हैं मुझे एक ठंडी रीढ़ पर अपने फ़िंगर-प्रिंट्स

मैं दरवाज़े से बाहर जाता हूँ—यह सोचता हुआ कि अगर छूना ही है ठंडा मांस जिससे उठ रही है महक तो क्यों ढूँढ़ रहा हूँ अपने अंदर किसी मुर्दाघर का पता, लंबी अंतहीन मगर टूटी सड़कों के किनारों पर लगा ख़ून…

चेहरों की लंबी क़तारों से निकल रहा हूँ मैं

कौन मर गया है मेरे भीतर
क्यों नाख़ूनों में फँस गई है अँधेरे की मिट्टी
क्या कारण है इसे कुरेदने का

किसने भेजा है यह शोक-आमंत्रण कि आओ और भीतर और नीचे ठीक अपने पैरों के नीचे और छाती के मध्य खिसक जाने दो तल!

किसने लिखा है गिरने को उड़ना
अंधकार के बीचोबीच मर गया है कोई
आओ ले आओ रुदालियों की माया और आँसुओं का काला सच
चीख़ों की चुप्पी, जानवरों के गीत, झूठ से भरे कलश…
आओ ले आओ देह का पाखंड

मैंने किसको मार डाला है

मैं लाश को दूर से देखता हुआ दुहराता हूँ कि मर चुके आदमी का शरीर किसी कपड़े के मेल का नहीं रहा।

अभी एक क़मीज़ का बटन टूटेगा और पहाड़ उतार देगा अपनी पथरीली जैकेट, मंदिर हिलेगा, ईश्वर की मूर्ति खिसक जाएगी।

हाँ, मैंने ही कहा
कि इतना ही इतिहास है ईश्वर का—

मगर यह किसी ईश्वर की लाश नहीं है

लाश—
कभी बेटा, कभी पति, कभी प्रेमी, कभी पिता—कभी दोस्त थी—
जितने भी आडंबर हैं इस दुनिया के
उनमें थी पूरी शामिल—
भीड़ में भीड़ थी
शून्य में थी संख्या

मारा नहीं, पत्थर नहीं उठाया—
मगर शांत भीड़ में भीड़ थी

सिर्फ़ इतना कहना कि जैसा भी था
वह जीवन था
और यह लाश जब लाश नहीं थी
उसमें जीवित थी

अभी की बात है—लाश जीवित थी

लाश—
देखती थी काँच की इस ओर से उस ओर
अपनी ऐनक का शीशा साफ़ किए बग़ैर
अपनी भाषा में इतिहास लिखती
अपनी छोटी-सी मगर नई सभ्यता का

वह ब्रेल नहीं जानती थी,
मगर छू कर देखती थी सब कर्मकांड

वह रिश्तों में कभी-कभी मुस्कुरा दिया करती थी
लिखती थी आत्मा के ऊपर एक फ़िक्शन
बुनती थी संगतरी मछली अपने अंदर सत्तर प्रतिशत पानी में
बोलने में रखती संयम और संकोच
पंक्चुएशन में फ़ुलस्टॉप का अच्छे से प्रयोग करती
किसी अच्छे मख़मली कपड़े में समेटकर रखती पीतल और पितर की आवाज

वह तनख़्वाह मिलने की तारीख़ पर अपने क़बीले के बच्चों के लिए नमकीन के साथ मीठा ले आती थी
वह कभी अपने आपसे चोरी से पीती शराब और
काँच को गाँव की हद से बाहर फेंक आती

वह किसी एक वाक्य से दूसरे वाक्य में कछुए की तरह चलती—अपना पुश्तैनी खोल पहनकर

उफ़् तो अब पहचान में आई है यह
यह लाश
मुझे पता है कि मुझे मिलना है और छूना है इसे

मैं पागलों की तरह अंदर भागता हूँ—टकराकर गिरा देता हूँ पवित्र शोक, सारी सामग्री, मिट्टी के बर्तन में भरा कुल का पानी, दीवार से लगी अर्थी की लकड़ी—चौखट में उलझे ख़ालीपन को भेदकर अंदर जाता हूँ।

देखता हूँ—जा चुकी है लाश—कमरे की पिछली दीवार को तोड़कर बाहर और अब मरम्मत की जा रही है इस दीवार की और मैं किसी से कह नहीं पता कि रुको छू लेने दो मुझे—इस लाश को।

तीन

नियति न थी,
मगर वे मिले

न कोई इरादा, न स्वप्न, न कोई वाक्, न महावाक्, न भविष्यवाणी
प्रतीक्षा जा चुकी इस ब्रह्मांड से
पृथ्वी जा चुकी
सारे जन्म—मर चुके

मर चुके घोड़ों-हाथियों-तमाम संधियों की लहूलुहान परछाइयों के झुंड पागल दौड़ में एक दूसरे से टकरा रहे थे।

बचे-खुचे पानी ने सोख लिए थे सारे रंग और वह एक चमकते मगर घातक पत्थर में तब्दील हो गया—पत्थर-समय में।

लाल लगभग मर गया
बचा जो वह ख़ुदकुशी कर रहा या क़त्ल
कुछ दिनों में रिक्त हो जाने वाली थी तब धरती
और सबको पता चल चुका था कि
आसमान का जो नीला है
वह सिर्फ़ और सिर्फ़ है—ज़हरीली गैसों की लीला

जैसे किसी जादूगर के झोले से बिना मंतर ग़ायब हो जाएँ उसकी गतिमान वस्तुएँ, उसकी टोपी में से छलाँग लगा दे मासूम ख़रगोश, क़मीज़ की आस्तीन तितलियों के लिए सलीब बन जाए, उसका वो हाथ कट जाए जिसमें उसकी करतबी सफ़ाई है और वह अपने अंतिम एक्ट में बिल्कुल अकेला—ख़ुद ही दर्शक, ख़ुद ही नाक, कान, आँख अपने बचे एक हाथ से अपना गला दबा दे।

यह दांते के नरक से भी भयंकर नरक था। एलियट का ‘वेस्टलैंड’—इस वेस्टलैंड के सामने कुछ नहीं। इसमें समा सकते थे—सारी दुनियाओं के असंख्य वेस्टलैंड; सारे मिथ और उनके सारे मंथन। जब रहा नहीं समांतर समय और नाम का कोई सूराख़ तो जीवन कैसे घटित हो?

जब रहा ही नहीं
जब रहा ही नहीं—जब रहा ही नहीं—जब रहा ही नहीं—जब रहा ही नहीं
जब रहा ही नहीं पहाड़
तो जोगी कैसे उतर आएगा पहाड़ से!

जब रहा ही नहीं दशम के बाद कोई द्वार
तो कहाँ से आए पहला महामानव

जब रहा ही नहीं…

आकाशगंगा चुग रहा बाईं पसली पर बैठा पक्षी…

हड्डियाँ, तीखी तलवारें कर रही हैं आक्रमण एक दूसरे पर—लोहे, ख़ून, कोलाहल और जलते मांस के साझे प्रयोग में बनी बू चली गई है ब्लैक होल की नाक में—किसी दूसरे चक्रव्यूह का वध करने।

उठ गए वेद
उड़ गए उपनिषद्
आख़िर में मारा गया डार्विन का बंदर
अपने अंतिम युद्ध में
स्विच ऑफ़ हो गई साइंस
बिजली की खोज बावली होकर फिर रही थी गलियों में
प्रकाश ने आँखें फोड़ लीं अपनी
और एक मासूम बच्चे ने पकड़ लिया
दुनिया भर के वोल्टेज़ से भरा नंगा तार

ग़लत साबित हो चुकी किसी और ग्रह पर जीवन होने की संभावना, क्योंकि वहाँ भी हो चुका था मनुष्य होने का विचार। वनवास पर जा चुके थे खुरदरे मांस के टुकड़े—हमारी तरह यही सोचते कि जीवन है दूसरे ग्रह पर—धरती और दूसरे ग्रह कर चुके थे उँगलियाँ एक दूसरे की ओर और मारी गई अपने ही फेंके जाल में फँसकर हवा में उड़ती तिलिस्मी मछली।

हाँ! कुछ भी तय नहीं

मगर
दो लोग मिले
कहीं न पहुँचने के लिए
कहीं जाने की व्याकुलता में
व्यस्त होने का आडंबर करते

वचन-प्रवचन जा चुका अख़बार पर! क्यों बची है अब भी और कहाँ है यह जगह बची हुई अविष्कार से, मनुष्य से, मनुष्यता से, गीले धार्मिक विचारों से मिले दो लोग दिखावा करते हैं—एक दूसरे से नहीं मिलने का।

मिले दो टुकड़े आग के—दो लंबी संगतरी रेखाएँ—हरी और लाल काई—हिम के पानी हो जाने के बीच के दो पल।

मिले—
दो अमीबे
दो कूटपाद
दो दिशाएँ
ज़ीरो ग्रेविटी
ओझल होते बढ़ते आगे-पीछे—एक दूसरे की ओर—एक दूसरे से दूर

मिले—
दो कीड़े
समय की काली चारपाई पर
अपना-अपना जाला बुनते
प्रेम और चुम्बनों पर प्रयोग करते
अपने-अपने ज्ञान को टेस्ट ट्यूब में गर्म करते
और अपने-अपने जाले खाते—
विपरीत दिशा में चलते

काल में अकाल या अकाल में काल
जल रही है चारपाई की राख और धुएँ से
उसके पाये से बँधे देवता और उसका ग़ुलाम—
दोनों मूर्च्छित हो गए
सब भुरभुराहट में तब्दील हो गया।

आज्ञा न थी!
प्रार्थना न थी!
प्रस्ताव न था!
और किसी भी लिपि, भाषा, संकेत या मुद्रा में कुछ तय न था; मगर मैंने देखे दो क्षुद्र ग्रह—एक दूसरे की तरफ़ भागते, एक दूसरे से अनजान, मगर एक दूसरे टकराने के लिए तत्पर।

समय के किसी ऐसे एक्ट में यहाँ समय क्षण, पहर, साल, सदियों, जन्मों के गणित से पार होता है।

यहाँ सुइयाँ मांस नहीं कुतरतीं।

आँकड़ों-फ़ॉर्मूलों के पार
हाँ, दो लोग मिले—
आख़िरी दो—पहले दो या शायद मध्य के
दो

चार

तुम्हारा वाक्य कितना सुंदर था
कि हमारे बाद इस कमरे में कौन रहेगा—
मगर मैं क्या कहता
मैंने हर चीज़ को कमरा और
कमरों को कारख़ाने बनते देखा है

कहना चाहता था कि जब पानी पार करने की कोशिश करते थके हुए सायों को देखता हूँ तो दिखता है कि हड्डियों के घिसने से बना दूधिया धुआँ बेनम बादलों की तरह उठकर उनकी चमड़ी बन जाता और वे छोटे-छोटे चौरस नुकीले डिब्बों में तब्दील हो जाते हैं।

रेल के डिब्बों जैसे एक दूसरे के पीछे चिपक कर चलते—कमरे या किसी समुंदरी जहाज़ पर पड़े अनगिनत एक साइज कंटेनर या किसी हवाई जहाज़ के अँधेरे में सोये हुए सूटकेस और उनकी कसी हुई थकान अभी टूट जाएगी—अभी एक-एक करके गिर जाएँगे… ऐसा मुझे लगता है।

मगर नहीं—ऐसा नहीं होता
वे चलते जाते हैं
फिर कुछ देर रुकते हैं
किवाड़ खुलता है उनका
कुछ सामान बाहर
कुछ अंदर
यह अदला-बदली उन्हें बदलाव लगती है
चार कमरे जुड़कर बैठे हैं
तो अपना आप एक क़बीला लगता है
वे एक नन्हे कमरे के बारे सोचते हुए भूल जाते हैं
कि यह लोहे का जंगल है

देखो तो कैसे तमाम अन्य चीज़ों के बग़ल में एक चालाक भाषा ने अपने मंतर में मुग्ध कर लिया है—‘कमरा’!

होता क्या है कमरा?

लगा नहीं था कभी कि एक कोमल पल में आ सकता याद कुछ ऐसे
इतना सख़्त, इतना कसा हुआ, चार दीवारें और उनके ऊपर एक टोपी
हाँ एक दिन तुम नहीं… याद आया—टोपी उतारकर नाटक करता कमरा जो तुम्हारे वाक्य में रहते ‘कमरे’ से बिल्कुल विपरीत था।

ख़ाली—भरा हुआ, स्थिर—उड़ता हुआ—लोहे की कुर्सी पर बैठा—उठा अगन-कुंड से—दो तरफ़ से घिरा एक रिक्त स्थान—बहरूपिया—बेमौसम बनतर, बेपहचान तासीर—बर्फ़ से ढका—कोयले से भरा—अपने होने की गंध से पागल, तारा टूटने के धुएँ से लथपथ—खाँसता—कमरा…

हम एक ऐसे दौर में प्रेम कर रहे हैं जब मनुष्यता कंक्रीट हो गई है और शहर क्रूर हो चुके हैं और क्रूरता की ट्रैफ़िक और मशीनों के शोर में फँसा एक मासूम बच्चा सड़क पार करना चाह रहा है।

लेकिन क्या एक विलायती ओवरकोट में छिपी यह रूह भी बनी है कंकर, काँच से—बालू सीमेंट के मिश्रण से—तरतीब में अंदर रखी हुई—करामाती टिकी हुई—क़दम फूँक-फूँक कर चलती और अपने रिक्त स्थानों को भरने के भरम में ख़ुद को और खोखला करती और एक दिन बिना भूचाल के पल में अपनी बनाई हवा से टकराकर गिर जाती… ड्राई-क्लीन होने निकल जाता ओवरकोट।

अकार जिसके अंदर रहा जा सके—छुपा जा सके—जिया जा सके—मरा जा सके आर या पार या मध्य में टिका जा सके!

क्या कह सकते हैं उसे (?)—कमरा, तो क्या ये पूरी पृथ्वी है (?)—कमरा या फिर अनगिनत कमरों में से एक में बंद रहती है दुनिया बनती बुनती रहती और नन्हे कमरे—फिर सारी उम्र इन्हें तोड़कर रेनोवेट करती है।

पूरी पृथ्वी पर फैली इस भयंकर आग में
नन्हे मासूम कमरे बनाए जा चुके हैं ईंधन
रोज़ लाश निकलती है इस स्वचलित कारख़ाने से
कमरा तो एक मुर्दाघर भी है
पर अब इसमें जगह नहीं कि रखी जा सके
एक भी और लाश

यह कैसी इमारत में क़ैद है कमरा
कमरों में इमारत
खिड़की नहीं, रौशनी नहीं, धूप नहीं
चिमनी है, असंख्य चिमनियों में घिरी, गूँगा धुआँ उगलती
सड़कें हो जाती हैं गाढ़े काले धुएँ का दलदल
पानी में हो जाते हैं सूराख़
जो पाँव उठता है
इसमें धँस जाता है
साँस नहीं ले पाता
और मारा जाता है

पागल हो रही सभ्यताओं के कोलाहल के बीच
एक लाश पानी पार करना चाहती है
सड़क पार करना चाहती है
मगर कर नहीं पाती

तुम बताओ—
मैं एक मासूम पल का क़त्ल कैसे करता
कैसे कहता—
मैंने कमरों को कारख़ाने बनते देखा है।


शिवदीप की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। वह पंजाबी और हिंदी में कविताएँ लिखते हैं। उनसे 77shivdeep@gmail.com पर संवाद संभव है।

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