कविताएँ ::
आदर्श भूषण

आदर्श भूषण

यह तो नहीं है जीवन

यह तो नहीं है जीवन
जिसे जिया जा रहा है
अनकहे-अनसुने
लापरवाह बेअंदाज़

सुइयों पर रेंगता हुआ
जिसके न होने की कमी नहीं खल रही
जब तक है

जब न हो
समय में तौला हुआ थोक या खुदरा
जीवन किसी अनहोनी की तरह तो नहीं

यही है जीवन क्या
जिसे मैं दर्पणों में नहीं देख पा रहा
पड़ा विदीर्ण हटा-कटा
बँटा परिस्थितियों में
उठते पहर में शोर-सा उठता
गिरते पहर में एक झलक-सा गिरता हुआ

जिसे तुम अपनी छतों से गुज़रता हुआ देख रहे हो गली में
उसी जीवन के चीर का
आधा बनियान आधी पतलून
और उस पर लदी हुई विश्रांतियों का कैल
सिर पर लादे हुए एक शरीर चला जा रहा है मेरा

गिना हुआ सब कुछ जब अनगिन
अनगिन जिस पर एक शून्य का श्राप
शून्य से दूर
लेकिन अधिक नहीं आधिक्य का माप

बदला हुआ दिन
जो सब कुछ नहीं बदल देता
एक सूरज रोज़ आकर कूद जाता है क्षितिज से
एक कालिख रात के ललाट पर पुत जाती है
किसी जलती हुई भ्रांति के दीये की कोर से

सूक्ष्मदर्शी नहीं दिखाता जीवन
औनी पौनी-भागती हुई नसों
और छिलबिलाती कोशिकाओं की जैविक प्रतिस्पर्धा की तरह
न ही जेब में छनकते सिक्के
न ही जवानी के पतरे में पड़ा लोहा
न गज़ों में नपता है
न काग़ज़ों पर छपता है मुहरें ठोककर

भागते हुए आदमी की क़मीज़ पकड़ने पर
आदमी नहीं क़मीज़ का टुकड़ा हाथ में आता है
भागता हुआ वक़्त अपना ज़ामा मुँह में दबाकर
गिरी हुई देहों के बग़ल से जी चुराकर सरसराते हुए
बिना किसी हँफहँफी के निकलता है

आँखों का सब कुछ देखा हुआ
कानों का सब सुना हुआ
सब छुआ
सब भाँपा हुआ
अपने अलग-अलग विस्मय और
रोमांच की अलग-अलग कहानियों से बुना गुँथा
सब का सब
एक दिनअर्थहीन हो जाता है
सच उतना ही कड़वा होता है
जितना उसे जीनेवाला जानता है

जब भी देखा जितना भी देखा
आस से भरा एक प्रत्यर्पित मन देखा
घड़ियों में बँधा जीवन देखा
देखने को सिर्फ़ जगहें होतीं तो
पगडंडियों को पैरों से लपेटता हुआ
हर दूसरी ऐसी प्रत्याशा की देहरी तक
सिर्फ़ यह देखने पहुँच जाता कि
वहाँ कोई ऐसा रहता है क्या
जो अभी भी बँधा सकता है ढाढ़स मेरे टूटते हुए साहस का

सोई हुई दुनिया के लिए सोया हुआ ईश्वर है
ख़र्राटे लेता हुआ ख़र्राटों के बीच
जगे हुए सब लोग तकलीफ़ों के या तो मारे हुए हैं
या फिर फाँक रहे हैं पीड़ का कड़वा मोटा चना
या तमाशबीनों की तरह पीट रहे हैं तालियाँ
लगा रहे हैं ठहाके
रोते हुए विदूषक की करामाती अठखेलियों पर

यह जो अगीत है
दुःख नहीं क्षोभ नहीं चिढ़ नहीं
अचानक आया हुआ जीवन है
जिस पर न कोई नकेल है
न कोई लगाम
एक चौराहे भागते हुए भिड़ गया है
ठोकर खाकर मुँह के बल पड़ा है अचेत

जो बीत रहा है
जो बीत चुका है
जिसे बीत जाना है
उसे किसी भाषा-परिभाषा में बाँध सकते हो क्या
सब धूल है धूल
बाँधोगे—फिसल जाएगी
पेशानी से आस्तीन पर
आस्तीन से ज़मीन पर

जिसे कहते हो जीवन
वह विस्मय से ज़्यादा कुछ नहीं।

खोह

तुम थी इस तरह जैसे
हवा रहती है आस-पास
यक़ीन नहीं करना पड़ता कि
है या नहीं
न होने पर फेफड़ों का बजने लगता है अलार्म
नसें चिल्लाने लगतीं हैं
ख़ून को होने लगती है कमी ऑक्सीजन की
मेरी आत्मा को ढोने वाली इस कौतुक भरी
बैलगाड़ी के बैल सींग मारने लगते हैं
अपने ही गाड़ीवान को

तुम थी इस तरह जैसे
मौसम होता है हर एक महीने के साथ
अपना रंग और दरीचा साथ लेकर आया हुआ
बुलाना नहीं पड़ता उसे
हर बीतते
कम होते हुए मौसम के बाद
थोड़ा-थोड़ा पहले ही आकर बैठा होता है
ताकि ज़्यादा राह न तकनी पड़े
उसे पता है
गर्मी में सूखे हुए को चाहिए
बारिश की एक ताज़ा झकोर
ठंड में ठिठुरते हुए को देखने हैं अभी
हरे पत्ते शीशम पर फिर से आए हुए

तुम थीं इस तरह जैसे
मरीज़ के पास होती है दवा
उसके डॉक्टर से थोड़ी ज़्यादा
जैसे आँखों के पास होता है पानी
नदियों से थोड़ा ज़्यादा
जैसे चूल्हे के पास होती है आग
चिमनियों से थोड़ी ज़्यादा

तुम थीं जैसे घासों के पास
इकट्ठी होती रहती है ओस
जैसे चकोर के पास
इकट्ठा होता रहता है चाँद
जैसे मधुमक्खियों के छत्तों के पास
इकट्ठा होता रहता है शहद

मेरा यह मान पाना ही सबसे दूभर है कि
सब कुछ चला गया है
एक ढहे हुए भीटे की ग़ायब हो चुकी मिट्टी की तरह
जो चाहिए होता है
एक जीवन को जीवन कहने के लिए

मैं यहाँ बहुत पहले ही आ गया था
जिस समय में तुम मुझे देख पा रही हो
सुन पा रही हो
मेरे होने का अंदाज़ लगा पा रही हो
यह मेरा समय नहीं है
मैं अपने बिछड़े हुए समय को ढूँढ़ता
यहाँ चला आया हूँ बस
भौतिकताओं में उलझा हुआ एक शरीर पाकर
मैं बस छटपटा रहा हूँ
तुम्हारे जैसा ही एक हुलिया ओढ़े

तुम्हें आना होगा
इस बिगड़ी हुई घड़ी की सुइयों को ठीक करते हुए
वापस लौटी हुई हवा की तरह
लौटे हुए मौसम की तरह
काम करती हुई दवा की तरह
नमी की तरह
ओस की तरह
चाँदनी की तरह

मेरा शरीर
एक कवि की आत्मा का उजड़ा हुआ बसेरा है
जिसको पूरी प्रकृति चाहिए
अपनी कविता पूरी करने के लिए।

कल्पनाओं के कथेतर में

अभी जो कुछ हुआ नहीं है
वह घट रहा है कल्पनाओं में
जो होते-होते रह गया
जिसे हो जाना चाहिए था
या नहीं होना था इस तरह
जैसे हो चुका है

कल्पनाओं के आसमान में
उड़ानें छोटी नहीं पड़ती
कहीं न कहीं सब छोड़ देते हैं ज़मीन
चाहता है आदम पैरों से आज़ादी
चलकर पहुँचने का धैर्य नहीं फूटता
कल्पनाओं के बीज से

जितनी भी ट्रेनें छूटीं
कल्पनाओं ने उन्हें पकड़ लिया
जितनी जगहों से तोड़ना पड़ा डेरा
कल्पनाएँ लौटती रहीं बार-बार
उन जगहों के चक्कर काटने

जिन्हें नहीं दे पाया प्रेम
कल्पनाओं में लुटाता रहा प्रेम उन पर
जो असमय विलीन हो गए
जीवन की नीरवता में
कल्पनाएँ उनसे पूछती रहीं
यथार्थ के यक्ष प्रश्न

जिनसे कुशल-क्षेम नहीं पूछ पाया
कल्पनाएँ लिखती रहीं उन्हें चिट्ठियाँ
जिन पर उधार रहा कुछ न कुछ
कल्पनाएँ जोड़ती रहीं सिक्के दायित्व के
चुका सकने को ब्याज की रक़म

कल्पनाओं में सदैव अजेय की तरह जिया
एक नायक जो एक ही युद्ध में कई बार मर जाता है
पुनश्च उठता है किसी और युद्ध में और लौट आता है
अपनी युयुत्सु उत्प्रेक्षाओं के पास

कल्पनाओं ने न होने का समय भी देखा
अपने होने और न होने की संभावनाओं को लाँघते हुए
पीछे और आगे की क़तारबद्ध सदियाँ देखीं
संभावनाओं को नहीं जाना पड़ता कहीं
बनी रहतीं हैं जस की तस
समय की सड़क पर
ट्रैफ़िक सिग्नलों की तरह

जो है वह नहीं रहेगा
कल्पनाओं के कथेतर में
जो नहीं है वह उपजता रहेगा
आती हुई नस्लों के साथ
जाती हुई नस्लों के साथ
कल्पनाएँ ढूँढ़ लेंगी अपनी जीविका।

पेट और दिमाग़

एक नई सुबह
जिसकी ओट में
एक पुरानी शाम का सूरज ढल गया है
थकी हुई लौट रही है

नएपन में क्लांति का बिम्ब
आह! यह कैसा अन्याय

युद्धों की रात कभी पूरी नहीं ठहरी
ऊषा को रक्तपात देखने आना पड़ता है

जो दूर क्षितिज पर रक्तवर्णी व्योम
विजय के जयघोष में डूबा है
उसपर पुता ख़ून मेरे पूर्वजों का है
जिसे लेकर वह शाम किनारे चल देता है
धो नहीं पाता सदियों के निशान
वैसे ही लौटता है
सूखे शोणित व्यंजकों से भरा
छिले घुटने लिए

त्यक्त को कैसा न्याय
चाहे वह भोजन हो या शरीर

समय कफ़न बेचनेवाला प्रेत है
जिसकी दुकान में कोई घड़ी नहीं

अभाव के दुर्दिनों में
भूख और मौत कभी भी आ जाते हैं और
कभी-कभी तो साथ भी
युद्ध हमेशा हथियारों से लड़ा जाए
ऐसा सोचना एक तरह का वैचारिक संकुचन है

इस पृथ्वी पर सबसे ज़्यादा युद्ध
पेट और दिमाग़ के बीच हुए हैं।

बाँग

कौन लौटेगा तुम्हारी दुनिया में
यह जानते हुए कि
अब एक टीस के साथ पूरी उम्र बितानी है
उम्र, कितनी लंबी उम्र
कहो तो बिलांग भर की भी नहीं
नापो तो साहिल तक पैर भी नहीं डिगते

जितनी दूर से इस पारावार को देखता हूँ
किनारा उतना छोटा होता जाता है
तैरकर पहुँचने को भी साँसें छोटी होती जाती हैं
साँस, कितनी लंबी साँस भर कर
पूरी उम्र जिया जा सकता है

क़रीबन एक साँस में रेत के भीटे की तरह ढह जाती है
बार-बार ग़ुब्बारे की तरह फेफड़े फुला-फुलाकर
भरते रहना है इसे आसरे से
ताकि आसान लगता रहे जीते हुए मरना
दम धर कर तल्ख़ियाँ पर माथा धुनते हुए
सवालों की भीड़ में एक सवाल की तरह खो जाना

एक सवाल, जिसकी उधेड़बुन में लगी हुई तादाद
सवाल जिसकी चपेट में आ रहे हैं आँकड़े
जम्हूरियत नाच-गा रही है
मौक़ापरस्तों की दुकानों का मुनाफ़ा बढ़ गया है
कालाबाज़ारी का और काला होना
और सरकारी साजो-सामान की सफ़ेदी का बढ़ते चले जाना
देखा-गिना जा सकता है

कौन लौटेगा तुम्हारी दुनिया में
जिसे दुनिया नहीं कह सकते
लापरवाह आवारा भीड़ कहना ठीक होगा
जो अपनी बेहूदगियों से बाज़ नहीं आती
उस दुनिया में लौटने से
क्या लौटा दोगे मुझे?
खो देने को पा लेने से कभी नहीं बदला जा सकता

इतनी व्याकुलता के साथ कोई निर्झर नहीं गिरता होगा
जितनी अकुलाहट से शरीरों को गिरते हुए देखा
आसमान कई बार ढहता है
सीने पर पत्थर रखकर
हर बार सहारा देना पड़ता है उसे वापस उठाने को

एक टूटी हुई भाषा में निकली हुई कराहें
उधार रहेंगी बची-खुची आत्माओं पर
इस दुनिया तक लौटने का रास्ता
मिटता जाएगा मन के मानचित्र से

यह दुनिया अब बस एक धुँधली परछाई है
जिसे मैं नहीं देख सकता
अपनी आँखों में उतरते हुए
तुम्हारी आँखों पर चढ़ते हुए

लाचारगी ही है कि
ताउम्र आँखें मलते रहने पर भी
उजाला नहीं लौटेगा

कौन लौटेगा तुम्हारी दुनिया में
जहाँ का सूरज अंधा हो चुका है।


आदर्श भूषण (जन्म : 1996) हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-अनुवादक हैं। इस प्रस्तुति से पूर्व वह सदानीरा के लिए जेन हर्शफ़ील्ड और हुआन रामोन हिमेनेज़ की कविताओं के अनुवाद कर चुके हैं। उनसे adarsh.bhushan1411@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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