कविताएँ ::
नाज़िश अंसारी

नाज़िश अंसारी

शादी ख़ाना आबादी

तमाम दीनी किताबों से अपने हगने-मूतने तक का तरीक़ा मिलान करने वालों के पास कुंडली नहीं थी फिर भी मिलाया—पहले ख़ानदान फिर बिरादरी में ढूँढ़ा—शुद्ध नस्ल का तंदुरुस्त लड़का!

कोशिश रही कि न हो मसाला, सिगरेट, शराब जैसी कोई लत और हो भी तो चल जाएगा आजकल का चलन है बिटिया को देखना चाहें देख लें वैसे ना-महरम1वह मर्द जिससे स्त्री का परदा वाजिब (अनिवार्य) हो, वो शख़्स जिससे निकाह (विवाह) जायज़ हो, जिसकी तरफ़ देखना धर्मानुसार मना हो। से परदा है हमारे यहाँ…

ग्रह-नक्षत्र… हम नहीं मानते
रख लीजिए चाँद की कोई भी अच्छी तारीख़
शादी सादी ही बेहतर
होटल-वोटल
खाना-वाना
चलन है आजकल का तो करना पड़ता है
वरना फिर बेटी को ही सुनना पड़ता है

मौलवी साहेब एक वकील दो गवाह की
मौजूदगी में सुनाते हैं
आपका निकाह जनाब अलाँ के फ़लाँ साहबज़ादे से
तय पाया जाता है

लड़की छूट रहे प्रेमी के साथ
दिल के लड़खड़ा कर गिरने पर
सीली साँस छोड़ती है
फ़िल्म ‘बाज़ार’ की शबनम की तरह दुल्हनों ने—
‘हाँ’ कहा या आह! भरी
कोई नहीं जानता

बैठक में भारी-भरकम आवाज़ें
धर्म की सर्वश्रेष्ठता पर दे रही हैं बयान
सुभान अल्लाह दीन ने
औरत को कितनी इज़्ज़त बख़्शी
बग़ैर उसकी रज़ा के निकाह मुमकिन ही नहीं
माशाअल्लाह… माशा अल्लाह… की बढ़ती
भनभनाहट से दूर
सुर्ख़ घूँघट हिनाई हाथों में मुँह ढाप कर रो देता है

इस लगभग काल्पनिक घटना को सुन कर
अ-वर्ग लपक कर व्यक्त करेगा संवेदना
ब-वर्ग लगाएगा स्टेटस—
फ़ीलिंग बेइज़्ज़ती विथ अलिफ़ बे एंड थर्टी थ्री अदर्स

मुझे उस स-वर्ग की तलाश है
जो साथ मेरे गवाही दे कि
देश में लोकतंत्र पिछले कुछ वर्षों से मरणासन्न है
वह मध्यवर्गीय फ़ाशिस्ट पिताओं के घर
कभी जन्मा ही नहीं था।

बोसे

जब पढ़ा उसने किसी दिलजले शाइर का शे’र :
कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे

लिल्लाह कहते हुए महबूबा की महीन उँगलियाँ
आशिक़ के होंठों पर ठहरीं
थोड़ा भीग कर लौटीं
वो क्या है न कि
बोसे जो रूह को छू लें
हमेशा माथे पर नहीं होते।

जाओ

खाने के डोंगों को बार-बार गर्म करते हाथ
नंबर लगाने पर स्विच ऑफ़ की सदा सुनते कान
दिल-ए-मुज़्तर2अशांत, व्याकुल हृदय। और रात भर तस्बीह3ख़ुदा का नाम जपने की माला। बुदबुदाते दो होंठ
इंतिज़ार के पानी में डूबते-उतराते
तुम्हारे लौटने के मुंतज़िर और तुम…

उन दो फाँकों में फँसे अबोलों की तशरीह4खोलकर बयान करना, स्पष्टीकरण। के बजाय
बेमुरव्वती के ख़ुदपसंद क़िस्से को उसकी ज़ात से वाबस्ता कर
वाह और मुक़र्रर के हंगामों में ख़ुशबख़्त
सागर-ओ-मीना के खनकते प्यालों से मदमस्त
एक अदना से मिसरे को चमकीले शे’र से
ढकने की जुगत में लगे रहे

तुम्हारी नज़्मों पर दाद देने वाले
कितने भोले हैं वो लोग जो तुम्हें
लुट कर भी मुस्कुराने वाला दिलजला
ज़र्फ-ए-आला आशिक़ समझते हैं
लेकिन नहीं जानते इश्क़ में दीवानी इक लड़की की
बेहिसाब रातों को तुमने
जिस्म पर इत्र की तरह ख़र्चने
और नज़्मों में ढालने के बाद
अब उस पर रब्त के सारे रास्तों को
हराम कर रखा है
फ़ोन-स्क्रीन पर चमकते ‘उस नाम’ को
गुमनाम कह रखा है
तुम्हारे चंद वक़्फ़े की लज़्ज़त और बेसबरेपन को
अस्पताल की नाली में बहा कर
वो लौटी है ज़च्चा-बच्चा डिपार्टमेंट से पीली हो कर

तुम मर्द हो और यह मर्दों की दुनिया शाइर…
बेवफ़ाई के क़िस्से गढ़ो
शाइरी करो
महफ़िल सजाओ
तुम्हें मालूम है सब पैंतरे बलंदी के
जाओ मक़बूल हो!
शोहरत कमाओ!


नाज़िश अंसारी इस दौर की बेहद क़ाबिल और कमाल कवयित्री हैं। उनकी और कविताओं, उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : जब अल्लाह ने बनाए बेटे

1 Comment

  1. जावेद आलम ख़ान नवम्बर 9, 2022 at 6:58 पूर्वाह्न

    नाजिश की कविताएं मुस्लिम स्त्री की वेदना को लयबद्ध स्वर देती है। सभी कविताएं मानीखेज हैं

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