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समृद्धि मनचंदा

समृद्धि मनचंदा

जब युद्ध ख़त्म होगा

जब युद्ध ख़त्म होगा
तब तुम पराजितों को
मुस्कुराते हुए शांति उपहार दोगे
और वे मजबूर होंगे उसे स्वीकारने को
वे अपनी शांति तुम्हारी शर्तों पर चुपचाप जिएँगे

लेकिन जब युद्ध ख़त्म होगा
तब सिर्फ़ हथियार रखे जाएँगे
संशय वहीं खड़ा रहेगा
संदेह से तनी भृकुटी के बीच अडिग

और कई पीढ़ियों बाद तुम्हारे बच्चे सोचेंगे
कि हमारे पड़ोसी क्यों इतने कटे-कटे रहते हैं!
क्यों उनके बच्चों में है
इतनी कड़वाहट और धृष्टता!
क्यों भिंची रहती है उनकी मुट्ठी
और उनके दाँत बजते हैं!
क्यों हमें देख उनके मुँह के किनारे
उठने लगता है झाग!

वे यह नहीं समझ पाएँगे कि
उनके पुरखों ने जिन्हें शांति लौटाई
वे इतने उद्वेलित क्यों हैं?
वे नहीं समझ पाएँगे कि भीख में मिली शांति
बेगार की रोटी की तरह होती है
जो न निगली जाती है न उगली
वह बस रगों में सर्प बनकर रेंगती है

जब युद्ध ख़त्म होगा
तब सिर्फ़ हथियार रखे जाएँगे
लड़ाई तो चलती रहेगी पीढ़ी-दर-पीढ़ी।

युद्धघोष

युद्ध हमें विरोधी ख़ेमों में खदेड़ रहे हैं
और हँसने की तमाम कोशिशें
अब सिर्फ़ अश्लील लगती हैं

विचारों का मतभेद
जब सिर्फ़ हिंसा से मिटाया जाए
तो चुप्पी एक कारगर उपाय है

जब शांति की गुहार को
कमज़ोर की गुहार समझ लिया जाए तो
सभी युद्ध अपने निर्णायक दौर में पहुँच जाते हैं

तब बचने की कोई जगह नहीं रह जाती
और अंतर्मुखी हो जाना ही
एकमात्र विकल्प रह जाता है

युद्ध को हम मिथक की भाँति
नकार नहीं सकते
क्योंकि कोई भी युद्ध
चाहे वह कहीं भी हो
हमसे ज़्यादा दूरी पर नहीं होता

वह हमारे सामूहिक खोखलेपन की ही धमक है
जो शहरों पर बम बनकर गिरती है
और दूध तथा शांति से बने
नवजात बच्चों को लील जाती है।

वीरगति

मैं किसी दुश्मन की गोली से मारा जाऊँ
उससे कहीं बेहतर होगा
कि मैं प्यार में मारा जाऊँ

कभी कोई प्रेम करे और छल जाए मुझे
क्योंकि प्रेम में मिले धोखे
युद्ध के धोखे से कहीं ज़्यादा दुर्लभ होते हैं
वे शरीर को नहीं छूते
बस दे जाते हैं आत्मा को दाग़

मैं किसी ठंडी सरहद पर
पराए लोगों के बीच मरा हुआ मिलूँ
उससे कहीं बेहतर होगा कि
मैं अपनों की उपेक्षा से मारा जाऊँ

मैं जानता हूँ कि बहुत स्वार्थी हो रहा हूँ
क्योंकि प्रेम का दर्द सिर्फ़ मेरे हिस्से आएगा
पर युद्ध की त्रासदी सबकी साझी होगी

इसलिए मैं चाहता हूँ—
मैं अपने बिस्तर पर
तुम्हें याद करते-करते हो जाऊँ शहीद
क्योंकि वह शहादत
कुछ काल्पनिक लकीरों की रक्षा के नाम नहीं
एक निर्मल-निश्छल प्रेम के नाम होगी

मैं चाहता हूँ—
चुपचाप कायरों की भाँति
हर रोज़ प्रेम में मरता रहूँ
न कि वीरों की भाँति
एक दिन भव्य मृत्यु पाऊँ

सच! मैं किसी दुश्मन से लड़ते हुए मारा जाऊँ
उससे कहीं बेहतर होगा कि मैं निहत्था
एक दोस्त के हाथों मारा जाऊँ।

बिगुल

युद्ध के समय में
बहुत सस्ती हो जाती है
दया और शांति

युद्ध के समय में
बहुत महँगी होती है
भूख और नींद

युद्ध के समय में
मैं ‘मैं’ नहीं रहता
और तुम… ‘तुम’ में नहीं मिलते

युद्ध के बिगुल के साथ ही
‘हम’ शब्दकोश का सबसे बदरंग
शब्द हो जाता है!

तीसरे विश्व युद्ध की प्रतीक्षा में

प्रत्येक युद्ध के बाद
यह निर्णय हुआ कि
अब नहीं होना चाहिए युद्ध

कुछ दिनों के लिए
सदियों से जागती
अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, यूक्रेन की जनता को
दो घड़ी सोने दिया जाए

ताकि उनके बच्चे स्कूलों को लौट सकें
बारूद के धमाकों के पार
अप्रासंगिक पाठ्यक्रमों में

युवा लौट सकें बेफ़िक्र काम पर
गोली के छर्रों से बचकर
धीमी कैपिटलिस्ट मृत्यु की ओर

स्त्रियाँ लौट सकें घरों को
युद्ध की हताशा से छूट
पितृसत्ता की सुरक्षित ज़ंजीरों में

पर हर बार ही
जीवित होने की त्रासदी में
युद्ध आ मिला एक निलंबित पूर्णविराम-सा
पहले, दूसरे और बहुतेरे युद्ध
कभी ख़त्म ही नहीं हुए
बस भ्रम हुआ कि
जीत गया कोई,
दुश्मन पराजित हुआ,
हथियार नष्ट किए गए,
बचा ली गई आज़ादी,
बहाल हुई शांति…
पर लड़ने वाला लड़ता ही रहा
क्योंकि युद्ध ख़त्म करने के लिए तो
आज तक कोई युद्ध हुआ ही नहीं
हर युद्ध हुआ अगले युद्ध की प्रतीक्षा में।


समृद्धि मनचंदा की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह तीसरा अवसर है। इस बार उनके स्वर में आए बदलाव को सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है। यह बदलाव भाषा, विषय और विचार तीनों ही स्तर पर बेहद सशक्त है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : तुम पिंजरे की नहीं जंगलों की हो

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