शुकरु एरबाश की कविताएँ ::
तुर्की से अनुवाद : निशांत कौशिक
सीटीदार कमरों में
ताकि तन्हा न रह जाओ तुम
तुम्हारी क़ब्र से भी भागता हूँ
वापिस घर की ओर
सीटीदार कमरों में
मैं बात करता हूँ,
बात करता हूँ,
बात करता हूँ
मैं दूर से आया,
होंठों पर सुबह की ओस लिए
बचपना मत करो,
कहकर भींचती हो अपने होंठ
फिर मैं अपनी आँखें ऊपर उठाता हूँ,
खिड़की नहीं है वहाँ
बच्चों की मौतों की तरह
पलकों पर बरौनियों की क़तार है
इंसान दुःख से शर्मिंदा हो जाता है क्या?
बह चुके आँसुओं से हुई मेरी ज़हर-ख़ुरानी
बहुत देर हो चुकी है,
कहा था तुमने एक दफ़ा
मौत के गर्भ में
ये बच्चे कैसे जिएँगे इस मुल्क में
अंताक्या के नज़दीक एक गाँव में
प्यार में डूबे हुए हमारे दिल
इतनी नेमतों से घिरे हुए
कौन सोचता है इस वक़्त मृत्यु के बारे में?
चलो चलें साहिल की तरफ़
नील, डर को हमारे कुछ सुला देगा
दो लोगों की तन्हाई हूँ मैं,
इस तस्वीर के सामने
एक जिसको तुम लेकर जा चुकी हो,
एक जिसे छोड़ गई हो यहाँ
तीन नुक़्ते
बड़बोले लोग
वे जिनके माथे पर सिलवटें नहीं होती
सिर्फ़ वे जो ऊँचाई से रब्त रखते हैं
सबसे होकर गुज़रते हैं
रौशनदार
संयमित आवाज़ वाले
वे जो पतझड़ का तिरस्कार करते हैं
वे जो आँसुओं को पीठ दिखाते हैं
जो जानते हैं ख़ुशी
चुप्पी से भयभीत हो जाने वाले
मुस्कुराने वाले केवल वस्तुओं पर
जिनकी कहानी में कोई अन्य नहीं है
जो दुःख से दूषित हैं
जिनके आईनों पर भाप नहीं हैं
जिनके रास्ते जाड़ों तक नहीं गए
हृदयों पर जिनके मृत्यु की मुहर है
वे जिनकी खिड़कियाँ बाहर की ओर नहीं खुलती
वे जो इश्क़ से शर्मिंदा हैं
सौंदर्यबोध से रिक्त
जिनकी भाषा हिंसक है
जिनकी ज़बान से पहले शरीर पेश आता है
वे जिनसे दुनिया अछूती है
वे जो भूल जाते हैं,
वे जो भूल जाते हैं
ओह! यह इकहरफ़ी तंगी
यही है मेरा मौसम,
सबसे मिलकर बना हुआ
मैं एक वाक्य हूँ अब,
तीन नुक़्तों में ख़त्म होता हुआ
हमारे बाग़ में अनार का दरख़्त नहीं था
वहाँ एक भूतिया मिल थी
गेहूँ की नाज़ुक बालियाँ, दुआ, इंतिज़ार
हवा से अछूती रही आईं पानी की उँगलियाँ
पसीनामय आकाश, ऊब, कठिन समय
अपने ही भीतर ग़ुर्राता इंसान
अपनी तरबियत से अनजान बच्चे
गर्मीले बाग़ वाली स्कर्ट पहनी एक औरत
वहाँ थी दयनीय ग़रीबी
सुरमयी रातें, धुँधली सुबहें
सूरज संग खिलती थकन
चाँदनी में घुलते शब्द
मैदान जहाँ घोड़ों और कुत्तों में गुफ़्तगू होती थी
सितारे निकलने से पहले न दिखने वाला आसमान
ताँबे की देग़ों में गलते घर
वहाँ परिकथाओं का उत्साह था
दूरियों में डूबा एक छोटा रेडियो
अंगूरों से भरी ठेलागाड़ी, सेव वाले गुनाह, नम-स्वप्न
क़ब्रों पर पी जाने वाली एक ला-तमाम सिगरेट
ज़र्दरंगी परों वाली पड़ोसी खिड़कियाँ
काकुलों से अपनी माँओं को ढाँपी लड़कियाँ
दूर के रिश्तेदारों का लाया हुआ अकेलापन
मेरी जान, मेरी गुलगर्दनी चिड़िया*, मेरी बुलबुल
दो आसमानों जैसी तुम्हारी आँखें
हमारे प्रणयबद्ध समय में
तुमने पूछा था मेरे रोने का सबब
हमारे बाग़ में अनार का दरख़्त नहीं था
तुम्हारा मुँह नहीं था जब उधड़ी थीं हमारी देह
ख़्वाहिशें जो उठी थीं हमारी भौंहों से,
ख़त्म हुई थीं पलकों की बरौनियों पर हमारी
नहीं रो रहा था मैं
मैं अपने अतीत को प्यार कर रहा था
मैं तुम्हारे भविष्य को प्यार कर रहा था
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* गुलगर्दनी चिड़िया : मूल तुर्की में यह शब्द çemberciğim है, जिसका अर्थ है ‘मेरा घेरा’। लेकिन इससे देसी अर्थ में मुराद एक चिड़िया से भी है, जिसकी गर्दन पर लाल फेरा होता है, जिसे गोल्डनफिंच भी कहा जाता है। यह चिड़िया भारतीय नहीं है, इसीलिए ‘गुल जैसी गर्दन वाली चिड़िया’ ज़्यादा उपयुक्त संज्ञा लगी। इसी तरह बुलबुल भी ‘अरब बुलबुल’ कही गई है मूल कविता में, अनुवादक की नज़र से यह विभाजन बहुत फ़र्क़ पैदा नहीं करता; अतः हिंदी अनुवाद में ‘बुलबुल’ ही रखा गया है।
शुकरु एरबाश (जन्म : 1953) एक समादृत तुर्की कवि-लेखक है। वह परिकथाओं, उदास स्मृतियों, उपेक्षित प्रतीकों और साधारण दिखने वाले संसार की असाधारणता कहने वाले कवि हैं। उनका लेखन संसार विस्तृत है, जहाँ 1978 में उनकी पहली कविता ‘वारलिक’ पत्रिका में छपी और आज तक उनके 20 से भी अधिक कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस समय वह अंताल्या में रह रहे हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ siirparki.com और antoloji.com से ली गई हैं। निशांत कौशिक से परिचय के लिए यहाँ देखें : मैं ज़ख़्मों के बिना नहीं मरना चाहता