नवकांत बरुआ की कविता ::
असमिया से अनुवाद : सुलोचना वर्मा

नवकांत बरुआ

यहाँ नदी थी

क्या आपने देखा है :
नदी के सैलाब को बलात्कार करते खेतों से
(देखा है) गाद से बनी क़ब्र में
गर्भवती शस्य की संतान
क्या आपने सुना है :
सिंधु की बाढ़ निमिष में नगर को आत्मसात कर
छोड़ गई थी श्मशान का प्रशांति गीत

उदग्र ध्वंस का नशा,
लोभ का कुटिल दुःसाहस,
छल का जीवंत मज़ाक़
और पाप का कुत्सित अभिसार—
उसके सौंदर्य ने भी मुझे दिया था
स्वप्न का जाल रचकर
क्योंकि मैं देता हूँ दुःस्वप्न को भी स्वप्न की मर्यादा
वह भी था बंदी सूर्यकण
निकला था तोड़-फाड़कर
पृथ्वी का कठिन जरायु

लेकिन मरुभूमि आती है
धीरे-धीरे
माह-दर-माह
साल-दर-साल
पीपल के कोटर में
एक गुच्छ कोपोऊ फूल समय-पूर्व झड़ता है
किसी गुप्त रोग की तरह (मरुभूमि)
धीरे-धीरे मिटा देती है
प्राण के सारे हरे-सुनहरे रंग
आँकती है ताँबई रंग का आकाश
और राख के वर्ण की पृथ्वी!

नदियों को बदल सोत में
पथरीली जमीन में
बालुका स्तूपों से गढ़ते हैं—
पेड़ों-लताओं और फूलों की समाधि
कभी दिखता कभी ओझल व्याध पतंग उड़ता है
इस ढूह से उस ढूह
पानी की तलाश में
कहीं रास्ता भटक जाता है
मरुभूमि आती है इसी तरह
धीरे-धीरे
माह-दर-माह
साल-दर-साल…
दूर के उस नीलवर्ण गाँव में
इस बार अगहन जल्दी आ गया—
आश्विन में ही?
इस बार वैशाख की पहली बरसात नहीं होगी क्या?
उजान की सफ़ेद मछलियाँ
सोतों को नहीं बनाएँगी रूपाली?

आषाढ़ के काले मेघ पहाड़ के उस पार रह गए
पहाड़ इतना ऊँचा है
मेघ से भी ऊँचा?
प्रेम से भी ऊँचा?
बारिश से?
धान के खेतों में नहीं उगा ज्वार-बाजरा
हमारे वन में खजूर पर नए फल नहीं लगे

केवल फूलेगी नागफनी—
मध्यरात्रि तारों के आलोक में
रेत अपने साँपों को छोड़ेगी
दूब को जकड़ लेंगी कँटीली झाड़ियाँ!
रात की हवा छींट जाएगी सूखी बर्फ़
दिन का प्रकाश उसमें उड़ेल देगा
नारंगी रंग का पिघला लोहा
उसके बाद
ऊँट की गर्दन की छाया
लंबी गर्दन की छाया
सोई रहेगी हाड़ बनकर समुद्र के लिए

इस तरह ख़त्म होना…
यह जो रोमांच है मौत का
है यह प्रौढ़ रमणी का रमण-विलास
—अनभिज्ञ—
किशोर के साथ
ग्लानि की अतृप्ति नहीं है
न ही तृप्ति की अशांति
ध्वंस का सौंदर्य नहीं है
केवल क्षय की आविलता
अनायास ग्रहण केवल क्लीवता
रेत की आँधी कहीं पहाड़ों पर भास्कर्य गढ़ती है?
गढ़ती है तो विभीषिका

उसमें जो रोमांच है
अगर है,
हे जीवन,
नहीं चाहिए मुझे आश्रय वहाँ,
थक गया हूँ मैं गढ़-गढ़कर नूतन विग्रह।


नवकांत बरुआ (1926-2002) अत्यंत समादृत असमिया उपन्यासकार-कवि हैं। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के एंथ्रोपोसीन अंक में पूर्व-प्रकाशित। सुलोचना वर्मा से परिचय के लिए यहाँ देखें : हम आजकल सहन नहीं कर पाते दूसरों का मत, क्षमा कीजिए हज़रत

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