आलेहांद्रा पिज़ारनीक की कविताएँ ::
अनुवाद : रिया रागिनी और प्रत्यूष पुष्कर

आलेहांद्रा पिज़ारनीक

मिथ्या के विरुद्ध दिन

झुकते धरातलों संग लुढ़कते
निशाने नहीं चाहते
नहीं चाहते ऐसी आवाज़
जो हवा के
मेहराब और खुरदुरे को चुरा लें
नहीं जीना चाहते अनगिनत साँसों के लिए
आसमान के साथ ओछे धर्मयुद्ध
मौजूद पत्तियों पर बिना मोम चढ़ाए
अपनी पंक्तियों को बदलना नहीं चाहते
चुम्बकों पर रोक नहीं चाहते
अंत में आकर जूतों के रेशें खुलने लग जाते हैं
कपोल कल्पनाओं को छूना भी नहीं चाहते
अपने सुनहरे बलूत बालों के
आख़िरी रेशे तक पहुँचने के लिए
खुले पटों को जीतना नहीं चाहते
अपने पत्ते स्थान पर लगाते हुए पेड़
नहीं चाहते आकर्षित करना बिना कोलाहल के
वे अस्थावर शब्द।

मैं हूँ…

मेरे पंख?
दो सड़ती पंखुड़ियाँ
मेरे कारण?
खारे वाइन के चस्के
मेरी ज़िंदगी?
कुर्सी में एक दरकन
मेरे मूड?
एक बच्चे का घंटा
मेरा चेहरा?
एक शून्य का छद्म
मेरी आँखें?
आह, अनंत के टुकड़े!

ढूँढ़ना

क्रिया नहीं, बल्कि गोल-गोल चक्कर। किसी कार्य का द्योतक नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि जाकर किसी से मिलना हो बल्कि वहीं पड़े रहना हो क्योंकि कोई आता नहीं।

शब्द जो घाव भरते हैं

भाषा से एक पूरी दुनिया उजागर करने की प्रतीक्षा में, कोई गा रहा है उस जगह के लिए जहाँ मौन का संभवन होता है।

बाद में यह दिखाया जाएगा कि अपना क्रोध अभिव्यक्त कर लेने से यह समुद्र—या यह दुनिया—अस्तित्व पा नहीं लेते। ठीक वैसे ही जैसे हर शब्द केवल वही कहता है जो वो कहता है—और उसके आगे, कुछ ज़्यादा या कुछ और।

विरुद्ध हूँ

संभव है कि किसी दिन हम सच्चे यथार्थ में शरण पा लें,
लेकिन तब तक क्या मैं यह कह सकती हूँ कि मैं इस सबके कितने विरुद्ध हूँ।

अनदेखी चीज़ों के लिए

इससे पहले कि शब्द समाप्त हो जाए,
ह्रदय में कुछ ज़रूर मर ही जाएगा।

भाषा की रौशनी मुझे संगीत की तरह ढाँप लेती है,
संताप के कुत्तों के फाड़े-चीरे तस्वीर की तरह।

और सर्दियाँ मुझ तक ऐसे पहुँचती है
जैसे कोई एक औरत जो किसी दीवार के संग प्रेम में पड़ी हो।

जैसे ही मैंने उम्मीद की कि मैं उम्मीद करना छोड़ दूँगी,
तुम मेरे भीतर पड़ गए।

अब मैं अपने भीतर
केवल इतनी-सी हूँ।

किसी चीज़ के लिए इशारे

सुन्न समय,
ड्रम पर पड़े किसी दस्ताने-सा।

मेरे भीतर वे जो होड़ में लगे तीन
एक स्थानांतर के बिंदु पर ठहर जाते हैं
और हम न होते हैं न हैं।

मेरी आँखें पहले अपमानित और परित्यक्त
चीज़ों में ढूँढ़ लेती थी अपना विश्राम।
आजकल मैं उन चीज़ों के संग देखती हूँ,
मैने देखा है और मुझे कुछ भी स्वीकार्य नहीं।

एक दूरस्थ पतझड़

इस नाम का क्या नाम है?

एक रंग जैसे एक कफ़न,
एक पारदर्शिता जिसके आर-पार भी तुम कभी न जा सकोगे।

और कैसे संभव है कि इतना कुछ नहीं जाना जा सके।

प्रभात

नग्न और एक सौर रात्रि के स्वप्नाभिलाषी
अपने पाश्विक दिनों में मैं पड़ी रही हूँ।

हवा ने और बारिश ने मुझे वैसे ही मिटाया है
जैसे वह मिटाती है कोई आग,
या दीवार पर लिखी कोई कविता।

ख़ुद से भागने के लिए एक जगह

अंतराल। एक लंबी प्रतीक्षा।

कोई नहीं आता। यह परछाई।

उसे वही दो जो सभी देते है :

अर्थ जो गंभीर है,
बिना आश्चर्य से भरे हुए।

रिक्त। उद्दीप्त मौन।

वह क्या है जो परछाइयाँ एक दूसरे को देती हैं?

स्मृति-लोप

हालाँकि यह आवाज़ (इसका विस्मरण मेरे छिन्न-भिन्न व्यक्तितवों को उठाकर फ़ेंकता हुआ)
एक बर्फ़ जमे बागान पर अध्यासीन है

मैं अपनी सभी ज़िंदगियाँ संग कर
फिर याद करती हूँ
मेरे भूलने के सभी कारण।

उपस्थिति

तुम्हारी आवाज़
मेरी नज़र से छूट सकने की
इस असमर्थता में
चीज़ें मुझसे छुटकारा पा लेती हैं

अगर यह तुम्हारी आवाज़ नहीं है तो
मुझे एक पत्थरों की नदी पर की
नाव में तब्दील कर दो
एक विलग पड़ी बारिश मेरे इस उद्विग्न मौन में
तुम मेरी नज़रों को विनम्र करते हो
और मैं कहती हूँ
तुमसे कि
तुम हमेशा मुझसे बात करो।


आलेहांद्रा पिज़ारनीक (1936-1972) अर्जेंटीना की क्वियर कवयित्री हैं। वह लैटिन अमेरिकी साहित्य में अपने आत्मनिरीक्षणात्मक लेखन के लिए जानी जाती हैं। भाषा की सीमितता, मौन, देह, रात्रि, आत्मीयता और अंतरंगता की प्रकृति, त्रास, आत्महत्या और मृत्यु जैसे विषयों के आस-पास उन्होंने ज़्यादातर कविताएँ रची हैं। उनकी लेखनी को पॉल वेरलेन और आर्तच्युर रैम्बो के समानांतर रखते हुए कई आलोचकों ने इस समूह को अभिशप्त कवियों की संज्ञा भी दी। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ मूल स्पैनिश से यिवेत सीगर्त कृत अँग्रेज़ी अनुवाद पर आधृत हैं। ‘सदानीरा’ की इस विशेष प्रस्तुति के साथ हम आज #PrideMonth का समापन करते हैं। अनुवादकों से परिचय के लिए यहाँ देखें : क्वियर—एक क्रिया की तरह

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