नोबेल-व्याख्यान ::
विस्वावा शिम्बोर्स्का
अनुवाद : उदय शंकर

विस्वावा शिम्बोर्स्का (1923-2012)

किसी भी भाषण में पहला वाक्य हमेशा सबसे कठिन होता है, ऐसा लोग कहते हैं। ख़ैर, वह मेरे पीछे है, वैसे भी। लेकिन मुझे लगता है कि आने वाले वाक्य—तीसरे, छठवें, दसवें और इसी तरह, अंतिम पंक्ति तक—उतने ही कठिन होंगे, क्योंकि मुझे कविता के बारे में बात करनी है। मैंने इस विषय पर बहुत कम कहा है, वास्तव में न के बराबर। और मैंने जब भी कुछ कहा है, मुझे हमेशा यह संदेह रहा है कि मैं इसमें बहुत अच्छी नहीं हूँ। इसलिए मेरा व्याख्यान छोटा होगा। छोटी ख़ुराक में परोसी जाने वाली सभी त्रुटियों को सहन करना आसान होता है।

समकालीन कवि संशयी और यहाँ तक कि शंकालु होते हैं, या शायद विशेष रूप से अपने बारे में। वे सार्वजनिक रूप से केवल अनिच्छा से कवि होने की बात स्वीकार करते हैं, जैसे इससे उन्हें थोड़ी शर्म आ रही हो। लेकिन हमारे इस कोलाहलमय समय में अपने गुनाहों को स्वीकार करना बहुत आसान है, कम से कम अगर वे आकर्षक रूप से पैक किए गए हैं। अपनी ख़ुद की ख़ूबियों को पहचानना मुश्किल है, क्योंकि वे बहुत गहरे छिपी हुई हैं और आप ख़ुद उन पर कभी भी विश्वास नहीं करते हैं… प्रश्नावली भरते समय या अजनबी से बात करते समय जब वे अपने पेशे को प्रकट करने से बच नहीं सकते, तब कवि सामान्य शब्द ‘लेखक’ का उपयोग करना पसंद करते हैं, या ‘कवि’ को लेखन के अलावा जो भी काम करते हैं, उसके नाम से बदलना पसंद करते हैं। नौकरशाहों और बस-यात्रियों को जब पता चलता है कि वे एक कवि के साथ बात कर रहे हैं, तो वे अविश्वसनीयता और चौकन्नेपन के साथ प्रतिमुख होते हैं। मुझे लगता है कि दार्शनिक भी इसी तरह का व्यवहार कर सकते हैं। फिर भी, वे एक बेहतर स्थिति में हैं, जब तक कि सामान्यतः वे अपनी पहचान को किसी प्रकार की विद्वत-उपाधि से अलंकृत कर सकते हैं। दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर—अब यह कहीं अधिक सम्मानित पद लगता है।

कवि मात्र होना कविता प्रोफ़ेसर होना नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि काव्य-कर्म एक ऐसा पेशा है, जिसके लिए विषय-विशेष के अध्ययन, नियमित परीक्षाओं में उपस्थिति, ग्रंथ-सूची, संदर्भ-ग्रंथ, पाद-टिप्पणियों से समृद्ध सैद्धांतिक शोध-प्रबंध के प्रकाशन और अंत में औपचारिक रूप से प्राप्त डिप्लोमा की आवश्यकता होती है। तो ठीक उलट इसका मतलब होगा कि अपनी उत्कृष्ट कविताओं के पृष्ठों को जिल्दबंद करना कवि होने मात्र के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें सबसे निर्णायक तत्त्व आधिकारिक मुहर से रँगी पर्चियाँ होंगी। आइए याद करते हैं, भविष्य के नोबेल पुरस्कार-विजेता और रूसी कविताओं के गौरव योसेफ़ ब्रोदस्की को, जिसे ठीक इसी आधार पर आंतरिक निर्वासन झेलना पड़ा। उसे परजीवी (पैरासाइट) कहा गया, क्योंकि कवि होने की आधिकारिक वैधता के लिए उसके पास औपचारिक प्रमाणपत्र नहीं थे।

कई साल पहले, ब्रोदस्की से व्यक्तिगत रूप से मिलकर मैंने ख़ुद को सम्मानित और ख़ुश महसूस किया था। और मैंने देखा कि जिन भी कवियों को मैं जानती हूँ, उनमें सिर्फ़ वही थे जिन्हें खुद को कवि कहने में आनंद आता था। उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के, यहाँ तक कि एक बेपरवाह-आज़ादख़याली से, इस शब्द का उच्चारण किया था। शायद ऐसा इसलिए हुआ होगा जैसा कि मुझे लगता है कि युवावस्था में अपने साथ हुए क्रूर अपमानों का उन्हें स्मरण हो आया होगा।

ख़ुशहाल देशों में जहाँ मानवीय गरिमा का इतनी आसानी से उल्लंघन नहीं होता, वहाँ कवि का ख़ुद को प्रकाशित करना, लोग उन्हें पढ़े और समझे, ऐसी सदिच्छाओं का होना स्वाभाविक है। लेकिन दैनंदिन जीवन में वे ऐसा कुछ भी अधिक और कम नहीं करते कि वे लोगों के बीच अलग से दिखें! ज़्यादा दिन की बात नहीं है, इसी सदी पहले दशक की, कवियों ने अपनी असाधारण पोशाकों और सनकी व्यवहार से हमें चौंका दिया था। लेकिन यह सब ऊपरी तामझाम मात्र के लिए था। वह क्षण हमेशा आता था, जब कवियों को अपने चोर दरवाज़े बंद करने पड़ते थे, उन सभी लबादों, भड़कीले आवरणों और काव्यात्मक आडंबरों को उतारना पड़ता था : और धैर्यपूर्वक, शांत, अपने निज-स्व के काग़ज़ के सफ़ेद पृष्ठों पर उतरने का इंतिज़ार करना पड़ता था। क्योंकि अंत में यही मायने रखता है।

यह कोई संयोग नहीं है कि महान वैज्ञानिकों और कलाकारों की जीवनी-आधृत फ़िल्में बड़ी संख्या में बनाई जाती हैं। महत्त्वाकांक्षी निर्देशक उस रचना-प्रक्रिया को यक़ीनी तौर पर पुन: पेश करने की कोशिश करते हैं, जिससे महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज या एक उत्कृष्ट कृति संभव हुई। एक हद तक की सफलता के साथ ख़ास तरह के वैज्ञानिक-श्रम को परदे पर उतारा जा सकता है। प्रयोगशालाएँ, विविध उपकरणों और उनके यंत्र-तंत्र की गतियों के सहारे कुछ समय तक दर्शकों को टिकाए रखा जा सकता है। और, अनिश्चितता के वे क्षण—जहाँ कुछ मामूली संशोधनों के साथ एक ही प्रयोग अपने हज़ारहवें संस्करण में भी क्या वांछित परिणाम देगा?—काफ़ी नाटकीय हो सकते हैं। चित्रकारों के बारे में भव्य फ़िल्में बन सकती हैं, क्योंकि वे एक प्रसिद्ध पेंटिंग की निर्माण-प्रक्रिया के हर चरण को फिर से निर्मित करने के बारे में होती हैं; पेंसिल से खींची गई पहली रेखा से लेकर कूची के अंतिम स्पर्श तक। संगीतकारों से संबंधित फ़िल्मों में संगीत महातरंगित होता है, राग की पहली धुन जो संगीतकार के कानों में बजती है और अंत में सिम्फ़ोनिक रूप में एक पूरे परिपक्व-चक्र को उभारती है। बेशक यह सब काफ़ी सपाट है और उस अजीब मानसिक स्थिति की व्याख्या नहीं करता है, जिसे लोग प्रेरणा-रूप में ग्रहण करते हैं; फिर भी देखने-सुनने के लिए कुछ तो है।

इस मायने में कवि सबसे बुरे हैं। उनका काम निराशाजनक रूप से तस्वीरानुकूल (फ़ोटोजेनिक) नहीं है। कवि-चरित्र मेज़ पर बैठता है, सोफ़े पर लेट जाता है, कभी दीवार तो कभी छत को एकटक देखता। कभी-कभी वह सात पंक्तियाँ लिखता और पंद्रह मिनट बाद एक पंक्ति को काट देता है। इस तरह एक और घंटा बिना कुछ घटे गुज़र जाता है। इस तरह की सामग्री देखने की ज़हमत कौन उठाएगा?

मैंने अभी प्रेरणा का उल्लेख किया। यह पूछे जाने पर कि यह क्या है, और क्या यह वास्तव में है, समकालीन कवि टाल-मटोल करते हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि वे आंतरिक आवेग के आशीर्वाद (हाज़िरजवाबी) की समृद्धि से वंचित हैं। इसका कारण कुछ और है। किसी और को कुछ ऐसा समझाना आसान नहीं है, जिसे आप ख़ुद नहीं समझते हैं।

समय-समय पर पूछे जाने वाले इस प्रश्न से मैं भी दूरी बनाती हूँ। फिर भी, मेरा जवाब यह होता है : प्रेरणा कवियों या सामान्यतः कलाकारों का विशेषाधिकार नहीं है। वैसे लोगों की एक जमात हमेशा थी, है, और रहेगी जिनसे प्रेरणा मिलती है। यह जमात उन सभी लोगों से बनी है जिन्होंने होशोहवास में अपने पेशे को चुना है, तथा जो प्रेम और सूझ-बूझ से अपना काम करते हैं। इसमें डॉक्टर, शिक्षक, माली हो सकते हैं—इसी तरह सौ और व्यवसायों की सूची मैं बना सकती हूँ। जब तक वे इसमें नई चुनौतियों की खोज करने में सक्षम होते हैं, उनका काम निरंतर एक साहसिक कार्य बनता जाता है। कठिनाइयाँ और बाधाएँ उनकी जिज्ञासा को कभी परास्त नहीं करतीं। उनके द्वारा निष्पादित हर समस्या से नए सवालों का एक झुंड उभरता है। प्रेरणा जो कुछ भी है, वह ‘मैं नहीं जानता’ के नैरंतर्य से उत्पन्न है।

ऐसे लोग बहुत नहीं हैं। इस भूमि के अधिकांश वासी जीविकोपार्जन के लिए काम करते हैं, वे काम करते हैं; क्योंकि करना पड़ता है। उन्होंने इस या उस तरह की नौकरी को जुनून से नहीं चुना; उनके जीवन की परिस्थितियों ने उनके लिए चुनाव किया। अप्रिय काम, उबाऊ काम, काम का मूल्य केवल इसलिए है; क्योंकि दूसरों को इतना भी नहीं मिला है, चाहे कितना भी प्यारा और उबाऊ हो—यह सबसे कठोर मानवीय दुखों में से एक है।

जिस काम को नापसंद किया जाता है, जो काम उबाऊ होता है, उसका मूल्य सिर्फ़ इसलिए होता है; क्योंकि वह भी हर किसी के लिए उपलब्ध नहीं होता है, फिर भी वह सबसे निष्ठुर मानवीय दुखों में से एक है। और इस बात का कोई संकेत नहीं है कि आने वाली सदियाँ इस इलाक़े में कोई सुखद बदलाव लाने वाली हैं।

इसीलिए मैं यहाँ यह कहने की स्थिति में हूँ—हालाँकि मैं कवियों को प्रेरणा पर उनके एकाधिकार से वंचित करती हूँ—कि मैं कवियों को चुनिंदा भाग्यशाली लोगों की सूची में प्रियतम दर्जे पर रखती हूँ।

यहाँ पहुँचकर हमारे श्रोताओं में कुछ संदेह उत्पन्न हो सकते हैं। सत्ता के लिए संघर्ष करने वाले तमाम तरह के आततायी, तानाशाह, कट्टरपंथी, और ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाने वाले कुछ जनवादी भी अपने काम का लुत्फ़ उठाते हैं, और वे भी चतुर-सुजान वाले जोशो-ख़रोश के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। हाँ, हाँ, वे ‘जानते हैं’। वे जानते हैं, और वे जो कुछ भी जानते हैं; उनके लिए वह हमेशा के लिए पर्याप्त है। वे किसी और चीज़ के बारे में पता नहीं लगाना चाहते, क्योंकि इससे उनके तर्कों की ताक़त कम हो सकती है। कोई भी ज्ञान जो नए प्रश्नों की खोज नहीं करता है, जल्द ही समाप्त हो जाता है : यह जीवनानुकूल तापमान बनाए रखने में विफल हो जाता है। सबसे चरम मामलों में, जैसा कि प्राचीन और आधुनिक इतिहास बताता है, यह समाज के लिए घातक भी हो सकता है।

यही कारण है कि उस छोटे से वाक्यांश ‘मैं नहीं जानता’ को मैं बहुत महत्त्व देती हूँ। यह छोटा है, लेकिन शक्तिशाली पंखों पर उड़ता है। यह पद हमारे जीवन को उन क्षेत्रों तक विस्तारित करता है, जिनमें से एक हमारे भीतर स्थित है और दूसरा बाहर, जहाँ हमारी छोटी पृथ्वी टँगी है। अगर आइज़क न्यूटन ने ख़ुद से नहीं कहा होता कि ‘मैं नहीं जानता’, उसके छोटे से बग़ीचे में उसकी आँखों के सामने सेब ओलों की तरह गिर सकते थे, और सबसे अच्छा होता कि वह उसे उठाने के लिए झपटते और फिर चाव से उन्हें भकोस सकते थे। अगर मेरी हमवतन मारिया स्कोवोदोव्स्का-क्यूरी ने ख़ुद से ‘मुझे नहीं पता’ नहीं कहा होता, तो शायद अच्छे घरों की युवतियों के लिए बने किसी निजी उच्च विद्यालय में रसायन-शास्त्र की एक वेतनभोगी शिक्षिका बन जाती, और उसका जीवन इस अन्यथा नेक काम में तमाम हो जाता। लेकिन वह कहती रही, ‘मुझे नहीं पता’, और इसने एक बार नहीं दो बार स्टॉकहोम का रास्ता प्रशस्त करवाया; जहाँ बेचैन खोजी आत्माओं को कभी-कभी नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा जाता है।

कवि को भी, यदि वह जेन्युइन है, यह दुहराते रहना चाहिए कि ‘मैं नहीं जानता’। वह अपनी हर कविता में इसका जवाब देने की कोशिश करता है, लेकिन जैसे ही विराम-चिह्न के नजदीक पहुँचता है, वह झिझकता है, और उसे एहसास होना शुरू हो जाता है कि यह एक चलताऊ और एकदम से अपर्याप्त उत्तर है। इसलिए कवि प्रयास करता रहता है, और देर-सबेर उसके आत्म-असंतोष के तर्कसंगत परिणामों को साहित्य के इतिहासकारों द्वारा एक विशाल पेपरक्लिप में दबा दिया जाता है, और इसे उसका “ओउवर” (काम) कहा जाता है…

मैं कभी-कभी ऐसी स्थितियों के सपने देखती हूँ जो संभवतः सच नहीं हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, मैं साहसपूर्वक कल्पना करती हूँ कि मुझे एक्लिजियास्टिस् (Ecclesiastes) के साथ बातचीत करने का मौक़ा मिलता है, जो सभी मानवीय प्रयासों की व्यर्थता पर चलते-फिरते विलाप के लेखक हैं। मैं उनके सामने बहुत श्रद्धा से झुकूँगी, क्योंकि आख़िरकार, वह सबसे महान कवियों में से एक हैं; कम से कम मेरे लिए। यह करते ही मैं उनका हाथ पकड़ लूँगी। “सूर्य के नीचे कुछ भी नया नहीं है”—एक्लिजियास्टिस्, आपने ही लिखा है न! लेकिन आप स्वयं सूर्य के नीचे नए पैदा हुए थे। आपके द्वारा रचित कविताएँ भी सूर्य के नीचे नई हैं, क्योंकि इन्हें आपसे पहले किसी और ने नहीं लिखा। और, आपके सभी पाठक भी सूर्य के नीचे नए हैं, क्योंकि जो लोग आपसे पहले रहते थे; वे आपकी कविताएँ नहीं पढ़ सकते थे। और जिस सरो के वृक्ष-तले आप बैठे हैं, वह सृष्टि के आरंभ से यहाँ पर नहीं टिका है। यह अपने जैसे एक अन्य सरो के माध्यम से अस्तित्व में आया है, लेकिन बिल्कुल उस जैसा नहीं है। एक्लिजियास्टिस्, मैं आपसे यह भी पूछना चाहती हूँ कि अब सूर्य के नीचे की किस नई चीज़ पर काम करने की योजना बना रहे हैं? पहले ही व्यक्त किए गए विचारों का एक और परिशिष्ट? या संभव है कि आप उनमें से कुछ को खंडित-मंडित करने को बेचैन हो रहे हों! अपने पहले के काम में आपने आनंद का ज़िक्र किया था तो इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि यह क्षणभंगुर है? तो संभव है कि सूर्य के चरणों में समर्पित आपका आने वाला नव-काव्य आनंद के बारे में होगा! मुझे संदेह है कि आप यह कहेंगे कि “मैंने सब कुछ लिख दिया है, मेरे पास जोड़ने को कुछ भी नया नहीं है।’’ दुनिया में कोई कवि ऐसा नहीं है जो यह कह सके, कम से कम आप जैसा महान् कवि तो बिल्कुल भी नहीं।

दुनिया—जब हम इसकी विशालता और अपनी लाचारी से भयभीत होते हैं, व्यक्तिगत पीड़ा, लोगों की, जानवरों की और यहाँ तक की पौधों की पीड़ा के प्रति इसकी उदासीनता पर क्षुब्ध होते हैं; हम इतने आश्वस्त क्यों हैं कि पौधों को कोई दर्द नहीं होता है, जो भी हो हम सोच सकते हैं; ग्रहों से घिरे तारों की किरणों द्वारा बेधित इसके विस्तार के बारे में हमने अभी खोज शुरू की है, ग्रह पहले ही मृत हो चुके हैं, जो भी हो हम सोच सकते हैं? अभी भी मृत पड़े हैं? हम बस नहीं जानते हैं; इस नायाब रंगमंच के बारे में जहाँ के लिए हमारे टिकट आरक्षित हैं, लेकिन टिकट की उम्र हास्यास्पद रूप से कम है, क्योंकि यह दो मनमानी तारीख़ों से बँधा है, जो भी हो हम सोच सकते हैं; हम इस दुनिया के बारे में और जो कुछ भी सोच सकते हैं—यह अद्भुत है।

लेकिन शब्द ‘अद्भुत’ अपने आप में एक तार्किक जाल है। आख़िरकार, हम उन चीज़ों से चकित हैं, जो कुछ प्रसिद्ध और सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत मानदंडों से विचलित होती हैं, उस स्पष्टता से विचलित होती हैं; जिसके हम आदी हो गए हैं। पते की बात यह है कि ऐसी कोई स्पष्ट दुनिया है ही नहीं। हमारा विस्मय आंतरिक है, और वह किसी और चीज़ से तुलना पर निर्भर नहीं है।

सहमत कि दैनंदिन व्यवहार में, जहाँ हम हर शब्द पर विचार करने के लिए नहीं रुकते हैं, हम सभी ‘साधारण दुनिया’, ‘साधारण जीवन’, ‘घटनाओं की सामान्य कार्यप्रणाली’ जैसे वाक्यांशों का उपयोग करते हैं… लेकिन कविता की भाषा में, जहाँ हर शब्द तौला जाता है, कुछ भी सामान्य या चलताऊ नहीं है। एक पत्थर भी नहीं, और न ही उसके ऊपर का एक बादल। एक भी दिन नहीं, और उसके बाद की एक रात भी नहीं। और इन सबसे बढ़कर, एक अस्तित्व भी नहीं, इस दुनिया में कोई भी अस्तित्व नहीं।

ऐसा लगता है कि कवियों के पास करने के लिए हमेशा बहुत कुछ होगा।

मूल स्रोत : Wisława Szymborska – Nobel Lecture. NobelPrize.org. Nobel Prize Outreach AB 2022. Wed. 17 Aug 2022 <https://www.nobelprize.org/prizes/literature/1996/szymborska/lecture/>


यह नोबेल-व्याख्यान ‘सदानीरा’ के पोलिश कविता अंक में पूर्व-प्रकाशित। उदय शंकर से परिचय के लिए यहाँ देखें : यथार्थ का आत्मशोध

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