पी. विठ्ठल की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा
मिट्टी की ही तरह पवित्र होना है मुझे
सुख-दुखों की अनगिनत समकालीन कहानियाँ
मिली हुई हैं इस मिट्टी के कण-कण में
इसीलिए मिट्टी का निरामय स्पर्श
प्रिय होता है इंसान को
प्रार्थना की ही तरह
तुम्हारे हाथों में यह जो
मिट्टी का नम-गीला बर्तन है न
इसमें घुली हुई है
ऋतुओं की सरगर्मियों की
असंख्य आवाज़ें और
कई श्रमजीवी हाथों का
आकुल पसीना
दौड़ चुके हैं इस मिट्टी की देह पर से
युद्ध के शक्तिशाली अश्व
हिरणों के निरीह झुंड और
मोरों के मनमोहक पंखों के
निर्लिप्त निशान भी
अंकित है इस मिट्टी पर
हज़ारों सदियों के आदिम अक्षर
तराशे गए हैं इस मिट्टी पर
और हर अक्षर में छुपी है
प्राचीन सभ्यता की एक भव्य वर्णमाला
इंसानों ने इसी मिट्टी पर चलाया
श्रम का शाश्वत हल
और लिखा गया धरती की पीठ पर
मिट्टी का पारदर्शी सौंदर्य-शास्त्र
प्रिय,
इस मिट्टी के पात्र का
जल-घूँट लो तुम एक ही साँस में
और लेने दो मुझे
तुम्हारे स्नेहमयी अधरों का चुंबन
मैं मिट्टी की ही तरह
पवित्र होना चाहता हूँ!
क्या उमड़ता है तुम्हारे भीतर
टिप्पणी में दिए गए
व्यवस्थित संदर्भ की भाँति
मुझे टालते हुए
तुम खड़ी हुई होती हो
दर्शन की क़तार में
तब क्या उमड़ता रहता है
तुम्हारे भीतर
जिसे समझा जा सके?
प्रार्थना के समय
मुझे अनदेखा कर
किस अभिलाषा हेतु
तुम मूँद लेती हो
अपनी शून्य-संवेदन आँखें?
चुटकी भर श्रद्धा की एवज़ में
क्या पाना चाहती हो ईश्वर से?
या कौन-सा आंतरिक खिंचाव है
जिससे तुम सहती रहती हो
युग-युग की इस अपरिचित पीड़ा को?
प्रिय!
सच तो यह है कि
तुम्हारे चेहरे पर की आस्तिक भाषा को
मैं ज़रा-सा भी बूझ नहीं पाता हूँ
हाँ, यह ज़रूर कह सकता हूँ कि
तुम इस बारे में
पूरी मौन रहना चाहती हो!
पटकथा
हाँ, यह मेरी ही लिखावट है
और तुम जो यह पढ़ रही हो न
उसे हमारे विगत जीवन की
पटकथा ही समझना
यूँ तुम्हारा अकबकाना
और गदगद हो जाना
कोई वजह तो नहीं है इसकी
अच्छा यह न समझना कि
इसमें कोई उपहास है मेरा-तुम्हारा!
आस-पास हमारे
घिरे हुए हैं अफ़वाहों के
इतने घने-काले बादल
बावजूद इसके
एक-दूजे के आलिंगन में
डूब ही गए न हम…
मनाया हमने देह का उत्सव
बहसें भी कीं अर्थहीन
अंतरंग क्षणों के लंबे एकांत में
सजाई हमने सहवास की झालरें
लिखते और मेटते रहें हम
कविता की कई-कई पंक्तियों को
हमने लगाया एक पौधा
भीतर गहरे भीतर
और
लहलहाकर उग आया
हमारी कोशिकाओं से रक्त से
भाषा का एक निःसंदर्भ अंकुर
तो फिर…
यह पटकथा उन्हीं दिनों की है
जिन दिनों
हमने प्रेम आदि किया था
एक दूजे से टूटकर!
प्रिय
एक गहरी साँस लो
और भर लो मुझे
अपनी भग्न प्राचीन देह में
बहने दो मुझे
दुःख का समंदर बनकर
अपने गर्भाशय से
या तुम्हारी हथेलियों में
बुद्ध बनकर सो जाने दो मुझे
कुछ क्षण
साँझ जब उतरने लगेगी
निकल जाऊँगा मैं
अपने दिशाहीन भ्रमण पर
लेकिन मेरे साथ बनी रहे
तुम्हारी ममतामयी थरथराहट
कितनी ऋतएँ बीत गई
हम दोनों के बीच से
मुझे एकाध ऋत का
पता तो दो
प्रिय!
पी. विठ्ठल (जन्म : 1975) सुचर्चित मराठी कवि-लेखक हैं। उनसे shoonya2018@gmail.com पर बात की जा सकती है। सुनीता डागा से परिचय के लिए यहाँ देखें : स्त्री के क़दमों का बदहाल भटकाव
बेहतरीन कविताएँ
■ शहंशाह आलम
खूप खोल संवेदन.. विठ्ठल सर. अभिनंदन
Abhinandan sir