सुभाष मुखोपाध्याय की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक

सुभाष मुखोपाध्याय

पैर-पैर

सब समय
वह मेरे पैर-पैर में
सब समय
वह मेरे पैर-पैर में
घूमता-फिरता रहता है।

उसे कहता हूँ,
तुम्हें लेकर रहने का समय नहीं
हे विषाद, तुम जाओ
अभी मेरे पास समय नहीं
तुम जाओ!

एक पेड़ के तने पर
हृदय-पीठ पर एक करके
यौवन में पैर धर दिया है।

एक नंगी मृत्यु
अभी-अभी देखकर आया हूँ।

धरती पर प्रचंड चीत्कार करके घूम रहा है
वह दाँत निचोड़ भय
मैं उसके शरीर के चमड़े को
खोल लेना चाहता हूँ।

माँगकर देखो, हे विषाद!
एक सुख का मुख देखूँगा बोलकर
हम लोगों के मुख की ओर देख रही है
बाल सादा करके अहमद की माँ।

हे विषाद!
तू मेरे हाथों के सामने से हट जा,
पानी और कादा से धान रोकना होगा।

हे विषाद!
हाथों के सामने से हट जा,
मातम को दूर करने की ज़रूरत है
जाता नहीं,
विषाद! फिर भी नहीं जाता।

सब समय
वह मेरे पैरों में
घूमता-फिरता रहता है।

मैं क्रोध से अंधा हो जाता हूँ
अपनी असीम वेदनाओं को उसकी तरफ़
फेंककर मारता हूँ।
बोलता हूँ,
शैतान तुझे नर्क भेजने पर मैं बचूँगा।

इसके बाद,
कब काम के बीच डूब गया पता नहीं
चाहता हूँ
दूर बैठकर वही मेरा विषाद
मुझे एक बार में भूलकर
मेरी अपूर्ण वासनाओं को लेकर खेल रहा है
हँसते-हँसते मैं उसे अशांत बच्चे की तरह
गोद में उठा लेता हूँ।

दिन का अवसान

पश्चिम में आकाश रक्त-गंगा बहाकर
जैसे कोई साहसी डकैत की तरह
रास्ते के मनुष्यों की आँखों में
रँगते-रँगते अपने डेरे में वापस लौट गया

…सूर्य।

इसके बहुत देर के बाद
मौक़े पर जाँच करने के लिए
दिन को रात करने
जैसे पुलिस के काले गाड़ी में आई हो

…संध्या।

प्रकश होने पर ही
खिड़की से बाहर उछलकर भागा

…अँधेरा।

परदा हटाने पर
भयभीत हिरणी की तरह
मुझे ज़ोर से जकड़े

…हवा।

जलते हुए शहर में

तेल से चिपचिपी हरी घास
एक साथ पंक्ति में होकर
गर्दन ऊँचा करके देख रही है

किस तरह इस जले हुए शहर में
हृदय का आँचल हटाकर
कैसे आग्रह से सोया हुआ है।

अश्विन का आश्चर्य सुबह
रंग जिसका ठीक
हिलते चंपा फूल की तरह।

खड़े मनुष्यों को
बग़ल में दबाकर समय दस बजे
ट्राम गाड़ी में लटकते-लटकते चले गए।

काले-काले माथे
अदृश्य पैरों के ऊपर खड़े हैं,
जैसे आत्म-समर्पण की भंगिमा में
हाथ ऊपर करके

काले-काले माथों पर
आँखों ने जन्म लिया।

बाहर साड़ी से ढके हैं
दो सभ्य पैर
हम लोगों के दूरवर्ती भविष्य की तरह
उसकी मुख छवि कैसी है
कभी भी नहीं जान पाऊँगा।

हठात्

मेरी इच्छाएँ—
दौड़ती-भागती-सी।

मेरी इच्छा हुई जाने की
जहाँ उसकी आँखों में
उज्ज्वल नीलमणि की तरह आकाश हो।

जहाँ पर लहरें उठकर
ढक लेंगी नदी
जहाँ पर जाऊँगा
और कभी नहीं लौटूँगा

इसके बाद ट्राम से उतरकर
अर्द्ध श्वास लेकर भागने लगा।

भागते-भागते
भागते-भागते

ईंट-लकड़ी से निर्मित
एक मूर्ति ने
मुझे ढक लिया।

जितना भी दूर जाता हूँ

मैं जितना भी दूर जाता हूँ
मेरे साथ जाता है
समुद्र की लहरों की तरह माला-गाथा
एक नदी का नाम

मैं जितना भी दूर जाता हूँ।

मेरी आँखों की पलकों में लगा रहता है
गोबर से आँगन को लीपकर
पंक्ति से अंकन करते हैं
लक्ष्मी के पैरों को।

मैं जितना भी दूर जाता हूँ।

लौट-लौटकर

सीढ़ी पर घूम-घूमकर
मैं नीचे उतर रहा हूँ
उतर रहा हूँ,
उतर रहा हूँ।

तुम बोले थे—आइएगा?
देखूँगा, आइएगा
अच्छा, आइएगा देखूँगा।

बोले थे।

सीढ़ी पर घूम-घूमकर
मैं नीचे उतर रहा हूँ
उतर रहा हूँ,
उतर रहा हूँ।

बोला था; माँ मेरी,
खिलौने लाऊँगा—
माँ मेरी
आज ज़रूर लाऊँगा।

बोला था।

सीढ़ी पर घूम-घूमकर
मैं नीचे उतर रहा हूँ
उतर रहा हूँ,
उतर रहा हूँ।


सुभाष मुखोपाध्याय (1919- 2003) अग्रणी भारतीय बंगाली कवियों में से एक हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ बांग्ला से हिंदी में अनुवाद के लिए उनकी पुस्तक ‘जोतो दूरेई जाई’ से चयनित हैं। रोहित प्रसाद पथिक से परिचय के लिए यहाँ देखें : सब सबसे अपरिचित हैं

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