चिट-चैट ::
सलीम किदवई
से
तोषी

सलीम किदवई

‘वैधता की चाह बहुत बड़ी चाह होती है’

यह कोई इंटरव्यू नहीं, यह एक बातचीत है—उन दो लोगों के बीच जिन्होंने भारतीय क्वियर आंदोलन को क़रीब से देखा है। एक जिसने अभी बिल्कुल अभी शरीर के अधिकारों पर बात करना शुरू किया है और दूसरा जिसने इसकी ज़मीन तैयार की है। दोनों की अपनी चिंताएँ, अपनी उम्मीद और अपना नज़रिया है, इसलिए ये बातें कभी इधर जाती हैं तो कभी उधर। इनमें गॉसिप भी सुनी जा सकती है और सामाजिक विमर्श भी। यहाँ प्रस्तुत यह सब कुछ कैसा है, यह आप तय करें; पर यह इतिहास ज़रूरी है, यह मुझे पता है।

लखनऊ को मैं महबूब शहर कहती हूँ। नहीं मेरे प्रेमी या प्रेमिकाएँ वहाँ नहीं रहते हैं। वह शहर कहानियों और क़िस्से कहने वालों से भरा हुआ है। भारतीय क्वियर आंदोलन के इतिहास में लखनऊ का अपना अलग अस्तित्व है। वह राजधानी भी है। एक राजधानी अपनी तरह से प्रिविलेज्ड होती है—इंसानों की तरह, जैसे कुछ इंसान मोबिलाइज ज़्यादा कर पाते हैं और अपने भाग्य पर इतराते हैं। (हाय मेरे मिडिल क्लास दुःख।)

सलीम किदवई का परिचय यह है कि वह इतिहास के विद्यार्थी हैं और इतिहास के ही प्रोफ़ेसर। वह ‘सेम सेक्स लव इन इंडिया’ के सह संपादक हैं। इसके अतिरिक्त भी कई किताबों में उनके मध्यकालीन इतिहास पर आलेख, बीबी अख़्तर (बेगम अख़्तर) की याद में लिखे पर्चे शामिल हैं।

सलीम उस वर्ग में शामिल हैं, जो सबसे पहले कमिंग-आउट1कम आउट [ऑफ़ द क्लॉज़ेट], क्लॉज़ेट से बाहर निकलना, वह प्रक्रिया जिसमें क्वियर पहले ख़ुद को फिर दूसरों को अपनी पहचान के बारे में बताते हैं। कर रहा था।

भारतीय समाज में गे होना और मुसलमान गे होना अनेक द्वंद्वों को आमंत्रण देना है। सलीम अब लखनऊ में रहते हैं, जोकि उनका घर है। मैंने अपने शोध-प्रपत्र के लिए उनसे मदद माँगी थी, चूँकि पढ़े गए इतिहास से भोगा हुआ यथार्थ अधिक जीवंत लगता है।

जब मैं उनके घर पहुँची तो वह कहीं जा रहे थे और थोड़ा जल्दी में भी थे। पूछने पर पता चला कि उनको बेगम अख़्तर की मज़ार पर जाना था। बीबी अख़्तर का जन्मदिन आ रहा था और सलीम ने उनकी मज़ार का रेनोवेशन करवाया था। अब बीबी के जन्मदिन पर वहाँ जलसा होता है। वह उसकी तैयारियाँ देखने जा रहे थे। आख़िरकार उनकी ज़िंदगी को बीबी अख़्तर ने बहुत प्रभावित किया था। वह और शाहिद (आग़ा शाहिद अली) कभी भी दिल्ली में उनका कोई प्रोग्राम मिस नहीं करते थे। अब शाहिद और बीबी दोनों नहीं हैं, जो उनके क़रीब थे। इसलिए वह बस उनकी यादों को सँजोने में लगे रहते हैं। उनका लगाव था/है उनसे…

मैंने देखा कि उनके हाथ में मोगरा और गुलाब की अगरबत्तियाँ थीं। अपनों को याद करने के तरीक़े चाहे जितने हों—सुगंध से याद करना सबसे आदिम रहा होगा।

मैं जैसे ही पहुँची, वह माफ़ी माँगते हुए बोले, ‘‘अरे मैं भूल गया था कि मैंने तुमको वक़्त दिया है, चलो आओ मैं थोड़ी देर से जाऊँगा।”

मेरे सामने एक हसीन बूढ़ा आदमी था और वह आज मुझे कहानी सुनाने वाला था। मैंने हमेशा उनको दादा कहा है। आज वह दादा जी वाली भूमिका में थे। हम उनके बैठकख़ाने में बैठे। पूरा कमरा किताबों से भरा हुआ था। जस्ट अ गे अस्सेटिक—एक आरामकुर्सी जिस पर वह बैठे, बग़ल में एक छोटी टेबल जिस पर ‘तवायफ़नामा’ रखी थी, सामने बहुत सुंदर तस्वीर थी जिसमें बेगम अख़्तर के साथ सलीम सर और आग़ा शाहिद अली थे।

आग़ा शाहिद अली, बेगम अख़्तर और सलीम किदवई

“तो बताओ तुम्हारा काम कैसा चल रहा है और मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ?’’

मैंने कहा : “मैं बस शुरू से जानना चाहती हूँ कि कैसा था वह दौर और कैसा महसूस होता था?”

“देखो! मेरा इस पर कोई काम नहीं, मैं केवल मार्जिन से बता सकता हूँ।”

“हाँ, मुझे बस वही जानना है। मैं शोध के लिए तथ्य नहीं, कहानियाँ तलाश रही हूँ।’’

“वो दौर अस्सी के दशक का था। मॉन्ट्रियल और न्यूयॉर्क में हमारे जानने वाले अस्सी प्रतिशत व्यक्तियों को एचआईवी हुआ था। यह भयानक दौर था जबकि हमको यह पता ही नहीं था कि यह है क्या? हमें यह भी नहीं पता था कि यह फैल कैसे रहा है और हो क्या गया है… न लक्षण एक जैसे दिखते, न कोई एक पैटर्न था… बस ये पता होता था कि हश्र बुरा होने वाला है। वे इतनी दर्दनाक मौतें थीं कि तुम इमेजिन भी नहीं कर सकती हो। हमने बहुत बुरी और बदतर मौतें देखी हैं। शरीर गल जाया करते थे। वे सड़ने लगते थे। डर लगा रहता था कि ये जो हो रहा है वो बर्तन से हो रहा है, हवा से हो रहा है… और तो और इग्नोरेंस तो ऐसा था कि न जाने कितने माँ-बाप ने अपने बच्चों को छोड़ दिया था। हम आपस में ही एक दूसरे की देखभाल करते और डरे रहते थे।

हिंदुस्तान ने यह भयावह दौर नहीं देखा मौतों का, इसलिए यह सब कुछ भुला दिया।”

एक छोटी चुप्पी के बाद फिर से वह कहते हैं :

‘‘वहाँ पर हमें बस यह डर होता था कि हम बचेंगे या नहीं। हम जिनसे प्रेम करते थे, उनको अपने सामने मरता देख रहे थे। हम कुछ भी कर पाने में कमज़ोर थे कि कहीं कोई सुनवाई ही नहीं थी।’’

वह ज़ोर देकर कहते हैं :

‘‘अपनों को बिना वजह खोना और बेसिक मदद भी न मिल पाना आपको सिर्फ़ और सिर्फ़ कमज़ोर इंसान ही नहीं, बल्कि यह भी महसूस करवाता है कि आप कम इंसान हैं। मुझे इसके बारे में बस मार्जिन से मालूम है। मैं तुम्हें आख़िर क्या दे सकता हूँ।”

“दादा! मैं मार्जिन से ही जानना चाहती हूँ। मैं इन कहानियों को इकट्ठा करके रखना चाहती हूँ, ताकि वे अगली बार हमारी हत्याओं और मृत्यु को बस मृत्यु न समझ लें। मैंने हिंदी के उस समय के कुछ डॉक्यूमेंट देखे हैं, जैसे : ‘संक्रमण की पीड़ा’ में श्यामाचरण दुबे जैसे मानवविज्ञानी ने लिखा है कि दिल्ली में जगह-जगह गे क्लब खुल गए हैं, जिनका काम एचआईवी फैलाना है और मैनेजर पांडेय जैसे हिंदी के वरिष्ठ आलोचक भी यही बात एक पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं कि एचआईवी का उद्देश्य देश में समलैंगिकता को बढ़ाना है। जब इतने प्रबुद्ध लोग इतने इग्नोरेंट और एरोगेंट हो सकते हैं, तो हम किसकी ओर देखेंगे।”

“हाँ, तो तुम इनकी ही बात क्यों कर रही हो ये तो हेट्रोसेक्सुअल लोग हैं। हमने तो वे लोग भी देखे हैं जो आज बड़े एनजीओ चला रहे हैं, जिन्होंने अपने साथ के व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार किया जब उन्हें मालूम हुआ कि वो एचआईवी+ है। होमोसेक्सुअल लोगों का होमोफ़ोबिया कम थोड़े है। पटरी के इस ओर खड़े होने के बाद भी आप इस दुनिया का हिस्सा होते हैं और बहुत क्रूर होते हैं। अब तो वो दौर नहीं है। हमने जितना काम करना था, जिस तरह की अवेयरनेस फैलानी थी, हमने किया। मामला यह है कि सेक्सुअलिटी के विमर्श को हमने एचआईवी के पीछे ही लड़ा है। दिल्ली में जब भी उस दौर में कार्यक्रम किए तो यही कहा की एचआईवी की अवेयरनेस का प्रोग्राम है, जिसमें हम एक या दो प्रोग्राम एचआईवी का करते और फिर सेक्सुअलिटी पर बात करते। वैधता की चाह बहुत बड़ी चाह होती है, जिसे हाशिए पर रहने वाला ही जान सकता है। मुझे तो ये कहानियाँ और तकलीफ़ें बड़ी निजी लगती हैं, पर तुम लोग शोध को भी अलग तरह से देख रहे हो।’’

वह आगे कहते हैं :

‘‘नई पीढ़ी से मैं बहुत उम्मीद रखता था, पर अब उन्होंने वालंटियर डेथ का रास्ता चुन लिया है… बताओगी वह क्या है? हमने हमारा काम पूरी ईमानदारी से किया था। तुम उनको नहीं जानती होगी, पर एक सज्जन हैं जो पच्चीस सालों से एचआईवी के साथ बेहतर ज़िंदगी जी रहे हैं…” मैंने सिर हिला दिया जबकि मुझे पता था कि ये बात कहाँ जा रही है—वही वैधता! मैं बस जानना चाहती थी कि जो मैं सोच रही हूँ, वह कितना सही है।

“वालंटियर डेथ यानी कैम सेक्स…” दादा ने फिर से बोलना शुरू किया, “क्या तुम जानती हो ये क्या है?’’ मैंने कहा, “हाँ, हमारे समूह में है एक बंदा जोकि इसमें इन्वॉल्व था, और अब वह इस पर बहुत खुलकर बात करता है।”

“क्या वो सेफ़ है?”

“जी?”

“हाँ तो अब तुम इसको कैसे देखती हो?—इतने दिन का किया-धरा सब पानी में जाते। ये तो वो लोग हैं जो इसको अफ़ोर्ड कर सकते हैं और जागरूक हैं।’’

“हम वापस वहीं आ गए हैं, जहाँ से हमने शुरू किया था।’’

वह सच में निराश दिख रहे थे। फिर वह पूछते हैं :

‘‘कि ये सब तो ठीक है : तुम बताओ ये तुम्हारे शोध में कैसे मददगार है? इसका अल्टरनेट से क्या संबंध?’’

मेरा ही इंटरव्यू होने लगा था।

‘‘मुझे लगता है दादा कि ये कहानियाँ और बातें लोगों को अपनी तकलीफ़ को हील करने में मदद करेंगी। अल्टरनेट हीलिंग में केवल दवाएँ ही नहीं आती हैं, बल्कि आपकी तकलीफ़ों का नेगोशिएशन भी आता है। ये कहानियाँ लोगों की मदद करेंगी और उन्हें लगेगा कि वे अकेले नहीं हैं। इसके साथ ही ये कहानियाँ उन लोगों की भी मदद करेंगी जिनकी सत्ता ने हमारे हिस्से का प्रेम तक छीन लिया! सुना जाना, वह भी हिंदी पट्टी में—जहाँ की भीड़ सबसे बड़ी है और समझ बेहद छोटी। आपको बीच का ही रास्ता लेना होता है—उसके सारे ख़तरे जानते हुए और सबसे बड़ी बात ये है कि मैं ख़ुद से, धर्मेश, चिज्जी से इतना प्यार करती हूँ कि हमारे होने को कौतूहल या अपराध की दृष्टि से नहीं देखे जाना चाहती। मैं अजीब-अजीब सवालों के जवाब देते-देते थक गई हूँ।”

मैं अपने ही दुखड़े रोने लगती हूँ, पर ये ऐसे ही हुआ था।

“अरे! तुम बहुत बहादुर हो।”

हमारी बात फिर से ‘मैं’ से ‘हम’ पर आई।

“तुमने वो किताब देखी? ‘गे आइकॉन ऑफ़ इंडिया’?”

मैंने कहा, “हाँ, देखी, किंडल पर…”

‘‘उस किताब को हटा लिया गया है!’’

“क्यों?!”

“क्योंकि इसकी राइटर ने बिना किसी से कुछ पूछे, इधर-उधर की बातें लिख दी थीं। मुझे भी नहीं पता था कि मेरे ऊपर भी एक चैप्टर है। इसका इससे अफ़ेयर, उसका उससे अफ़ेयर… क्या है ये सब? अब हम कोई फ़िल्म स्टार हैं क्या, जो हमारी ज़िंदगियों में लोग घुसे रहना चाहते हैं। सिर्फ़ मसाला… यही होता है जब कोई और क्वियर कहानियाँ लिखने जाता है, थोड़ा-सा एम्पथी बनाकर चलने से कहिए लेखकों को इतना कि पूछ लें।”

“तुमने और कहानियाँ जमा की हैं…?’’

“जी… मैं कुछ दिन पहले ही आदी से मिली थी। उसकी भी तकलीफ़ मुझे परेशान करती है। वह कहता है कि मैंने एचआईवी के साथ जीना सीख लिया है, पर मेरा अकेलापन मुझे खाए जाता है।”

“और तुमको लगता है कि ये आदी के अकेले की कहानी है। ये अकेलापन तो आपके क्वियर होने के साथ ही चलता है। मुझे तो रोज़ कई मैसेज आते हैं कि मैं अकेला हूँ, मेरा ध्यान कौन रखेगा, अरे मैं थक गया हूँ—इन बातों को सुनते-सुनते… और ये बातें तकलीफ़ भी देती हैं और परेशान भी करती हैं। ये कैसी दुनिया हमने बना ली है। हमने लोगों को मजबूर कर रखा है—वैसे ही पार्टनर चुनने और देखने के लिए, वैसी ही हेट्रोनॉरमेटिव सोच के लिए। हमने लोगों को अकेले होने को महसूस करने के लिए मजबूर किया है।”

इसके बाद फिर वह कुछ देर शांत रहते हैं। फिर कहते हैं :

“मैंने बोला है कि पढ़ो और अपना वजूद तलाशो, और अच्छी दोस्तियाँ करो। मुझे भी ये अकेलापन लगता था। और है, पर कई बार हम इसका प्रयोग शायद अस्ल समस्याओं से भागने के लिए करने लगते हैं। भाई मैं उस जगह तो फिर भी मदद कर सकता हूँ, जहाँ लोग ये कहते हैं कि माता-पिता शादी के लिए प्रेशर बना रहे हैं, अकेलेपन का तिलिस्म कैसे तोड़ा जाए।’’

“आपको नहीं लगता कि ये पढ़कर वजूद की तलाश करने को कहना एक एलीट आइडिया है। सब पढ़ाई अफ़ोर्ड नहीं कर पाते हैं और सबकी क़िस्मत भी आदी की तरह नहीं है, और दुनिया भर घूमने और ग्लैमर में रहने के बाद भी उसको अकेलापन महसूस होता है…”

‘‘हम्म…’’

“मैं ख़ुद थका हुआ महसूस करता हूँ… स्थितियाँ बहुत बदली हैं। आजकल तो बहुत से काम इंटरनेट पर हो रहे हैं। हमारे समय में तो हमने सोचा भी नहीं था कि इलाहाबाद, लखनऊ और अब गोरखपुर जैसी जगहों पर लोग अपनी आइडेंटिटी के साथ खुलकर सामने आएँगे।”

“हमें अल्टरनेट परिवारों की ओर बढ़ना चाहिए। यह भी सच है कि आपको पार्टनर मिल भी जाए तो भी आप अकेले न महसूस करें, इसकी क्या गारंटी?”

‘‘तुम एक और चाय लोगी?’’

“हाँ…”

“आप सोशल मीडिया इस्तेमाल करते हैं?”

“हाँ, बस फ़ेसबुक। लेकिन अब ज़्यादा नहीं जाता।”

“सोशल मीडिया को कैसे देखते हैं—अवेयरनेस के लिए…”

“अवेयरनेस मुझे तो लगता है कि ये सब अब बस नफ़रत फैलाने के काम आता है। तुमने कभी ग्राइंडर देखा है?’’

‘‘हाँ।’’

“कैसी-कैसी प्रोफ़ाइल लोग बनाते हैं! इससे ज्यादा इस्लामोफ़ोबिया और ट्रांसफ़ोबिया आप कहाँ देख सकते हैं। मं? तो ऐसी प्रोफ़ाइलों को जमा करता हूँ और रिपोर्ट करता हूँ। सब कुछ बिखर गया है और जो हाशिए पर था वो तो और हाशिए पर आ गया है, और ग़ज़ब ये हुआ है कि एक हाशिएवाला दूसरे हाशिएवाले के ख़िलाफ़ खड़ा है।’’

“हम उम्मीद नहीं छोड़ सकते हैं।”

उन्होंने आँखे बंद कर रखी थीं। अब जो आने वाला था, मैं उसके लिए एकदम तैयार नहीं थी। अब जो भी आ रहा था, वह एक प्रोफ़ेसर की बात थी—इतिहास के प्रोफ़ेसर की।

“उम्मीद शब्द बहुत सुंदर है। जब तुम लोगों की उम्र का था तब बाबरी देखा, देश देखा जलते हुए, हमें लगता था कि सब ठीक हो जाएगा। हमें लगता है कि हमारी ही कोई कमी रही होगी। हमने ही इतिहास समझाने में कोई ग़लती कर दी।”

उस वक़्त मैंने उनकी ओर देखा। मुझे लगता है कि अगर नाउम्मीदी का कोई चेहरा होता तो वह उस वक़्त के सलीम सर के चेहरे-सा ही होता। मैं उनकी तकलीफ़ को शब्द देने के लिए अभी भी शब्द हेर रही हूँ, जो कई बार बिला जाते हैं।

“मुझे लगता था कि हम शांति की ओर बढ़ेंगे, पर इतनी नफ़रतें पाले बैठे हैं कि मेरे ही कुछ स्टूडेंट्स हैं जो कि ‘नॉट इन माय नेम’ जैसे प्रोग्राम चला रहे हैं, पर यह वक़्त भीड़ की हिंसा, बदले की भावना, यह सब इस समय का कलेक्टिव फ़ेल्योर है। मैं कहाँ से उम्मीद लाऊँ। मैं अब बस चुप रहता हूँ। कोई सुन भी तो नहीं रहा है।’’

फिर से फ़ोन की घंटी बजती है और सलीम सर को जाना है—बीबी अख़्तर से मिलने। वह पूछते हैं (सीढियों से उतरते हुए), “आजकल क्या पढ़ रही हो?” मैंने जिबरिश में बोला, ‘‘द गिफ़्ट बाय अरुण गांधी’’।

“गांधी ही इस देश की चेतना है, अब वह ही रक्षा करें।’’

“क्या आपको भी लगता है कि गांधी होमोफ़ोबिक थे।’’

कार में बैठते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यह एक लंबा डिस्कशन है, इसका जवाब तुम तलाश करो… मेरी ओर से नहीं थे। यह नॉन अकादमिक राय है। सबा दीवान की ‘तवायफ़नामा’ पढ़ना।

“जी।”

वह चले गए और मैं तब से सोच रही हूँ : क्या गांधी होमोफ़ोबिक थे?


तोषी

सलीम किदवई (जन्म : 1951) एक इतिहासकार और स्वतंत्र स्कॉलर हैं जिन्होंने रामजस कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में बीस वर्ष तक अध्यापन किया। मध्ययुग और आधुनिक भारत पर उनके अनगिनत आलेख हैं। उन्होंने कई अनुवाद भी किए जैसे सय्यद रफ़ीक हुसैन की कहानियों की किताब, ‘द मिरर ऑफ़ वंडर्स’, ‘सॉन्ग संग ट्रू : अ मेमॉयर ऑफ़ मलिका पुखराज,चाँदनी बेगम और शिप ऑफ़ सॉरो’। उन्होंने रूथ वनिता के साथ मिलकर ‘सेम सेक्स लव इन इंडिया’ का सह संपादन भी किया। सलीम LGBTQIA+ मूवमेंट के भारत के पहली पीढ़ी के सबसे ज़रूरी पढ़े और समझे जाने वाले लेखकों में से हैं। तोषी आलसी और ज़िंदगी मे हमसफ़र की तलाश में हमेशा हमसफ़र पर सवार रहने वाली नई नस्ल की प्रतिभा हैं। क्वियर, एचआईवी एड्स और वैकल्पिक चिकित्सा प्रणाली में शोध करने की उनकी कोशिश इलाहाबाद विश्वविद्यालय से जारी है। उनसे toshi.pandey01@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के क्वियर अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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