प्रभा गणोरकर की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा

प्रभा गणोरकर

हत्या

कितनी ठंडी आँखों से
हमने देखा
इस हत्या को
क्या हम भी शामिल थे उसमें
हम यूँ ही तो नहीं खड़े थे
हमारे पास भी थे हथियार
हाथ उठाकर हमने किए प्रहार!
फिर अब जब
अंतड़ियों से भरभराकर रिसता हुआ ख़ून
जमता जा रहा है धीमे-धीमे
पूरी देह छटपटाहट से भरी
ले रही है अंतिम साँस
निश्चेष्ट होता जा रहा है धीमे-धीमे
गर्मी खोता एक-एक स्नायु
बरौनियों की हलचल रुकती हुई
दृष्टि आकाश की ओर जमकर स्तब्ध होती हुई
तब हमने रोका क्यों नहीं ख़ुद को
कितना निरर्थक है यह विलाप!

तस्वीर

एक स्तब्धता ने घेरा हुआ है जंगल को
ऊँचे पेड़ साँस रोके हुए
बेलों की नसें तनी हुईं
पत्तों ने विकल होकर अपने रंगों को
और भी अधिक गहरा किया हुआ
उस ओर के आकाश का निर्विकार नीला टुकड़ा
जैसे अशुभ प्रतीक हो किसी अमंगल का
गुत्थियों के घने जंगल में
घुसती है कोई पीली किरण
पत्तों के हरेपन को अमानवीय हिंसा के साथ प्रकाशित करती हुई
रक्त-सी लालिमा लिए कुछ फूल
झाँकते हैं पत्तों की ओट से
उग्रतापूर्वक खड़ी घास में
दुबका हुआ एक चीता
यकायक दबोचता है एक शुभ्र अश्व को
अयाल की तरफ़ से
असहाय अश्व भय से छटपटाता हुआ
चकित और वेदना से आकुल
निर्लिप्त जंगल और भी अधिक स्तब्ध है
जैसे शामिल हो इस हत्या में…

एक पूरा जीवन इतना ज्ञात और
चित्रित
हुबहू
सिर्फ़ कैनवस पर ही होता
तब कितना अच्छा होता!

अभी तक

अभी तक शायद नहीं समझ पा रहे हैं वे ठीक से
उन्माद से भरे हुए
कि भ्रम टूटने के दिन खड़े हैं बिल्कुल नुक्कड़ पर

मशग़ूल हैं वे आने वाली ख़ुशहाली के स्वप्न में
घर में पड़े ख़ाली घड़ों की फ़िलहाल तो याद नहीं हैं उन्हें
गर्मी में रेत उलीचने से मिल ही जाएगा पानी
इसलिए नदी के किनारे खड़ी की उन्होंने अपनी झुग्गियाँ
अब धीरे-धीरे घने हो रहे हैं बादल
कौंध रही हैं बिजलियाँ
उफान पर चढ़ेगी नदी तब पता ही नहीं चलेगा कि कहाँ चले गए हैं
पड़ोस के बाँध के राज्य ने फैलाई है उजाले की अफ़वाह
इसलिए घर में टिमटिमाते दीयों को फेंक चुके हैं वे
कल न ही होगा उजाला और न ही बचेगी कोई तेल-बाती
इस भविष्य से अनजान हैं वे
चूल्हे में आग हो इसलिए
काट डाले उन्होंने जंगल दर जंगल
अब चिता के लिए लकड़ियाँ नहीं और
न दफ़नाने के लिए कोई पर्याप्त जगह।

धीरे-धीरे

धीरे-धीरे दिखाई देने लगती हैं
सभी स्त्रियाँ एक-सी
मिट जाते हैं उनके होंठ
हँसी के दयनीय अर्द्धगोल में
आँखों के नीचे बढ़ते घेरे
होते जाते हैं गहरे
समझ में आने लगता है अर्थ
सभी स्रोतों को भीतर ही भीतर पचा जाने का
और फिर करने लगते हैं मन में घर
अथाह रेगिस्तान…
ढीले पड़ने लगते हैं हाथ-पाँव
बचे हुए जीवन के बोझ की कल्पना से और भी अधिक
बचती नहीं है ताक़त क्षीण धमनियों में बहती जिगीषा में
बंद किवाड़ों की दरारों की ओट से
तेज़ी से गुज़रती गूढ़ परछाइयाँ
भरती हैं मन में दहशत
जैसे-जैसे गहरी होती जाती है शाम
घने होते जाते अँधियारे में नहीं दिखाई देते हैं उन्हें
हरे पत्तों वाले लाल-जामुनी फूलों के रंग
हाथ पर हाथ धरे
फिर भी
थम जाता है चूड़ियों का बजना
और नहीं उठती है कोई एकाध सरसरी भी
ऊसर-शुष्क चमड़ी से
जीते हुए सरल-से प्रतीत होते जीवन को
फिर से टटोलते हुए
गुत्थी और भी उलझती हुई होती है महसूस
सिकुड़ती जाती हैं धीरे-धीरे स्त्रियाँ
और पीछे पीछे और भी पीछे जाते हुए
ठहरती हैं उम्र के कैशोर्य के पड़ाव पर
अब हवा के साथ लहराती
अनगिनत रूपहली लटों को सँभालती हुईं।


प्रभा गणोरकर (जन्म : 1945) सुप्रसिद्ध मराठी कवयित्री हैं। उनके‘व्यतीत’, ‘विवर्त’ और ‘व्यामोह’ शीर्षक कविता-संग्रह प्रकाशित हैं। सुनीता डागा मराठी-हिंदी लेखिका-अनुवादक हैं। उन्होंने समकालीन मराठी स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 22वें अंक के लिए मराठी की 18 प्रमुख कवयित्रियों की कविताओं को हिंदी में एक जिल्द में संकलित और अनूदित किया है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 22वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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