योगिनी राऊल की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : विशाखा मुलमुले

योगिनी राऊल

आदिम सृजनात्मकता

एक घोड़े जैसा बेलगाम
एक लोमड़ी जैसा धूर्त
एक मोर जैसा नाचने वाला
एक कबूतर की तरह बेशर्म
इन गुणों वाले पुरुषों को स्त्री ने अपने मन जंगल में
घूमने देना चाहिए—जैसे चाहे, जब चाहे

उसने ख़ुशी से आश्रय लेना चाहिए खांडव वन में
भुगत लेना चाहिए
द्रौपदी के स्वप्न का अज्ञातवास
स्वयं ही स्वर्णमृग का करना चाहिए शिकार
पूरी करने चाहिए वनवास में सीता की अपूर्ण इच्छाएँ
शबरी के बेर थूक देने चाहिए
और एडम की अनुपस्थिति में भी
चखने चाहिए मन भर ईव के मनपसंद सेब

भूख लगने पर
खोदकर निकालने चाहिए जंगली कंदमूल
फिर भी भूख न मिटी तो
खानी चाहिए लाल काली चींटियाँ
जामवंत से मित्रता कर

अपने हक़ के जुगनुओं की प्रतीक्षा किए बग़ैर
पसंदीदा जानवर की चर्बी से
अपनी गुफा में जलाने चाहिए दिए
कुलदीपक के लिए अपने जीवन को ही बाती न बनाते हुए
छीन लेना चाहिए उजाला
ज़रूरत भर का… अपने लिए

आनंदपूर्वक सिलना चाहिए
अपने लिए पर्णवस्त्र
ढाक कर केवल इच्छुक अंग
या फिर घूमना चाहिए अलमस्त
लिए अपना कठोर नग्न सौंदर्य

वनराज की भूमिका में कोई
बताने लगे हक़ जंगल पर
तो दिखाना चाहिए बिना किसी अवरोध के
अपना आदिम जंगली स्वरूप
दहका कर सघन विचारों की अग्नि
भस्म करना चाहिए उसका अवांछित अधिकार

अपना हरा-भरा घनीभूत अरण्य
संस्कृति के डर से
किसी अर्धांग अक्षम पुरुष के हवाले करने से अच्छा है
स्त्री को विश्वास करना चाहिए प्रकृति के ऋतुचक्र पर
निर्माण करना चाहिए
अपनी आदिम सृजनात्मकता से
एक नैसर्गिक प्रसन्न अरण्य।

तलब

जेब में रखी सिगरेट ख़त्म हुई कि
तुम अस्वस्थ हो जाते हो
उठा-पटक-चिल्लम-चिल्ली
और एकदम देने लगते हो गालियाँ भी
पैरों में चप्पल डाल
चले जाते हो घर के बाहर
और नाके पर धुआँ उड़ा कर लगते हो
ख़ुद पर ही मारी फूँक-से

तलब तो मुझे भी होती है अक्सर
तुम्हें मिलने की
तुम्हारे भीतर की आग अनुभव करने की

पर तुम्हारी तरह
समय-असमय
पैरों में चप्पल डाल
घर के बाहर निकलना
मुझसे होता नहीं
किसी भी नाके पर अपनी तलब मिटा सकते हैं
यह बात भी मन को अब तक पटती नहीं!

कौए और पुरुष

कौए और पुरुष होते हैं एक जैसे

वही तिरछी नज़रों का नाप-तौल
मौक़ा मिलते ही जहाँ-तहाँ अपनी चोंच घुसाना

मछली की टोकनी और
घी से तर तवे की रोटी
दोनों ही पेट की आग बुझाने के ख़ातिर

रोज़ खिड़की के पास आने लगे तो
आसानी से पहचान लेती है स्त्री
हमेशा आने वाले कौए को अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से
वैसे आदतानुसार पुरुष भी समझ में आ ही जाता है उसे

स्त्री हकालती नहीं हर एक कौए को
वैसे ही हर एक पुरुष को

वह विद्वत्ता से बनाती है अलग-अलग नियम
अलग-अलग कौओं और पुरुषों के लिए!


योगिनी राऊल मूलतः मराठी कवयित्री हैं और मुंबई की रहवासी हैं। आईडीबीआई बैंक में तेईस साल नौकरी के उपरांत वह अब सेवानिवृत्त हैं। मराठी में उनकी कविताओं के दो संग्रह ‘बाईपणातून बाहेर पडताना’ और ‘मुखवटा उतरवल्यावर’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुके हैं। विशाखा मुलमुले कविता, गद्य और अनुवाद की सीमा में सक्रिय हैं। हिंदी में उनकी कविताओं का एक संग्रह ‘पानी का पुल’ शीर्षक से वर्ष 2021 में प्रकाशित हुआ है। उनसे vishakhamulmuley@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. पूनम भार्गव ज़ाकिर अप्रैल 6, 2022 at 5:09 पूर्वाह्न

    लाजवाब कविताएँ

    Reply
  2. शरद कोकास अप्रैल 6, 2022 at 9:07 पूर्वाह्न

    योगिनी राऊळ मराठी की वरिष्ठ कवयित्री हैं और आठवें दशक से निरंतर लेखन कर रही हैं ।
    कविता के अतिरिक्त पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उनका बहुत बड़ा नाम है ।स्त्री मुक्ति आंदोलन से भी वे प्रमुख रूप से जुड़ी हैं और ‘प्रेरक ललकारी’ नामक स्त्री मुक्ति संबंधी पत्रिका का विगत 2012 से संपादन कर रही है।

    स्त्रियों के लिए कानूनी मुद्दों पर भी वे लिखती हैं और मराठी दैनिक समाचार पत्र लोकमत समाचार में *ती सध्या काय लिहिते* यानी *वह संप्रति क्या लिख रही हैं* इस उनवान से महिला लेखन पर भी कॉलम लिखती हैं ।
    योगिनी जी ने अंबेडकर साहित्य पर काफीअध्ययन और शोध भी किया है । पितृ सत्ता की विसंगतियों और स्त्री के अधिकारों को लेकर उनकी अनेक कविताएं हैं जिनमें से कुछ कविताएं यहां पर आज प्रस्तुत है ।

    उनका कथ्य बिल्कुल स्पष्ट है और *विशाखा मुळमुळे* ने काफी अच्छा अनुवाद किया है। मुझे यदि मराठी कविता भी यहां विशाखा भेज देती तो बहुत अच्छा लगता।

    योगिनी जी अपनी कविता में भारतीय संस्कृति और माइथोलॉजी के मिथकों का बहुत अच्छा प्रयोग करती है। वे पुराण कथाओं से बिम्ब लेकर उन्ही संदर्भों में स्त्री के शोषण को रेखांकित करती है। उनका स्त्री विमर्श केवल स्त्री के अधिकारों का बयान नहीं है बल्कि वह किसी समझौते पर भी सहमत नहीं होती और कहती हैं कि *स्त्री को विश्वास करना चाहिए प्रकृति के ऋतु चक्र पर अपनी आदिम सृजनात्मकता से निर्माण करना चाहिए एक नैसर्गिक प्रसन्न अरण्य*

    उनकी दूसरी कविता *तलब* में वे सिगरेट के बिम्ब में स्त्री की यौनिक स्वतंत्रता, उसकी इच्छाओं के बरक्स पुरुष वाद और उसकी सुविधाओं को रखती हैं। यही वे तलब के उपादान के रूप में प्रेम को देखती है और पुरुष को लक्ष्य करते हुए वे कहती हैं *किसी भी नाके पर अपनी तलब मिटा सकते हैं यह बात भी मन को अब तक पटती नहीं*

    स्त्री के लिए किसी अपने व्यक्ति का प्रेम प्रमुख है और पुरुष के लिए किसी भी स्त्री की देह , इस बात को वे इस कविता के माध्यम से प्रस्तुत करती है ।

    उनकी तीसरी कविता ‘कौए और पुरुष’ बहुत ही स्पष्ट है। यहां वे इंसान को पहचानने में स्त्री की समझ को विशेष महत्व देती है । वे एक मनुष्य के रूप में उसी पुरुष को सम्मान देती है जो उनकी समझ में सही मनुष्य होता है। स्त्रियों की इस विशेषता का उल्लेख करते हुए वे कहती हैं *वे विद्वता से बनाती है अलग-अलग नियम अलग-अलग कौओं और पुरुषों के लिए !*

    विशाखा को इन कविताओं के अनुवाद के लिए धन्यवाद ।

    शरद कोकास

    Reply

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