मिलान कुंदेरा का गद्य ::
अनुवाद : सत्यार्थ अनिरुद्ध पंकज

मिलान कुंदेरा

जीवन में अकस्मात उद्भूत सघनता का सौंदर्य

दोस्तोयेवस्की के उपन्यासों में घडी निरंतर समय बताती है, उसे उपन्यास में दर्ज करती है। ‘द इडियट’ की पहली ही लाइन है : “सुबह का लगभग नौ बज रहा था; ठीक उसी समय मिश्किन, रोगोझिन और लेबेदेब; तीन पात्र जो पहले कभी नहीं मिले, निरे संयोग से (जी, इस उपन्यास की शुरुआत ही भारी संयोग से होती है) ट्रेन के कम्पार्टमेंट में मिलते हैं; उनकी बातचीत जल्द ही उपन्यास की नायिका नस्तस्या फिलिपोवना की तरफ़ मुड़ जाती है। ग्यारह बजे मिश्किन जनरल इपान्चिन के घर कॉल करता है; साढ़े ग्यारह बजे वह जनरल की बीवी और उनकी तीन बेटियों के साथ डिनर कर रहा होता है; बातचीत के दौरान नस्तस्या फिलिपोवना का ज़िक्र एक बार और आता है; हमें मालूम चलता है कि कोई टोत्स्की नाम का आदमी है जो उसके साथ रहता आया है, अब उसकी शादी एपंचिन की सेक्रेटरी गन्या से करा देना चाहता है और आज की शाम अपने पच्चीसवें जन्मदिन पर दी गई पार्टी के दौरान वह अपना फ़ैसला सुनाएगी। खाने के बाद गन्या मिश्किन को अपने घर लेकर लौटता है; जल्द ही, बिल्कुल अप्रत्याशित रूप से नस्तस्या फिलिपोवना वहाँ आ जाती है और उसके तुरंत बाद नशे में धुत अपने और शराबी दोस्तों के साथ रोगोझिन आ पहुँचता है (दोस्तोयेवस्की के रचे हर दृश्य में पात्रों के अप्रत्याशित अकस्मात् उपस्थित हो जाने से दृश्य में दम आ जाता है)। उस रात की नस्तस्या फिलिपोवना की पार्टी में काफ़ी हलचल रहती है : टोत्स्की बेचैनी के साथ शादी के नस्तस्या के फ़ैसले का इंतज़ार करता है, मिश्किन और रोगोझिन दोनों उससे अपने प्यार का इज़हार करते हैं और रोगोझिन न केवल हाथ बढाता है; बल्कि सौ मिलियन रूबल का एक पैकेट भी उसे पकड़ाता है, जिसे वह एक झटके में फ़ायर प्लेस की आग में फेंक देती है। पार्टी देर रात ख़त्म होती है और उसी के साथ उपन्यास के आरंभिक चार भागों की भी इति हो जाती है : तो इस तरह कुल लगभग ढाई सौ पन्नों में एक दिन के पंद्रह घंटे और सिर्फ़ चार स्थान—ट्रेन, एपंचिन का घर, गनया का अपार्टमेंट और नस्तस्या का अपार्टमेंट।

तब तक देश और काल के एक संक्षिप्त सघन अंतराल में इतनी सारी घटनाओं का एक के बाद एक घटते चले जाना सिर्फ़ थिएटर में ही पाया जा सकता था। सामान्य जीवन का हर पहलू घटनाओं (गनया का मिश्किन को चाँटा मारना, वार्या का गनया के मुँह पर थूक देना, रोगोझिन और मिश्किन का एक ही समय एक ही औरत से अपना अपना प्रेम निवेदन करने) की इस अतिशय गत्यात्मक नाटकीयता के दौरान नेपथ्य में चला जाता है। बाल्ज़ाक, दोस्तोयेवस्की और स्कॉट के उपन्यासों का यही कलाशास्त्र है : उपन्यासकार सब कुछ दृश्यों के माध्यम से कहना चाहता है, लेकिन एक-एक दृश्य के वर्णन में काफ़ी स्पेस की ज़रूरत पड़ती है; इस दौरान सस्पेंस को बनाए रखने के लिए अतिशय सघन, एक के बाद एक शृंखलाबद्ध घटनाक्रम की ज़रूरत पड़ती है और इसीलिए विरोधाभास की सृष्टि होती है : उपन्यासकार जीवन के गद्य की विश्वसनीयता को बरक़रार रखने के लिए थमना चाहता है, लेकिन दृश्य में घटनाक्रम इतना गझिन हो चुका होता है और संयोग जिस त्वरा से दृश्य को आप्लावित करते बढ़ रहे होते हैं कि उपन्यासकार, आख्यान की विश्वसनीयता और जीवन के गद्यात्मक स्वरूप, दोनों को खो देता है।

लेकिन मेरी निगाह में दृश्यों का नाट्यीकरण महज़ एक तकनीक भर नहीं और उस अर्थ में कमी भी नहीं है। घटनाक्रम के गझिन हो जाने और एक ही समय में इकट्ठा हो जाने को लेकर भी कहूँगा कि चाहे वह असाधारण हो या बमुश्किलन विश्वास अर्जित कर पाता हो, चाहे जो हो लेकिन है वह चित्ताकर्षक! कौन इनकार कर सकता है कि जब इस तरह ख़ुद हमारे जीवन में कुछ धड़ाधड़ घटता है तो हम हर्षमिश्रित आश्चर्य से भर जाते हैं! वह हमारे लिए अविस्मरणीय होता है! और हम प्रफुल्लित हो उठते हैं! बाल्ज़ाक के या दोस्तोयेवस्की के (जो बाल्ज़ाक शैली के आख़िरी उपन्यास रूप हैं) दृश्यों में एक ख़ास तरह का सौंदर्य परिलक्षित होता है। यद्यपि यथार्थ किंतु ग़ज़ब का दुर्लभ सौंदर्य—ऐसा जिसे हर किसी ने अपने जीवन के क्रम में कभी न कभी अनुभव किया है (या कम से कम उसकी झलक देखी है)।

इससे मुझे देह के तौर पर उन्मुक्तता (the liberntine bohemia) के अपने वे युवा दिन याद आते हैं, जब मेरे दोस्त कहते थे कि एक पुरुष के लिए इससे ज़्यादा रोमांचक कोई अनुभव नहीं कि एक ही दिन में दो-तीन अलग-अलग औरतों के साथ यौन-सुख का आनंद ले। कोई यांत्रिक समूह-सेक्स के रूप में नहीं, बल्कि अप्रत्याशित रूप से किसी के मिल जाने, मौक़े बना लेने, अचानक हो जाने और किसी को रिझा लेने—आदि के फलस्वरूप एक व्यक्तिगत जोखिम भरे रोमांचक एक्ट के तौर पर। वह ‘तीन औरतों का दिन’ जो स्वप्न सरीखा दुर्लभ था, आज सोचता हूँ तो लगता है उसमें एक रोमांचकारी सौंदर्याकर्षण था, जो यौन-क्रीडा के किसी मँझे खिलाड़ी के सुदीर्घ संभोग में नहीं, बल्कि उस त्वरित, एक के बाद एक, एक दूसरे की पृष्ठभूमि में अद्वितीय रूप से आलोकित होने वाली तीनों औरतों के साथ मिलन के महाकाव्यात्मक सौंदर्य में मौजूद था; मानो वे तीन नारी देह, तीन भिन्न-भिन्न वाद्य-यंत्रों से निकलने वाले तीन कोमल उत्तप्त सुर हों, जो एक ही धुन में गुंफित बँधे बज रहे हों। यह एक ख़ास तरह की सुंदरता थी, सामान्य जीवन में अकस्मात् उद्भूत सघनता से एकबारगी कौंध उठने वाली सुंदरता।

वर्तमान की तलाश में

“डॉन क्विक्ज़ोट मरा पड़ा है, लेकिन उसकी मौत न उसकी भतीजी को खाने से रोक सकी, न उसकी नौकरानी को पीने से और न ही सान्चो को ख़ुश होने से।” यह वाक्य थोड़ी देर को जीवन के गद्य से पर्दा हटा देता है। लेकिन अगर हम और पास जाकर गद्य की पड़ताल करें तो? पूरे विस्तार में तो? पल-पल छिन-छिन की तो? कि सान्चो की ख़ुशी ज़ाहिर किस तरह होती है? क्या वह बातूनी है उस वक़्त? क्या वह उन दो औरतों से गप्पें मार रहा है? किस बारे में गप्पें? क्या वह पूरे समय अपने मालिक के नज़दीक रहा?

बतौर परिभाषा तो कथा कहने वाला जो भी बताता है, वह अतीत में घट चुका है। लेकिन हर छोटी से छोटी घटना बीतकर जैसे ही अतीत का हिस्सा बनती है, अपने ठोस स्वभाव और रूप को खो देती है और बस उस ठोस स्वरूप की रूपरेखा भर शेष रह जाती है। इस रूप में प्रत्येक आख्यान का कहा जाना, दरअस्ल घटित का बस एक स्मृतिमूलक वर्णन है, अतः एक सारांश है, एक सरलीकरण है और अंततः एक अमूर्तन है।

जीवन का और जीवन के गद्य का वास्तविक चेहरा केवल और केवल वर्तमान में ही मौजूद होता है। अब सवाल है कि घटित जीवन को किस तरह बताएँ, बीती घटनाओं का किस प्रकार वर्णन करें कि हम उनमें उस वर्तमान को पुनर्जीवित कर सकें जो उनसे खो गया है? उपन्यास-कला ने इसका हल खोज लिया : घटित को दृश्य-रूप में प्रस्तुत कर। प्रत्येक दृश्य यदि एक बार भी भूतकाल की व्याकरणिक क्रिया में वर्णित है तो सत्ता-मीमांसा की दृष्टि से हम वर्तमान में उसे देख और सुन रहे होते हैं; वह दृश्य हमारे समक्ष वर्तमान में ही घटित हो रहा होता है।

जब लोग फ़ील्डिंग को पढ़ते थे, तो उनके पाठक उस मंत्रमुग्ध कर देने वाली प्रतिभा के श्रोता भर बन जाते थे, जो उन्हें साँसें रोककर अपनी बातें सुनने को विवश कर देता था। उसके कुछ अस्सी सालों बाद बाल्ज़ाक ने अपने पाठकों को किसी फ़िल्म की स्क्रीन पर आँखें गड़ाए उन दर्शकों में बदल दिया जो अपने उपन्यासकार के शब्दों के जादू को उपन्यास के दृश्यों में घटित होते साक्षात् देखते थे। फ़ील्डिंग कोई असंभव या अविश्वसनीय कथानक नहीं रच रहे थे, न ही उन्हें इस बात से सरोकार था कि जो वह बता रहे हैं; वह पाठक को कितना विश्वसनीय लगता है, वह यथार्थ का विभ्रम पैदा कर पाठकों को चौंकाने में भी नहीं लगे थे, बल्कि वे तो कथा में सिरजी हुई विस्मित कर देने वाली स्थितियों-परिस्थितियों पर अपनी अप्रत्याशित दृष्टि से, अपनी क़िस्सागोई से मंत्रमुग्ध कर देना चाह रहे थे। लेकिन बाद में जब उपन्यास का जादू उसके दृश्यों को जाग्रत कर देने वाली श्रव्यता-दृश्यता में पर्यवसित हो गया तो विश्वसनीयता ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कसौटी बन गई। पाठक के लिए दृश्य में वर्णित और घटित पर विश्वास करने का तार्किक और यथार्थमूलक आधार ही अनिवार्य शर्त बन गया।

फ़ील्डिंग ने रोज़मर्रा के सामान्य जीवन में कभी ज्यादा रुचि नहीं ली (आज अगर वह होते तो शायद ही उन्हें यक़ीन होता कि रोज़ की घिसी-पिटी ज़िंदगी अब उपन्यासों का प्रमुख विषय बन चुका है); अपने पात्रों के दिमाग़ में चल रही बातों को ठीक से सुनने के लिए वह उनके सिर में कोई माइक्रोफ़ोन रखने से भी गुरेज़ नहीं करते (वह उन्हें बाहर से देखते रहते और उनके मनोविज्ञान पर सरल और प्रायः हँसोड़ क़िस्म का कोई प्रमेय गढ़ देते); लंबे विवरण उन्हें बोर करते थे और वह अपने मुख्य पात्रों की शारीरिक बनावट या रंग-रूप पर या किसी किताब की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर समय ख़र्च नहीं करते (उनकी रचनाओं में आप टॉम की आँखों का रंग नहीं जान सकते); उनका कथानक प्रसन्नचित्त दृश्य के ऊपर-ऊपर से उड़ता हुआ बढ़ता जाता है, वह केवल उन अंशों को ही पाठक को दिखाते जो उनकी दृष्टि में प्लाट और विचारों की स्पष्टता के लिए अपरिहार्य होता; टॉम की नियति जिस लंदन में उजागर होती है, वह दरअस्ल कोई महानगर नहीं बल्कि बहुत हद तक किसी नक़्शे पर खिंची हुई एक मामूली बिंदी भर दिख पड़ता है; न तो महानगरीय सड़कों-चौराहों का वर्णन, न इमारतों का वर्णन।

यूरोप में उन्नीसवीं सदी की शुरुआत दशकों तक जारी रहने वाली हलचल से भरी घटनाओं के बीच हुई जिन्होंने पूरे यूरोप को ऊपर से नीचे तक, एक कोने से दूसरे कोने तक आमूलचूल बदल डाला। मनुष्य के अस्तित्व की बुनियादी बनावट में तब कुछ हमेशा के लिए बदल गया; इतिहास अब सबके लिए अनुभव की वस्तु बन गई; आदमी को इस बात का एहसास हो चुका था कि जिस दुनिया में वह जन्मा था उसी दुनिया में वह मरने वाला नहीं; इतिहास की घड़ी का घंटा अब कहीं ज़्यादा तेज़ और ज़ोरदार आवाज़ में बजने लगा था। उसकी अनुगूँज हर जगह सुनी जाने लगी, यहाँ तक कि उपन्यासों में भी, उनमें भी घंटे और तारीख़ अब दर्ज किए जाने लगे। छोटी से छोटी चीज़ का रूप और आकार हालिया बदलावों से अछूता नहीं रहा, हर जगह यहाँ तक कि कुर्सी और स्कर्ट तक पर उस दौर की मुहर चस्पाँ थी और अब विवरणात्मक दौर की शुरुआत हो चुकी थी। (डिस्क्रिप्शन या विवरण : यानी क्षणभंगुरता के प्रति करुणा, नश्वर के लिए मुक्ति-कामना।) बाल्ज़ाक का पेरिस में फ़ील्डिंग के लंदन जैसा कुछ भी नहीं था; पेरिस की सड़कों और चौराहों के बाज़ाप्ता नाम थे, मकानों के रंग थे, गलियों की गंध और आवाज़ें थी; वह उस ख़ास क्षण का पेरिस था जो न उस क्षण विशेष से पहले था, न कभी आगे वैसा होगा। “उपन्यास का हर दृश्य (चाहे कुर्सी के आकार से या फिर सूट की काट से) इतिहास के उस विशिष्ट चिह्न से पृष्ठांकित था जो अब साये से भी नमूदार हो जाती थी और दुनिया की शक्ल को अपनी तरह गढ़-ढाल रही थी।

उपन्यास की राजशाही और लोकप्रियता वाली इस महान सदी में उपन्यास के राजपथ के ऊपर आकाश में नवीन नक्षत्रमाला का उदय हो चुका था। तभी ‘उपन्यास क्या है’ यह विचार ज़ोर पकड़ने लगा और यह फ़्लाबे, तोलस्तोय से प्रूस्त तक पूरे ज़ोर पर बना रहा; अब इसने अपने पूर्ववर्ती युग के उपन्यासों को नीम गुमनामी में ढँक दिया (एक ग़ज़ब का तथ्य; ज़ोला ने कभी ‘डैंजरस लायजन’ नहीं पढ़ी) और फिर बाद में भी उपन्यास को लेकर बुनियादी विचारों में कोई विशेष तब्दीली होने भर गुंजायश नहीं छोड़ी।

उपन्यास का सिद्धांत

फ़ील्डिंग उन पहले उपन्यासकारों में से एक थे जो उपन्यास के सौंदर्यशास्त्र/काव्यशास्त्र की परिकल्पना कर पाए थे। टॉम जोन्स की अठारह किताबों में से सभी के शुरुआती अध्याय, एक क़िस्म के उपन्यास के सौंदर्यशास्त्र को ही समर्पित हैं। (अपनी ही भाषा और कहन से एक क़िस्म की ईर्ष्या को मन में बाँधे हुए, भारी विद्वतापूर्ण शब्दावलियों को प्लेग की तरह दूर भगाते हुए एक अल्हड़पन और सृजनात्मक सहजता लिए हुए सिद्धांत, जिस तरह एक उपन्यासकार सैद्धांतिकी गढ़ सकता है।)

फ़ील्डिंग ने 1749 में अपना उपन्यास लिखा, माने गर्गन्टुआ और पैन्टाग्रुएल के दो शताब्दियों बाद तथा डॉन क्विक्ज़ोट के डेढ़ सदी के बाद। बावजूद इसके कि वह रैबेलइस और सर्वान्तिस की तरफ़ पीछे मुड़कर देखते हैं, उनके लिए उपन्यास अब भी एक नवीन कलारूप ही था। इस हद तक नवीन कि वह ख़ुद को—‘लेखन के एक नए प्रदेश का संस्थापक…’ तक कह डालते हैं। ‘नया प्रदेश’ इस हद तक नया है कि अब तक उसका नामकरण भी नहीं हुआ है, बल्कि अँग्रेज़ी में इसके दो नाम प्रचलित हैं—उपन्यास और रोमांस। लेकिन फ़ील्डिंग इनका इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि उन्हें मालूम चल चुका होता है कि इस ‘नए प्रदेश’ पर भारी-भरकम रोमांस और अहमक़ाना उपन्यासों का हमला हो चुका है और फ़ील्डिंग अपनी किताब को लेकर ऐसी संज्ञा से किसी को भ्रमित नहीं करना चाहते। ऐन इसीलिए इस नए कलारूप को वह ‘प्रोज़ाई-कॉमी-एपिक कृति’ (prosai-comi-epic writing) का नाम देते हैं, जो हालाँकि थोड़ा दुर्बोध्य ज़रूर है, लेकिन बिल्कुल सटीक अभिव्यंजना देने वाला पदबंध है।

‘‘तो यहाँ हम तय करते हैं कि मात्र ‘मानव-प्रकृति’ ही हमारा मूल बिंदु है…’’ यह कहते हुए वह दरअस्ल कला को परिभाषित करने की कोशिश करते हैं कि आख़िर कला के अस्तित्व मात्र का तात्विक तर्क क्या है, और इस क्रम में वे यथार्थ के विभिन्न आयामों की एक रूपरेखा खींचने का प्रयास करते हैं जिन्हें कला को प्रकाशित, अन्वेषित करना चाहिए और जिसकी अनिवार्य पकड़ कला को होनी चाहिए। लेकिन यह मानव प्रकृति को केंद्र मान लेने की बात एक घिसी-पिटी लकीर लगती है, बल्कि पाठकों को उपन्यास तब मनोरंजन, नैतिक उपदेशों के संवाहक और मज़ेदार भर ही लगते थे। कोई भी उपन्यास से यह अपेक्षा नहीं करता था कि वह मानव-प्रकृति का अन्वेषण करे और इस तरह के महान उद्देश्यों, नैतिक अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरे। चिंतन-मनन को समर्पित इस कलारूप को इतना ऊपर इसे किसी ने किसी तौर नहीं देखा होगा।

टॉम जोन्स में फ़ील्डिंग अचानक ख़ुद को ही कथानक के बीच में यह कहते कथाक्रम रोक देते हैं कि एक पात्र से वह एकदम से चौंक उठे हैं, जिसका व्यवहार लेखक के लिए ‘समूची अतार्किक और चौंकाने वाली संरचना में सर्वाधिक ग़ैरज़िम्मेदार है, शायद ही कभी ऐसी कल्पना मनुष्य कहे जाने वाले विचित्र और आश्चर्यजनक प्राणी के मन मस्तिष्क में आई हो’; दरअस्ल उस ‘विचित्र प्राणी’ के मन में उपजे उस ‘अव्याख्येय’ के प्रति आश्चर्य का उत्पन्न होना ही फ़ील्डिंग के लिए उपन्यास-रचना की प्रेरणा या इसके ‘आविष्कार’ का कारक है। फ़ील्डिंग के लिए आविष्कार ही मूल शब्द है, जिसे वे लैटिन में इन्वेन्शियो (invention) कहते हैं, जिसका अर्थ है—खोजना या अन्वेषण करना। उपन्यास के सृष्टिमूलक आविष्कार की प्रक्रिया में उपन्यासकार मानव-प्रकृति के अब तक छिपे हुए और तब तक अज्ञात आयाम का अनावरण करता है। इस प्रकार औपन्यासिक खोज या अनावरण या आविष्कार अब तक अज्ञात और आवृत्त को जानने की एक गतिविधि है, जिसे परिभाषित करते हुए फ़ील्डिंग ‘अपने चिंतन के समस्त वस्तुओं व बिंदुओं की मूल आत्मा के भीतर त्वरा और प्रतिभासंपन्न अंतर्दृष्टि से उतर जाने’ की गतिविधि कहते हैं। (यह एक मानीख़ेज़ कथन है और इसमें लगाया गया विशेषण ‘त्वरा’ इसका संकेत देता है कि वह एक ख़ास तरह के जानने की बात कर रहे हैं, जिसमें अंत:प्रज्ञा बुनियादी तत्त्व है।)

अब उस ‘प्रोज़ाई-कॉमी-एपिक कृति’ का रूप क्या हो? फ़ील्डिंग दावा करते हैं कि ‘‘चूँकि मैं ही लेखन के इस नए प्रदेश का संस्थापक हूँ, इसलिए मुझे छूट है कि जैसा मुझे लगे; वैसे नियम मैं ख़ुद ही बनाऊँ।’’ फील्डिंग यह कहते हुए साहित्यिक अफ़सरों या ‘बाबुओं’, जो नाम उन्होंने आलोचकों को दे रखा था, को अपने लिए कोई नियम या प्रक्रिया की इस्लाह की कोशिश भर को सिरे से ठुकरा देते हैं। उनके विचार से उपन्यास अपने होने के अनिवार्य तर्क—raison de’tre—(जिसे मैं भी अपरिहार्य मानता हूँ) से परिभाषित होता है। यथार्थ के लोक से इसे ‘खोजा’ जाना है या ‘आविष्कृत’ करना है। हालाँकि इसका रूप स्वतंत्र तरीक़े से निर्मित होगा, जिसकी हदबंदी कोई नहीं कर सकता और जिसका विकास निरंतरता में होगा। यह एक लगातार चौंकाने वाली परिघटना होगी।

सोर्स : The Art of the Novel


मिलान कुंदेरा (1929-2023) सुविख्यात चेक-फ़्रेंच लेखक हैं।  सत्यार्थ अनिरुद्ध पंकज से परिचय के लिए यहाँ देखें : बातों ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा

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